शिशिर कुमार सिन्हा
पटना: लोकसभा चुनाव परिणाम में राष्ट्रीय जनता दल, कांग्रेस, राष्ट्रीय लोक समता पार्टी, हिन्दुस्तान आवामी मोर्चा आदि ने मिलकर 40 सीटों पर महागठबंधन की ओर से प्रत्याशी दिए थे। इनमें से एकमात्र किशनगंज सीट खाते में आई, वह भी बमुश्किल। कांग्रेस को इस सीट पर सांस लेने का मौका मिला, महागठबंधन के बाकी दलों को वह भी नसीब नहीं हुआ। इस बड़ी हार के ढाई महीने बीतने जा रहे हैं, लेकिन अब तक महागठबंधन खुद को संभाल नहीं सका है।
विधानसभा चुनाव की तैयारियों में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के घटक जनता दल यूनाईटेड, भारतीय जनता पार्टी और लोक जनशक्ति पार्टी ने पूरी ताकत झोंक रखी है, जबकि दूसरी तरफ कांग्रेस-राजद खुद से ही परेशान है। महागठबंधन के इन दो बड़े दलों के पास एक साथ बैठने तक का बहाना नहीं है। दोनों कुलबुला रहे हैं अलग होने के लिए। दोनों कन्फ्यूज हैं कि विधानसभा चुनाव में उतरेंगे तो किसके सहारे और कैसे।
राजद के पास मजबूरी के तेजस्वी, प्रदेश अध्यक्ष चुनना भी टास्क
सजायाफ्ता लालू प्रसाद यादव रांची से बैठकर अपने परिवार की ही समस्या का समाधान नहीं कर पा रहे हैं तो पूरे दल को जोड़े रखना कितना बड़ा टास्क होगा, यह समझना मुश्किल नहीं है। पार्टी में पिछले दिनों कुछ फॉरवर्ड नेताओं के सिर उठाने की खबरों के बाद लालू ने अपने दोनों बेटों के साथ पत्नी राबड़ी देवी को समझाया, तब जाकर तेजस्वी यादव को विधानसभा चुनाव में सामने रखने पर सहमति बनी। सहमति का यह समाचार तो मीडिया के सामने बैठकर दे दिया गया, लेकिन राजद के अंदर अब भी सब कुछ सामान्य नहीं चल रहा है। चल रहा होता तो तेजस्वी यादव पूरे मानसून सत्र के दौरान सत्ता पक्ष का सारा हमला विधानमंडल में आए बगैर नहीं झेलते। बल्कि बाहर निकलते और सामना करते। मानसून सत्र खत्म होने के बाद भी तेजस्वी खुलकर कहीं नहीं आ रहे। वह कई बातों पर अड़े हैं। ऐसे में मां राबड़ी देवी और बड़ी बहन मीसा भारती के पास तेजस्वी और तेज प्रताप के बीच सब कुछ ठीक करने की बड़ी जिम्मेदारी है। दोनों इस जिम्मेदारी का परिणाम सामने लाएं तो संभव है कि तेजस्वी भी सामने आ जाएं।
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एक बड़ी बात यह भी, एक झटके में किसी को कोई भी जिम्मेदारी दे देने के लिए चर्चित रहे लालू प्रसाद इस बार अपना प्रदेश अध्यक्ष तक नहीं बता पा रहे हैं। लालू-राबड़ी राज में प्रदेश के शिक्षा मंत्री रहे राजद के वरिष्ठ नेता रामचंद्र पूर्वे फिलहाल प्रदेश राजद के अध्यक्ष हैं, लेकिन सांगठनिक चुनाव से पहले लालू इस पद पर किसी दूसरे बड़े नेता को लाना चाह रहे हैं। यह बड़ा नेता दलित या अल्पसंख्यक होगा, कहने को यह भी कहा जा रहा है लेकिन परेशानी यहां भी तेजस्वी-तेज प्रताप ही हैं। दोनों एक-दूसरे के लिए बोल तो अच्छा रहे हैं, लेकिन पावर गेम भी कम नहीं है। लोकसभा चुनाव में तेज प्रताप ने अपनी पार्टी के कई दिग्गजों को हराने के लिए प्रत्याशी खड़े किए थे तो महागठबंधन की बड़ी हार के बाद लगातार पार्टी में बदलाव की बात कह रहे हैं। ऐसे में पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष को लेकर तेजस्वी या तेज प्रताप, किसकी चलेगी- यह कहना मुश्किल है। तेजस्वी की चली तो कुछ फॉरवर्ड नेताओं के राजनीतिक संन्यास तक की खबर सामने आ सकती है।
यह फॉरवर्ड नेता राजद में सिर्फ ‘लालू के करीबी’ होने के नाते भीष्म पितामह की भूमिका में पड़े हैं। लोकसभा चुनाव के दौरान बैकवर्ड-फॉरवर्ड कार्ड और ‘माय’ समीकरण से दूर रहने की उनकी सलाह को पार्टी ने नहीं माना था और हार के बाद वह इसे वजह भी बता चुके हैं। ऐसे में अगर तेजस्वी की चलती रही तो संभव है कि कुछ नेता राजनीति से ही संन्यास ले लें, क्योंकि लालू के सामने खड़े होने की सोच इनके अंदर नहीं है। यानी, फिलहाल तो राजद खुद अपने अंदर के बवंडर को संभाल नहीं पा रहा है।
ग्रेस नंबर के भरोसे कांग्रेस दोराहे पर खड़ी है
लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के एक प्रत्याशी की जीत हुई, वह भी बहुत कम अंतर से। एकतरफा जीत की उम्मीद वाली इस सीट पर जिस तरह से हारते-हारते कांग्रेस जीत गई, उसे ग्रेस मार्क ही मिला। अब महागठबंधन का इकलौता सांसद कांग्रेस का है तो पार्टी इसके सहारे खुद को बड़ा बताने की कोशिश में फिर लगी है लेकिन राजद यह मानने के लिए अब भी तैयार नहीं है। विधानसभा चुनाव में तो और नहीं होगा। विधानसभा में राजद फिलहाल किसी सत्तारूढ़ पार्टी से भी बड़ी है। ऐसे में वह कांग्रेस को बड़ा कुछ देगी, इसकी उम्मीद तो नहीं ही है। इसलिए कांग्रेस दोराहे पर खड़ी है। कांग्रेस के ज्यादातर नेता चाह रहे हैं कि एक बार पार्टी राजद से अलग रह कर बिल्कुल नए अंदाज में पूरी ताकत झोंके।
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दूसरी तरफ राजद से कांग्रेस में आए नेताओं समेत कई पुराने नेताओं का भी मानना है कि अकेले चना भाड़ नहीं फोड़ सकता, खासकर तब जब जदयू-भाजपा-लोजपा राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के रूप में सामने हो। ऐसे में कांग्रेस के सामने इधर कुआं और उधर खाई वाली स्थिति है। पार्टी के सारे नेता कन्फ्यूज हैं कि करें तो क्या और बोलें तो क्या। किसके साथ खड़े हों और किसके खिलाफ आग उगलें। सत्ता पक्ष के खिलाफ बोल भी रहे तो ताकत नहीं दिख रही। प्रदेश कांग्रेस कार्यालय, यानी सदाकत आश्रम में पहुंचने वाले नेता भी कन्फ्यूज दिख रहे। विधानसभा चुनाव में पार्टी कैसे उतरेगी, महागठबंधन रहेगा या नहीं, कांग्रेस का कोई नेता सामने लाया जाएगा या नहीं, प्रदेश की लड़ाई के लिए मुद्दे क्या हो सकते हैं ऐसे दर्जनों सवाल हैं लेकिन जवाब किसी के पास नहीं है। हर कोई इस पर बात करना चाहता है, लेकिन कोई बात नहीं कर रहा। गुनमुना कर रहे जा रहे, बोल नहीं पा रहे। पूछिए तो कहते हैं कि आलाकमान के फैसले का इंतजार है। जो होगा, वहीं से। क्या होगा, इसकी भी कोई संभावना-आशंका नहीं बता पा रहे।