कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशीः संविधान से लेकर हैदराबाद विलय में रहे सबसे आगे
1910 में मुंशी ने बम्बई विश्वविद्यालय से एलएलबी की उपाधि प्राप्त की और वकालत शुरू करने के बाद बहुत कम समय में ही बम्बई उच्च न्यायालय के प्रमुख वकीलों में से एक बन गये।
रामकृष्ण वाजपेयी
लखनऊ: कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी नाम सुनकर आप लोग सोच रहे होंगे कोई साहित्यकार या कवि होगा। लेकिन आप गलत हैं। ये नाम है बहुमुखी प्रतिभा के धनी उस शख्स का जिसने न सिर्फ स्वतंत्रता संग्राम में पत्नी के साथ बढ़चढ़कर हिस्सा लिया। देश के सांस्कृतिक व वैचारिक पुनर्जागरण के लिए भारतीय विद्याभवन की स्थापना की। संविधान निर्माण में अप्रतिम योगदान दिया जिसके चलते संविधान सभा की 11 समितियों के सदस्य बनाए गए। इससे पहले हैदराबाद रियासत का विलय कराने में भारत सरकार के एजेंट बनकर हैदराबाद गए।
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हैदराबाद का विलय कराने में इनकी भूमिका की खुद सरदार पटेल ने प्रशंसा की
हैदराबाद का विलय कराने में इनकी भूमिका की खुद सरदार पटेल ने प्रशंसा की। सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार में इनकी भूमिका देख जवाहरलाल नेहरू ने कहा था आप सोमनाथ मंदिर की पुनःस्थापना के लिए जो प्रयास कर रहे हैं, वे मुझे पसंद नहीं हैं। और हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने में मुंशी का अप्रतिम योगदान रहा। वह उत्तर प्रदेश के राज्यपाल भी रहे।
उनका जन्म: 29 दिसंबर, 1887 को हुआ था और निधन 8 फरवरी, 1971 को हुआ
कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने लिखा है कि उनका जन्म: 29 दिसंबर, 1887 को हुआ था और निधन 8 फरवरी, 1971 को हुआ। आज उनकी पुण्यतिथि है। कन्हैयालाल मुंशी ने अपनी जीवनी में लिखा है कि उनका जन्म भड़ोच (गुजरात) के उच्च सुशिक्षित भागर्व ब्राह्मण परिवार में हुआ था। कन्हैयालाल की प्रारम्भिक शिक्षा अपनी माँ के धार्मिक गीतों और कथाओं से हुई। बड़ौदा में अपनी महाविद्यालीय शिक्षा के दौरान कन्हैयालाल मुंशी को अध्यापक के रूप में अरविंद घोष (महर्षि अरविंद) का सान्निध्य मिला। इस सम्पर्क से मुंशी के मन में औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध हथियारबंद विद्रोह का संकल्प जगा।
बम्बई उच्च न्यायालय के प्रमुख वकीलों में से एक बन गये
1910 में मुंशी ने बम्बई विश्वविद्यालय से एलएलबी की उपाधि प्राप्त की और वकालत शुरू करने के बाद बहुत कम समय में ही बम्बई उच्च न्यायालय के प्रमुख वकीलों में से एक बन गये। हिंदू कानून पर मुंशी को असाधारण महारत थी क्योंकि उन्होंने यह ज्ञान केवल कानूनी किताबों से नहीं बल्कि मिताक्षर व धर्मशास्त्रों के गम्भीर व तर्कसंगत अध्ययन से प्राप्त किया था।
वैचारिक पुनर्जागरण से संजोया जा सके
स्वाधीनता से लगभग दस साल पहले नवम्बर, 1938 में उन्होंने भारतीय विद्या भवन की स्थापना की ताकि भारत के वर्तमान तथा भविष्य को भारत के सांस्कृतिक और वैचारिक पुनर्जागरण से संजोया जा सके।
विश्व में लगभग 120 केंद्र और इनसे जुड़े हुए 350 से अधिक शैक्षणिक संस्थान हैं
1938 में मुंशी और उनके तीन मित्रों के 250 रुपये प्रति वर्ष के योगदान से स्थापित भारतीय विद्या भवन के आज सारे विश्व में लगभग 120 केंद्र और इनसे जुड़े हुए 350 से अधिक शैक्षणिक संस्थान हैं। भवन से संबंधित कई संस्थानों में इंजीनियरिंग, सूचना प्रौद्योगिकी, मैनेजमेंट, संचार व पत्रकारिता, विज्ञान, कला व वाणिज्य की पढ़ाई की व्यवस्था है।
1930 के नमक सत्याग्रह में मुंशी ने सपत्नीक भागीदारी की
भारत की स्वाधीनता के लिए आतुर कन्हैयालाल मुंशी पहले विश्व-युद्ध के दौरान एनी बेसेंट के होम रूल आंदोलन से जुड़ गये लेकिन बाद में गाँधी के सम्पर्क में आने पर उन्होंने कांग्रेस का साथ देने का फ़ैसला किया। सरदार वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व में 1928 के बारदोली सत्याग्रह में कन्हैयालाल मुंशी जी ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। इसी प्रकार 1930 के नमक सत्याग्रह में मुंशी ने सपत्नीक भागीदारी की।
नमक सत्याग्रह में भागीदारी के चलते उन्हें छह महीने का कारावास भी भुगतना पड़ा। 1931 में सविनय अवज्ञा आन्दोलन में भाग लेने के दण्डस्वरूप मुंशी को दो साल की सज़ा सुनायी गयी।
1937 में कन्हैयालाल मुंशी को तत्कालीन बॉम्बे प्रेसीडेंसी की पहली निर्वाचित सरकार में मंत्री पद पर नियुक्त किया गया। हालाँकि उनकी व्यक्तिगत पसंद कानून व शिक्षा मंत्रालय थी, लेकिन उन्हें गृह मंत्रालय जैसे महत्त्वपूर्ण विभाग का उत्तरदायित्व सौंपा गया। मुंशी ने अपने गृहमंत्री के कार्यकाल में कार्यकुशलता, निष्पक्षता व न्यायप्रियता का नमूना पेश किया।
जब देश का नया संविधान बनने की बात आई तो राजनीतिक अंतर्दृष्टि और कुशाग्र कानूनी बुद्धि से परिपूर्ण कन्हैयालाल मुंशी इस कार्य में सबसे दक्ष माने गये। संविधान-निर्माण के लिए बनायी गयी समितियों में से मुंशी सबसे ज़्यादा ग्यारह समितियों के सदस्य बनाये गये।
डॉ. भीमराव आम्बेडकर की अध्यक्षता में बनायी गयी संविधान निर्माण की प्रारूप समिति में कानून में ‘हर व्यक्ति को समान संरक्षण’ के सिद्धांत का मसविदा मुंशी और आम्बेडकर ने संयुक्त रूप से लिखा था। इसी तरह कई अड़चनों और व्यवधानों के बावजूद हिंदी तथा देवनागरी लिपि को नये भारतीय संघ की राजभाषा का स्थान दिलाने में मुंशी ने सबसे प्रमुख भूमिका निभायी।
हैदराबाद में भारत सरकार का प्रतिनिधि (एजेंट जनरल) नियुक्त किया
कन्हैयालाल मुंशी के लिए भारतीय संविधान की पहली पंक्ति ‘इण्डिया दैट इज़ भारत’ वाक्यांश का अर्थ केवल एक भूभाग नहीं बल्कि एक अंतहीन सभ्यता है, ऐसी सभ्यता जो अपने आत्म-नवीनीकरण के ज़रिये सदैव जीवित रहती है। 1947 में हैदराबाद के निज़ाम ने अपनी रियासत को स्वतंत्र राष्ट्र की मान्यता देने की माँग की तो इस समस्या को सुलझाने के लिए भारत सरकार ने मुंशी को हैदराबाद में भारत सरकार का प्रतिनिधि (एजेंट जनरल) नियुक्त किया।
हैदराबाद मेमोइर्स नामक एक पुस्तक भी लिखी
हैदराबाद राज्य के भारत में विलय के बाद तत्कालीन गृह मंत्री सरदार पटेल ने इस अभियान में मुंशी की अहम भूमिका की बहुत प्रशंसा की। अपने इस दुरूह कार्य को सम्पन्न करने के बाद मुंशी ने इस पर अपने संस्मरण द ऐंड ऑफ़ ऐन इरा (हैदराबाद मेमोइर्स) नामक एक पुस्तक भी लिखी। डॉ. राजेंद्र प्रसाद के राष्ट्रपति चुने जाने के बाद मुंशी केंद्रीय मंत्रिमण्डल में उनके स्थान पर कृषि व खाद्य मंत्री बने। इसी दौरान उन्होंने पर्यावरण तथा वानिकी के संरक्षण के लिए कई कारगर प्रयास आरम्भ किये।
वन महोत्सव कन्हैयालाल मुंशी के उन्हीं प्रयासों की ही देन है
हर वर्ष जुलाई में आयोजित वन महोत्सव कन्हैयालाल मुंशी के उन्हीं प्रयासों की ही देन है। स्वतंत्र भारत में सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण भी मुंशी के एजेंडे पर था। उनकी इस सक्रियता के कारण प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने एक कैबिनेट बैठक के बाद कन्हैयालाल मुंशी से कहा कि आप सोमनाथ मंदिर की पुनःस्थापना के लिए जो प्रयास कर रहे हैं, वे मुझे पसंद नहीं हैं।
1952 से 1957 तक कन्हैयालाल मुंशी उत्तर प्रदेश राज्य के राज्यपाल रहे
1952 से 1957 तक कन्हैयालाल मुंशी उत्तर प्रदेश राज्य के राज्यपाल रहे। 1959 में मुंशी कांग्रेस पार्टी की सदस्यता से त्यागपत्र देकर चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की स्वतंत्र पार्टी में शामिल हो गये। इसके कुछ समय बाद उन्होंने भारतीय जनसंघ की सदस्यता ग्रहण कर ली।
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कन्हैयालाल मुंशी ने यंग इण्डिया अख़बार और मुंशी प्रेमचंद के साथ हंस पत्रिका का सम्पादन भी किया। कन्हैयालाल मुंशी एक असाधारण साहित्यकार थे। उन्होंने गुजराती, हिंदी व अंग्रेज़ी में सौ से ज़्यादा उत्कृष्ट ग्रंथों की रचना की। एक साहित्य सेवक के रूप में उन्होंने गुजराती साहित्य परिषद्, संस्कृत विश्वपरिषद् तथा हिंदी साहित्य सम्मलेन की अगुआई भी की। एक शिक्षाविद् के रूप में भी मुंशी ने अनेक शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना की।
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