आशा भोसले की राष्ट्र भाषा हिन्दी के विरोध से क्षेत्रीय दलों को मिलती है सत्ता की चाबी
कुछ साल पहले आशा भोंसले ने कहा था कि हिन्दी देश की राष्ट्र भाषा है। इसका बडे स्तर पर अलग-अलग लोगों ने विरोध किया। गुजरात हाईकोर्ट भी लगभग दस साल पहले स्पष्ट कर चुका है कि देश में कोई भी भाषा राष्ट्र भाषा की वैधानिकता नहीं रखती है तो सवाल यह है कि कौन है जो हिन्दी को राष्ट्र भाषा मान रहा है।
लखनऊ: हिन्दी भाषा के बारे में एक आम धारणा है कि यह भारत की राष्ट्रीय भाषा का दर्जा रखती है लेकिन इसका विरोध भी विभिन्न स्तरों पर होता आया है। कुछ साल पहले आशा भोंसले ने कहा था कि हिन्दी देश की राष्ट्र भाषा है। इसका बडे स्तर पर अलग-अलग लोगों ने विरोध किया। गुजरात हाईकोर्ट भी लगभग दस साल पहले स्पष्ट कर चुका है कि देश में कोई भी भाषा राष्ट्र भाषा की वैधानिकता नहीं रखती है तो सवाल यह है कि कौन है जो हिन्दी को राष्ट्र भाषा मान रहा है। हिन्दी का राष्ट्र भाषा के तौर पर विरोध करने वाले लोग कौन हैं।
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आसानी से समझा जा सकता है हिन्दी भाषा के दायरे को
गुजरात हाईकोर्ट और आशा भोंसले की टिप्पणी के आधार पर हिन्दी भाषा के दायरे को आसानी से समझा जा सकता है। दरअसल भारतीय संविधान निर्माताओं ने राष्ट्र भाषा के नाम पर खामोशी अख्तियार कर रखी है। भारत की किसी भी भाषा को राष्ट्र भाषा का दर्जा प्राप्त नहीं है। गुजरात हाईकोर्ट ने भी हिन्दी के संदर्भ में इसी वैधानिकता की ओर इशारा किया है। तो सवाल यह उठता है कि राष्ट्र भाषा हिन्दी क्यों नहीं। क्यों आशा भोंसले कह रही हैं कि हिन्दी इस देश की राष्ट्र भाषा है।
इसका उत्तर भारत की डेमोग्राफी में तलाशा जा सकता है। भारत की जनसंख्या का बडा भाग उत्तर दिशा में निवास करता है और इसके कम से कम आठ बडे राज्यों उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ, मध्यप्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली,में हिन्दी ही मानव व्यवहार की प्रथम भाषा है। अन्य कई राज्यों उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, पंजाब में हिन्दी बोलने –समझने वालों की तादाद स्थानीय भाषाओं के समान ही है। ऐसा कह सकते हैं कि इन राज्यों में हिन्दी समानांतर तौर पर व्यवहार में मौजूद है।
हैदराबाद से दक्खिनी हिन्दी का जन्म
गुजरात, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल सरीखे प्रदेशों में भी हिन्दी बोलने- समझने वाले आसानी से मिल जाएंगे। दक्षिण भारत के राज्य तेलंगाना को भी ऐसे में नहीं भूलना चाहिए जिसके प्रमुख शहर हैदराबाद से दक्खिनी हिन्दी का जन्म होता है और जिसे हिन्दी की मानक भाषा बनाए जाने की बात भी उठ चुकी है। दक्खिनी हिन्दी में प्रचुर साहित्य भी लिखा जा चुका है। महात्मा गांधी भी इसके समर्थकों में शामिल हैं। ऐसे में केवल दक्षिण भारत और पूर्वोत्तर के राज्य ही ऐसे हैं जहां हिन्दी का प्रवेश एवं व्यवहार सीमित है।
हिन्दी भाषा प्रयोग के इसी विस्तारित क्षेत्र की ताकत है जिसकी वजह से आशा भोंसले और उनके जैसे लाखों- करोड भारतीय यह मानते हैं कि हिन्दी ही देश की राष्ट्र भाषा है। बॉलीवुड की सफलता को भी हिन्दी भाषा के पराक्रम का प्रभाव माना जा सकता है। देश आजाद होने के बाद सिनेमा निर्माण के तीन प्रमुख केंद्र चेन्नई, कोलकाता और मुंबई बने। पहले दोनों शहरों में स्थानीय भाषाई सिनेमा का विकास हुआ जबकि मुंबई ने मराठी के साथ ही हिन्दी सिनेमा को भी आधार प्रदान किया।
नागरिकों के साथ संवाद करना संभव
देश की जिस डेमोग्राफी का जिक्र ऊपर मैंने किया है उसी का दम है कि मुंबई का बॉलीवुड देश का सबसे समृद्ध सिने निर्माण क्षेत्र बना। जबकि अन्य भाषाओं में बॉलीवुड से भी ज्यादा अच्छे सिनेमा का निर्माण होता रहा है। टॉलीवुड के एक्शन और गीतों की कोरियोग्राफी तो आज भी हिन्दी सिनेमा प्रेमियों को लुभा रही है। यही वजह है कि आशा भोंसले कह रही हैं कि हिन्दी ही देश की राष्ट्र भाषा है क्योंकि इस भाषा में एक साथ देश के अधिकांश नागरिकों के साथ संवाद करना संभव है।
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क्या हिन्दी को दूसरे राज्यों पर थोपा जा रहा?
ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या हिन्दी को दूसरे राज्यों पर थोपा जा रहा है। इस घोर राजनीतिक सवाल का जवाब भी देश व प्रदेश में सरकारों का संचालन करने वाले राजनीतिक दलों के स्वार्थ और वोटबैंक की राजनीति में निहित है। आजादी के बाद से केंद्र सरकार का राज्यों के साथ संपर्क केवल अंग्रेजी भाषा के जरिये बना हुआ है। राज्यों में स्थानीय भाषाओं में कामकाज होता है जो स्थानीयता यानी जनता के लिए जनता की भाषा सिंद़धांत के अनुसार आवश्यक भी है। ऐसे में वह हिन्दी जो सिनेमा से लेकर कार्य –व्यवहार के तमाम अवसरों पर देश के अधिकांश निवासियों के विचार एवं भाव संप्रेषण का माध्यम है। उसका सरकारी काम-काज में लागू किए जाने का विरोध राजनेताओं के स्तर से किया जाता है।
राजनीति के इस खेल को ऐसे में भी समझा जा सकता है कि देश के दो बडे राजनीतिक दलों कांग्रेस और भाजपा का क्षेत्रीय राजनीति में जनाधार शून्य है। तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, उडीसा, पश्चिम बंगाल, जम्मू- कश्मीर, पंजाब में क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की सरकार बनती रही है। क्षेत्रीय आधार पर मतदाताओं को एकजुट करने में भाषा भेद भी सहायक भूमिका का निर्वाह करता है। भाषा के आधार पर एक जनसमूह का निर्माण होता है और यह समूह ही अंततोगत्वा मतदाताओं के समूह में परिवर्तित होता है।
विरोध का स्वर तीव्र
ऐसे में कांग्रेस और भाजपा जैसे राजनीतिक दलों को क्षेत्रीय राजनीति से दूर रखने में भाषा विरोध का अस्त्र कारगर साबित होता है। सरकारी कामकाज में हिन्दी को लागू करने को स्थानीय अस्मिता पर प्रहार करार देकर विरोध का स्वर तीव्र किया जाता है। ऐसे ही हिन्दी को थोपने का आरोप लगाया जाता है अन्यथा भाषाएं तो संवाद और संप्रेषण का जरिया हैं। जब कभी दो व्यक्ति एक दूसरे से मिलते हैं और एक- दूसरे की भाषा से भी परिचित हो जाते हैं तो उनके बीच संवाद की प्रक्रिया तेज होने लगती है।
ऐसे में भाषाओं से निकट संबंध बनाने की प्रक्रिया को थोपने का आरोप वही लोग लगा सकते हैं जो नहीं चाहते हैं कि दो व्यक्तियों में संवाद बढे, वह एक दूसरे की भावना और बात समझ सकें। एक दूसरे के दोस्त बन सकें।
अखिलेश तिवारी
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