इंडिया की बढ़ती ताकतों से डर रहा है चीन, तभी खड़े कर रहा इसकी प्रगति में बैरियर
अरुण अपेक्षित
बात बहुत पुरानी तो नहीं है, मात्र 56 साल पहले की है। जब हम भी हिंदू-चीनी भाई-भाई के नारे लगाते थे। अमेरिका को अपना सबसे बड़ा मित्र मानते थे। तात्कालिक प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू के पंचशील के सिद्धांतों को पूरा विश्व सम्मान देता था। पं. नेहरू ने कहा कि हम एक शांतिप्रिय देश है। हम सभी से मित्रता चाहते हैं। हमारा कोई भी दुश्मन नहीं। प्यार, सम्मान, सद्भाव, भाईचारे के सहारे समानता और सह-अस्तित्व के सिद्धांतों पर चलते हुए हम केवल विकास और विकास के मार्ग पर चलना चाहेंगे।
अमन-पसंद मुल्क में सेनाओं का क्या काम? हम देश में सेनाओं को समाप्त कर देंगे। हमारे देश को सेनाओं की आवश्यकता नहीं? तभी हमारे भाई जैसे मित्र चीन ने हमारे गाल पर एक जोरदार चांटा रसीद किया। मुंह में राम बगल में छुरी के मुहावरे को चरितार्थ करते हुये लाखों चीटिंयां सेनाओं के रूप में हमारी सीमाओं को संकुचित करने के लिये आगे बढऩे लगीं। उनके हाथों में संगीनें थीं। मुंह में हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा था और वे हमसे हमारी ही धरती से बेदखल हो जाने का आदेश दे रहे थे।
युद्ध की कठिन परिस्थिति में हमने तब अपने दूसरे मित्र अमेरिका से मदद की गुहार लगाई। नेहरू जी के परम-प्रिय मित्र केनेडी ने जो कुछ उस समय कहा वह चीन के प्रधानमंत्री चाऊइनलाई के दिये गये धोखे से कम विशक्त नहीं था- मि. नेहरू तुमने जो यहां पंचशील के सिद्धान्तों की उल्टी की है। पहले उसे साफ करो और फिर हमसे सहयोग की अपेक्षा करो।
सन 1962 में जो कुछ हुआ वह भले ही इतिहास की सामग्री बन चुका हो पर इतिहास से शिक्षा लेते रहना ही सच्ची बुद्धिमानी होगी। आज भले ही सोवियतसंघ न हो पर रूस तो है। हर मुसीबत के समय सहयोग करने वाले पुराने मित्रों की मित्रता को हमें किसी भी स्थिति में भूलना नहीं है।
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दूसरी बात जो दरअसल पहली है- मित्रता बराबरी वालों में ही होती है। अगर हम कहीं भी किसी भी मोर्चे पर कमजोर पड़े, चाहें वह आर्थिक मोर्चा हो अथवा आंतरिक तथा बाहरी सुरक्षा से संबंधित मोर्चा, प्रगति और विकास से जुड़ा मोर्चा हो अथवा शिक्षा, स्वास्थ्य, समृद्धि, कृषि, व्यापार, विज्ञान, अनुसंधान जब तक विश्व के तथाकथिक विकसित देशों को चुनौती देकर हम विकासशील देशों की सीमा से बाहर नहीं निकलते दुनिया में बराबरी का दर्जा मित्रता के रूप में नहीं पा सकते हैं।
सम्पूर्ण विश्व में कुछ देशों की दादागिरी चलती रही है। सोवियत संघ तो टूट गया है पर अमेरिका और चीन जैसे देश हैं, जो विश्व में अपनी प्रमुखता बनाए रखना चाहते थे। पाकिस्तान अपने आपको कुछ भी समझता रहे पर वह चीन के एक पैर से अधिक कुछ नहीं। चीन जानता है कि अब भारत सन 1962 वाला भारत नहीं है। यह देश उस रास्ते पर जा रहा है कि अगर इसके रास्ते में बेरियर खड़े नहीं किये गए, तो बहुत जल्दी इसकी गणना विश्व की महाशक्तियों में होने लगेगा। इस लिये चीन की कोशिश हमें चारों ओर से घेरने की है। चीन अच्छी तरह समझता है कि एशिया में उसे टक्कर देने का सामर्थ्य केवल भारत के पास है।
अमेरिका भी एशिया में अपना दबदबा बना कर रखना चाहता है और उसकी चिंता चीन को लेकर ठीक वैसी ही है जैसी चीन की चिंता भारत को लेकर है। दोनों ही देश एशिया में अपने सैनिक अड्डे स्थापित करने की होड़ में है। पाकिस्तान तो चीन का पक्का मित्र है पर मित्रता के नाम पर अमेरिका की ओर से यह खतरा हमारे लिए भी बना हुआ है। हमें सम्पूर्ण विकास चाहिए। सम्पूर्ण विकास हम उधार की टेक्नोलॉजी के सहारे नहीं कर सकते हैं। टेक्नोलॉजी ही वह माध्यम है, जो हमें आत्म निर्भर बना कर आत्म-सम्मान दिला सकती है। समरथ को नहीं दोष गुसाई। सामर्थ्यवान बन कर ही हम अपनी बात को मनवाने के लिए विश्व को विवश कर सकते हैं।
हम 'अहिंसा परमो धर्म:' के सिद्धान्त को मानने वाले हैं। हम 'वसुदेव कुटुम्बकम' के सिद्धान्त को भी मानते हैं। पर उपभोक्तावादी विश्व लाशों के व्यापार में आस्था रखता है। जितनी भी हिंसा विश्व में है, वह इसी उपभोक्तावादी संस्कृति की देन है। न चाहते हुये भी महावीर, गौतम बुद्ध और गांधी के इस देश को शत्रु का दमन करने के लिये हिंसा का सहारा लेना पड़ता है। हम भारतीय आज भी नेहरू के पंचशील के सिद्धान्तों को स्वीकार करते हैं पर फिर कोई चीन हमें हमारी पीठ में चाकू न घोपे हमें हर तरह के युद्ध के लिये तैयार होना ही होगा। युद्ध बिना आधुनिक टेक्नोलॉजी के नहीं जीते जा सकते हैं। इतिहास साक्षी है, युद्ध की टेक्नोलॉजी में विकास न करने के कारण हम लगभग दो हजार सालों तक गुलाम बन कर रहे हैं।
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न तो मुगल इतने बलशाली और बहादुर थे कि हमसे जीत पाते और न अंग्रेज, पर उनके पास युद्ध की तकनीकी थी। हम जब बाहुबल पर विश्वास करते हुये मात्र तीर, तलवार, बर्छी, भाले आदि का ही उपयोग कर रहे थे, तब वे बारूद और बारूद से चलने वाली तोपों का उपयोग करने लगे थे। हमें गुलाम उनकी तोपों वाली इस तकनीक ने बनाया और उन गद्दारों ने जिनकी चर्चा करना भी व्यर्थ है। हमारे वैज्ञानिकों ने अपनी टेक्नोलॉजी का विकास करके विश्व के बड़े देशों की समकक्षता प्राप्त की है और आगे भी इसकी आवश्यकता है।
बहरहाल अमेरिका से सच्ची मित्रता के लिये हमें उसके समान्तर आकर खड़ा होना होगा क्योंकि मित्रता हमेशा बराबरी वालों में होती है, न कि छोटे-बड़े के मध्य। कमजोर को हर कोई दबाने का प्रयास करता है। कमजोर पर हर कोई अपनी मनमर्जी थोप देता है। सौभाग्य से हमारे प्रधानमंत्री समानता के धरातल पर ही विश्व के देशों में मित्रता कर रहे हैं पर हमारा पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान जिस चीन पर इतरा रहा है। उसे अवश्य यह सोचना चाहिए कि मित्रता हमेशा बराबरी वालों में निभ पाती है। न कि चीन और पाकिस्तान जैसे असमान क्षमता वाले देशों के मध्य, कभी भी और किसी भी समय चीन पाकिस्तान को उसकी औकात याद करा सकता है।
रहा कश्मीर का प्रश्न तो कश्मीर हमारा है ही। साथ ही हमने जिस अखंड भारत का स्वप्न को देखा है, वह भी एक दिन साकार होकर रहेगा। पाकिस्तान टूटेगा और भारत का अभिन्न अंग बनेगा तथा सिंध-नदी के तटों से लेकर हिंद महासागर तक देश पुन: एक हो कर रहेगा। भारत अपने सब्र का इम्तिहान दे रहा है और इसमें लगभग वह सफल होता नजर भी आ रहा है। धीरे-धीरे करके भारत का वर्चस्व पूरी दुनिया में बढ़ता जा रहा है, और शायद यही वजह है कि आज देश के अंदर व बाहर भारत का विरोध करने वाले बौखलाए हुए नजर आ रहे हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार हैं)