नई दिल्ली: मिर्जा गालिब के बाद भी कुछ ऐसे शायर हुए जिन्होंने जनता को खासा प्रभावित किया, इन्हीं में एक उर्दू के बेहतरीन शायर जोश मलीहाबादी भी हैं। आज उनका जन्मदिन है। मलीहाबादी का जन्म 5 दिसंबर 1898 में लखनऊ के मलीहाबाद में हुआ था।
घर पर ही की थी अरबी, उर्दू और अंग्रेजी की शिक्षा ग्रहण
जोश मलीहाबादी को शब्बीर हसन खान के नाम से भी जाना जाता है। सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि जोश ने बचपन में घर पर ही अरबी, उर्दू और अंग्रेजी की शिक्षा ग्रहण की, लेकिन बाद में आगरा के सेंट पीटर्स कॉलेज में उन्हें दाखिला दिलाया गया। 1916 में उनके पिता की मौत हो गई जिसके बाद उनका जोश टूट गया और उनकी पढ़ाई बीच में छूट गई। सबसे खास बात यह है कि उनके दादा, परदादा और चाचा सभी कवि थे। मलीहाबादी ने भी आगे चलकर इसी परंपरा को विकसित किया।
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इतना मानूस हूं फितरत से कली जब चटकी
एक दिन कह लीजिए जो कुछ है दिल में आप के...एक दिन सुन लीजिए जो कुछ हमारे दिल में है। ये शेर उर्दू के अजीम शायर जोश मलीहाबादी का है। उनके बारे में कहा जाता है कि वह एक ऐसे शायर थे जो कली के टूटने पर भी पूछ लिया करते थे कि कहीं कोई इरशाद उनके लिए तो नहीं किया गया। उन्होंने लिखा था..इतना मानूस हूं फितरत से कली जब चटकी..झुक के मैंने ये कहा मुझ से कुछ इरशाद किया?
यहां की थी नौकरी की शुरुआत
1925 में मलीहाबादी ने ओसमानिया यूनिवर्सिटी हैदराबाद में ट्रांसलेशन करना शुरू किया था, लेकिन उन्हें इस नौकरी से हाथ धोना पड़ा क्योंकि उन्होंने हैदराबाद के निजाम के खिलाफ नज्म लिख दी थी। इस वाकये के बाद उन्होंने कलीम नाम से एक मैगजीन शुरू की जिसमें उन्होंने देश की आजादी के लिए आर्टिकल लिखना शुरू कर दिया। उनकी कविता हुसैन और इंकलाब को शायर ए इंकलाब का खिताब मिला।
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बंटवारे के बाद चले गए पाकिस्तान
उन्होंने आजादी की लड़ाई में भी भाग लिया। 1947 में भारत की आजादी के बाद वह आज-कल पब्लिकेशन के संपादक बने। हालांकि बंटवारे के बाद 1958 में उन्होंने पाकिस्तान जाने का फैसला ले लिया। दिल से पक्के भारतीय मलीहाबादी का ऐसा फैसला कईयों को निराश कर गया। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें पाकिस्तान जाने से काफी रोकना चाहा। लेकिन वह नहीं माने। मलीहाबादी पाकिस्तान चले गए और कराची में अंजुमन ए तरक्की ए उर्दू के लिए काम करने लगे। वह उर्दू के लिए अपनी जान देने वाले लोगों में से एक थे।
तीन बार आए थे भारत
पाकिस्तान जाने के बाद मलीहाबादी का भारत आना-जाना कम हो गया। माना जाता है कि वहां बसने के बाद वह सिर्फ तीन बार भारत आए। पहली बार वह भारत तब आए जब मौलाना आजाद की मौत हुई। दूसरी बार वह भारत तब आए जब पंडित नेहरू का इंतकाल हुआ और तीसरी बार किसी खास वजह से जिसमें इंदिरा गांधी से मुलाकातें भी शामिल थीं।
क्रांति और इंकलाब की बात कहने वाले मलीहाबादी ने अपनी आत्मकथा 'यादों की बरात' में अपनी जिंदगी के कई दिलचस्प किस्सों के बारे में बताया है। इसमें न सिर्फ जवाहर लाल नेहरू, रवींद्रनाथ ठाकुर पर चर्चा की है बल्कि अपने इश्क़ के खुशनुमा पहलुओं को भी उजागर किया है।
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मलीहाबादी के बारे में कहा जाता है कि वह उर्दू भाषा के विकास के लिए बहुत गंभीर थे और उन्हें गलत उर्दू लिखना और बोलना बिल्कुल भी पसंद नहीं था। इस वजह से उर्दू में गलतियां करने वाले उनके गुस्से का अक्सर शिकार हुआ करते थे।
22 फरवरी 1982 को मलीहाबादी ने इस्लामाबाद में दुनिया को अलविदा कह दिया। उनके बारे में कहा जाता है कि वह जब शराब पीते थे तो उनकी अदायगी में एक नजाकत होती थी। वह हर आधे घंटे में एक पैग बनाया करते थे। हालांकि उनका एक शेर बहुत मशहूर है..इंसान के लहू को पियो इज़्न ए आम है, अंगूर की शराब का पीना हराम है।
जोश मलीहाबादी के बेहतरीन शेर में से ये एक हैं.....
वह घनेरी मस्त ज़ुल्फ़ों की महकती छांव में
गुनगुनाने मुसकराने झूमने-गाने की रात
तुझको इन नींद की तरसी हुई आंखों की कसम
अपनी रातों को मेरी हिज्र में बरबाद न कर
दिल की चोटों ने...
दिल की चोटों ने कभी चैन से रहने न दिया
जब चली सर्द हवा मैंने तुझे याद किया
इस का रोना नहीं क्यूं तुमने किया दिल बर्बाद
इस का ग़म है कि बहुत देर में बर्बाद किया
बाल उलझे हुए, लब ख़ुश्क, निगाहें मायूस
हुस्न पर इतना सितम ऐ सितम ईजाद ! न कर
अब ये आलम है....
अब ये आलम है, ज़िन्दगानी का
जिस पै ऐ 'जोश' ! मौत हंसती है
एक दिन कह लीजिए जो कुछ है दिल में आप के
एक दिन सुन लीजिए जो कुछ हमारे दिल में है
ख़ुदा गवाह कि अब काटे से नहीं कटतीं
यह इन्तज़ार की रातें यह इन्तज़ार के दिन
मुझ को तो होश नहीं...
मुझ को तो होश नहीं तुम को ख़बर हो शायद
लोग कहते हैं कि तुम ने मुझे बर्बाद किया
मुसकराती हुई यूं आई वह मैख़ाने में
रुक गई सांस छलकते हुए पैमानों की
इस दिल में तिरे हुस्न की वो जल्वागरी है
जो देखे है कहता है कि शीशे में परी है