Delhi News: आखिर दिल्ली किसकी ?
Delhi News Today: महान हैं, धन्य हैं दिल्ली वाले जो इस खिचड़ी का रसास्वादन करते रहते हैं। ये है असली भारतीय स्प्रिट। फुटबॉल की तरह लातें खाते रहो और बस-मेट्रो के धक्के खाकर बस यही बोलते रहो कि "दिल्ली तो दिलवालों की।"
Delhi News Today: भारत की राजधानी। वही दिल्ली जिस पर कब्जा जमाने के लिए नादिर शाह से लेकर मुगलों मंगोलों तक किसने क्या क्या नहीं किया। सबको दिल्ली चाहिए थी क्योंकि दिल्ली का मतलब ही था भारत। आज वही दिल्ली खुद अपने आप से ये पूछने को मजबूर है कि आखिर मैं हूं किसकी? दिल्ली वालों को इस सवाल का जवाब नहीं मिल रहा है कि दिल्ली है किसकी। कभी कहा जाता था कि दिल्ली दिलवालों की है। लेकिन आज ये दिलजलों की भी नहीं है।
देश की राजधानी। देश पर शासन करने वाली सरकार का ठिकाना। देश की सबसे बड़ी अदालत का ठिकाना, देश की सबसे बड़ी पंचायत का घर, पूरी दुनिया के दूतों का ठिकाना - सब दिल्ली है। लेकिन बस ठिकाना ही है। ऐसा ठिकाना, ऐसा चारागाह जिसका मालिक कोई नहीं लेकिन चरने वाले ढेरों।
कहने को दिल्ली राज्य है लेकिन नहीं भी है। दिल्ली की अलग सरकार है लेकिन हालात बिना पहियों वाली कार जैसी। मुख्यमंत्री है और लेफ्टिनेंट गवर्नर भी। किसकी क्या पावर है ये चंद्रकांता उपन्यास के तिलिस्मी रहस्य सरीखा है। दिल्ली के कूड़े, ट्रैफिक, पुलिसिंग, नाली नाले, बिजली, पानी, एनक्रोचमेंट, झुग्गी, बाजार, सड़क .... कुछ भी गिनाइए, किस चीज का कौन जवाबदेह और जिम्मेदार है कुछ भी साफ नहीं।
दिल्ली की सरकार, दिल्ली का नगर निगम, दिल्ली के विधायक, दिल्ली के एमपी, दिल्ली में बैठी केंद्र सरकार - सबकी एक ऐसी खिचड़ी है जिसे पंचमेल नहीं बल्कि दसमेल कहना ज्यादा मुफीद होगा। सबसे उम्दा बात वो है जो दसमेल खिचड़ी के सभी एलिमेंट्स को खूब सुहाती है। और वह है - किसी की कोई जवाबदेही जिम्मेदारी नहीं। सब इधर से उधर धकेलने के खेल में जुटे रहते हैं।
महान हैं, धन्य हैं दिल्ली वाले जो इस खिचड़ी का रसास्वादन करते रहते हैं। ये है असली भारतीय स्प्रिट। फुटबॉल की तरह लातें खाते रहो और बस-मेट्रो के धक्के खाकर बस यही बोलते रहो कि "दिल्ली तो दिलवालों की।"
दरअसल, ये दिल्ली वाले न घर के हैं न घाट के। विधायक किसी पार्टी का, कार्पोरेटर किसी पार्टी के, सांसद किसी और के। अफसर किसी और सरकार के बन्दे। राज्य सरकार लाचारी और बेबसी का रोना रोये, केंद्र पल्ला झाड़े खड़ी रहे और अफसर मज़ा लेते रहें। उनको तो बस काम न करने का बहाना चाहिए। इनके बीच रही जनता जिसे जो समझा दो समझती रहती है।
क्या गज़ब हाल है। सीबीआई, ईडी, इनकम टैक्स, सेना, पीडब्ल्यूडी, रेलवे, जिसका नाम लीजिए उसका हेडक्वार्टर दिल्ली लेकिन इसी तीन करोड़ बाशिंदों के शहर में शायद ही कोई चीज दुरुस्त हो। अनगिनत बेसमेंट, गली मोहल्लों सड़कों पर बाढ़, शेल्टर होम में मौतें, दमघोटू जहरीली हवा, झुग्गी झोपड़ियों की भरमार, खटारा बसें, सेफ्टी सिक्योरिटी का कोई सिला नहीं ... क्या चीज दुरुस्त है यहां? कैसी राजधानी है ये?
दरअसल, दिल्ली (Delhi Political History) को सत्ता संघर्ष और पॉलिटिक्स ले डूबी है। वो भी आज से नहीं। दिल्ली पर किसका शासन होगा और कितना? यह सवाल शहर के इतिहास में तब से ही बना हुआ है जब से यह 1911 में ब्रिटिश राजधानी बना था।
थोड़ा पीछे चलते हैं। अतीत में मुगल सत्ता का गौरवशाली केंद्र रही दिल्ली, 1857 के बाद के वर्षों में एक आम शहर जैसी हो गई थी। उसका गौरवशाली अतीत बस यादों में ही बचा हुआ था। इसकी वजह ये थी कि 1857 के विद्रोह के बाद की जबर्दस्त उलटपलट के बाद जब अंग्रेजों ने पूरा कंट्रोल कर लिया तो उन्होंने विद्रोह में वफादारी दिखाने के लिए पंजाब राज्य को दिल्ली गिफ्ट में दे दी। पंजाब ने भी दिल्ली की गिफ्ट को बस किनारे में सजा दिया।आधी सदी बाद अंग्रेजों ने अपनी राजधानी कोलकाता से दिल्ली शिफ्ट करना तय किया और 1911 में दिल्ली शासन का केंद्र बन गई।
राजधानी निर्माण के शुरुआती दिनों में ही टकराव शुरू हो गया कि दिल्ली (Delhi Political History) में जवाबदेही और जिम्मेदारी किसकी है। वजह थी अंग्रेजों के बनाये तरह तरह के कानून जिसके तहत कुछ इलाके नोटिफाईड एरिया थे और कुछ इलाके म्युनिसिपल एरिया। झगड़ा वहीं से शुरू हो गया और लगातार जारी रहा। दिल्ली के प्रशासन को लेकर सत्ता संघर्ष और बहस आज़ादी के बाद भी जारी रहा। 1951 में दिल्ली की स्थिति बदल गई जब स्टेट्स एक्ट के तहत शहर में विधान सभा के गठन की अनुमति दी गई।
सार्वजनिक व्यवस्था, पुलिस, भूमि और नगर पालिका जैसे विषयों को केंद्र सरकार के पास छोड़ दिया गया। नतीजतन, 1952 में दिल्ली (Delhi Political History) को अपना पहला मुख्यमंत्री मिला - कांग्रेस के चौधरी ब्रह्म प्रकाश।
तीन साल में ही ब्रह्म प्रकाश चीफ कमिश्नर और बाद में तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री के साथ अलग अलग मामलों पर गतिरोध से पक गए और सन 55 में उन्होंने पद से इस्तीफा दे दिया। राज्य पुनर्गठन कमेटी ने भी दिल्ली का विधानसभा दर्जा खत्म कर दिया। तमाम विरोधों के बावजूद केंद्र सरकार ने 1957 में दिल्ली नगर निगम अधिनियम लागू कर दिया। यानी दिल्ली (Delhi Political History) नगर निगम की हो गई। चूंकि असंतोष लगातार बना रहा सो 1960 के दशक में नगर निगम की जगह महानगर परिषद बना दी गई।
1977 में महानगर परिषद का नेतृत्व कर रही जनसंघ ने दिल्ली को राज्य का दर्जा देने की जोरदार मांग उठाई। अस्सी के दशक के अंत तक दिल्ली में पूर्ण राज्य की मांग इतनी तेज रही कि भाजपा के मदनलाल खुराना की राजनीतिक रफ्तार इतनी तेज थी कि उन्हें को 'दिल्ली का शेर' कहा जाने लगा था। अंत में 1987 में केंद्र की कांग्रेसी सरकार ने दिल्ली के लिए सरकारिया आयोग बनाया जिसने दिल्ली में विधान सभा की सिफारिश की, जिसे 1991 में संविधान के 69वें संशोधन के जरिये लागू किया गया। दिल्ली (Delhi Political History) को विधानसभा तो मिली लेकिन पूर्ण राज्य का दर्जा मिला नहीं और जो मिला वह थी दसमेल खिचड़ी।
वैसे, ये झगड़ा सिर्फ़ भारतीय राजधानी तक ही सीमित नहीं है। मिसाल के लिए, अमेरिकी राजधानी वाशिंगटन डीसी में 1990 के दशक से ही पूर्ण राज्य का दर्जा मांगने वाले कई आंदोलन उभरे हैं। ऑस्ट्रेलियाई राजधानी कैनबरा और ब्राज़ील की राजधानी ब्रासीलिया में भी इसी तरह के तनाव पैदा हुए हैं। लेकिन उन देशों ने अधिकार और जिम्मेदारी की स्पष्ट सीमा रेखा खींच कर चीजों को सुलझा लिया है। दिल्ली को भी दूसरे देशों से जो सीख लेनी चाहिए। उपाय कई हो सकते हैं। एक सिर्फ राजधानी का नया शहर ही बसाने से ले कर एक केंद्र शासित प्रदेश तक के कई विकल्प हैं। बस, कोई करना तो चाहे। दिल्ली को दिलजलों की तो बना दिया है। बेसमेंट में भी डुबो दिया है। अब चुल्लू भर पानी में डुबोने से तो बचा लें।
( लेखक पत्रकार हैं ।)