Life Lessons From Krishna: जीवन को अर्थ देते हैं कृष्ण
Life Lessons From Krishna: कृष्ण का जीवन इसीलिए लीला है। चरित्र व व्यक्तित्व समझना आसान है। लीला अबूझ है। इसलिए कृष्ण को तभी बूझ सकते हैं जब पूरी तरह समर्पित हो जायें।
Life Lessons From Krishna: अर्थ का अभाव नहीं होने देना चाहिए क्योंकि यह धर्म का द्योतक है इसी प्रकार दंड नीति का अभाव अर्थात अराजकता ही धर्म के लिए हानिकारक होती है। अत: राज की स्थापना धर्म के लिए अत्यंत आवश्यक है।
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यह संसार आज तक कृष्ण को समझ नहीं पाया है। आगे सदियां लगेंगी, जब मानवता कान्हा को समझ पायेगी। कृष्ण का उद्धभव तो अतीत द्वापर में होता है। पर वे अपने युग के ईश्वर नहीं हैं। अपितु वह भविष्य के ईश्वर हैं। वह उन अर्थों में ईश्वर नहीं हैं, जिन में ईश्वर देखा जाता है। वह मुक्तिदाता ईश्वर नहीं है, अपितु जीवन का अर्थ सिखाने वाले ईश्वर हैं। उनके पूर्व कर्म को बंधनकारी बताया गया। किंतु उन्होंने वह सूत्र बताया जिससे कर्म की बंधनकारिता विलोपित हो जाती है।
जीवन के किसी भी आचरण में आदर्श का समावेश नहीं करते कान्हा
कान्हा के पहले राम हुए जिन्हें हमने ईश्वर माना अनुकरणीय माना। पर उनका आदर्शों से बोझिल जीवन सामान्य मानव के लिए व्यवहारिक रूप से अनुकरणीय नहीं रह सका। वहीं कान्हा अपने जीवन के किसी भी आचरण में आदर्श का समावेश नहीं करते हैं। बल्कि उसको प्रायोगिक जीवन के अनुकूल बनाते हैं। उनको वहीं तक आदर देते हैं, जब तक वह जीवन के लिए उपयोगी है। उसके साथ सामंजस्य में हैं। कान्हा को जीवन से सामंजस्यपूर्ण आदर्श स्वीकार नहीं थे। इसी कारण उनके जीवन में आंसू की जगह मुस्कान है। निराशा की जगह आशा पाते हैं। यही वह अपने युग एवं समीपस्थ व्यक्तियों को समझाते हैं। आज भी मानवता किसी न किसी रूप में उसका अनुकरण कर रही है।
महात्मा बुद्ध तथा ईसा मसीह दुख से जीवन को समझते हैं। उनमें जीवन की मुस्कान नहीं है। ईसाई साहित्य कहता है कि कभी किसी ने ईसा को मुस्कुराते हुए नहीं देखा। वहीं दूसरी ओर कभी किसी ने कान्हा को रोते हुए नहीं देखा। सदा मुस्कुराते हुए ही देखा है। बुद्ध तथा महावीर जीवन से भागते हुए, मानवता को जीवन से डराते हुए नज़र आते हैं। वहीं कृष्ण जीवन को जीते हुए और मानवता को जीवन जीना सीखाते हुए नज़र आते हैं। कृष्ण तो जीवन को अर्थ देते हैं। रिश्तों को अर्थ देते हैं। और मानवता को जीवन का वह सूत्र देते हैं। जो जीवन में सिर्फ़ मुस्कान लाता हैं।
श्रावण मास की अष्टमी में लिया था कृष्ण ने जन्म
कृष्ण का जन्म 5252 वर्ष पूर्व 18 जुलाई, 3228 ई.पू हुआ था। वह समय था- श्रावण मास, दिन अष्टमी, दिन बुधवार को रोहिणी नक्षत्र और रात्रि बारह बजे। श्री कृष्ण 125 वर्ष, 08 महीने और 07 दिन जीवित रहे। उनका निधन 18 फरवरी 3102BC. को हुआ। जब कृष्ण 89 वर्ष के थे तब महाभारत युद्ध हुआ था।
महाभारत युद्ध के 36 साल बाद उनकी मृत्यु हो गई थी। महाभारत युद्ध मृगशिरा शुक्ल एकादशी, ईसा पूर्व 3139 को शुरू हुआ था। यानी 8 दिसंबर 3139 ईसा पूर्व और 25 दिसंबर, 3139 ईसा पूर्व समाप्त हुआ। जयद्रथ की मृत्यु के कारण 21 दिसंबर, 3139 ईसा पूर्व दोपहर 3 बजे से शाम 5 बजे के बीच सूर्य ग्रहण रहा। भीष्म की मृत्यु 2 फरवरी, (उत्तरायण की पहली एकादशी), 3138 ईसा पूर्व में हुई थी।
इनकी पूजा मथुरा में कृष्ण कन्हैया, ओड़िशा में जगन्नाथ, महाराष्ट्र में बिठोबा, राजस्थान में श्री नाथ, गुजरात में द्वारिकाधीश,गुजरात में रण छोड़, कर्नाटक में कृष्णा- उड़ुपी और केरल में गुरुवायुरप्पन के नाम व रूप में की जाती है। सगे पिता- वासुदेवन सगी माता- देवकी थीं। जबकि दत्तक पिता- नंद और दत्तक माता- यशोदा थीं। बड़े भाई का नाम बलराम, बहन का नाम सुभद्रा और जन्म स्थान- मथुरा था। उनकी आठ पत्नियाँ थीं। जिनके नाम रुक्मिणी, सत्यभामा, जाम्बवती, कालिंदी, मित्रविन्दा, नागनजिती, भद्रा, लक्ष्मणा थे।
कृष्ण ने अपने जीवन काल में केवल चानूरा; पहलवान, मामा कंस, चचेरे भाई शिशुपाल और दंतचक्र की जीवन लीला समाप्त कर दी।
सामान्य नहीं था कृष्ण का जीवन
उनके लिए जीवन बिलकुल भी सामान्य नहीं रहा। उनकी माता उग्रा कुल से और पिता यादव वंश से थे। वे जन्म से ही सांवले थे। संपूर्ण जीवन में उन्हें कोई नाम नहीं दिया गया। गोकुल का सारा गाँव उन्हें काला होने के कारण; कान्हा के नाम से पुकारने लगा। अक्सर उन्हें काले, छोटे और दत्तक पुत्र होने के कारण उनका उपहास उड़ाया जाता था। उन्हें चिढ़ाया जाता था।
उनका बाल्यकाल प्राणघातक परिस्थितियों से घिरा हुआ था। सूखा और जंगली भेड़ियों के खतरे ने उन्हें 9 साल की उम्र में गोकुल से वृंदावन में स्थानांतरित कर दिया। वह 10 साल 8 महीने तक वृंदावन में रहे। उन्होंने मथुरा में 10 साल और 8 महीने की उम्र में अपने ही चाचा को मार डाला था। तत्पश्चात उन्होंने अपने सगे मां और पिता को कैद से मुक्त करा दिया। वह फिर कभी वृंदावन नहीं लौटे।
एक सिंधु राजा; कला यावन की धमकी के कारण उन्हें मथुरा से द्वारका प्रवास करना पड़ा। उन्होंने गोमंतका पहाड़ी (अब गोवा) पर 'वैनाथेय' जनजातियों की मदद से 'जरासंध' को परास्त किया था।
उन्होंने द्वारका का पुनर्निर्माण किया। जिसके पश्चात वह 16~18 वर्ष की आयु में अपने विद्याध्यन को आरंभ करने के लिए उज्जैन में संदीपनी के आश्रम चले गए।
अफ्रीका के समुद्री लुटेरों से युद्ध लड़ा। अपने गुरु के पुत्र पुनर्दत्त को छुड़ाया। जिसका गुजरात में एक समुद्री बंदरगाह प्रभास के पास अपहरण कर लिया गया था। अपने ज्ञानार्जन के बाद, उन्हें अपने चचेरे भाई के वनवास से जुड़ी नियति के बारे में पता चला। वे 'लाक्षाग्रह' में उनकी रक्षा के लिए आए। बाद में उनके चचेरे भाइयों ने द्रौपदी से विवाह कर लिया। इस पूरी गाथा में उनकी भूमिका बहुत महत्वपूर्ण थी।
तत्पश्चात, उन्होंने अपने चचेरे भाइयों की इंद्रप्रस्थ और उनके राज्य की स्थापना में मदद की। उन्होंने द्रौपदी को लज्जित होने से बचाया। वह हमेशा अपने चचेरे भाइयों के प्रवास के दौरान उनके संग खड़े रहे। वह उनके संग खड़े रहे और कुरुक्षेत्र युद्ध में उनकी जीत को सुनिश्चित करते रहे। उन्होंने अपनी प्रिय नगरी द्वारिका को बर्बाद होते हुए देखा। वो पास के ही एक जंगल में एक शिकारी (नाम जरा) द्वारा मार डाले गए।
उन्होंने कभी कोई चमत्कार नहीं किया। उनका जीवन भी एक सफल जीवन नहीं रहा। उनके जीवन में एक भी क्षण ऐसा नहीं रहा जब उन्हें शांति की प्राप्ति हुई हो। हर मोड़ पर उनके समक्ष एक से बढ़ कर एक चुनौतियाँ थीं।
उन्होंने जिम्मेदारी की भावना के साथ हर परिस्थिति और हर एक का सामना किया और फिर भी अनासक्त रहे। वे एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे, जिन्हें भूत और भविष्य का ज्ञान था फिर भी वह हमेशा अपने वर्तमान क्षण को ही जीते थे। वे और उनका जीवन वास्तव में हर इंसान के लिए एक मिसाल है।
आज भी सुरक्षित है कान्हा का हृदय
कहा जाता है कि भगवान् कृष्ण ने जब देह छोड़ा तो उनका अंतिम संस्कार किया गया। उनका सारा शरीर तो पांच तत्त्व में मिल गया। लेकिन उनका हृदय बिलकुल सामान्य एक जिन्दा आदमी की तरह धड़क रहा था और वो बिलकुल सुरक्षित था, उनका हृदय आज तक सुरक्षित है। जो भगवान् जगन्नाथ की काठ की मूर्ति के अंदर रहता है और उसी तरह धड़कता है, यह बात बहुत कम लोगों को पता है।
महाप्रभु जगन्नाथ (श्री कृष्ण) को कलियुग का भगवान भी कहते हैं। पुरी (उड़ीसा) में जग्गनाथ स्वामी अपनी बहन सुभद्रा और भाई बलराम के साथ निवास करते है। मगर रहस्य ऐसे है कि आजतक कोई न जान पाया। हर 12 साल में महाप्रभु की मूर्ति को बदला जाता है। उस समय पूरे पुरी शहर में ब्लैकआउट किया जाता है। यानी पूरे शहर की लाइट बंद की जाती है। लाइट बंद होने के बाद मंदिर परिसर को सीआरपीएफ़ की सेना चारों तरफ से घेर लेती है। उस समय कोई भी मंदिर में नही जा सकता। मंदिर के अंदर घना अंधेरा रहता है। पुजारी की आँखों में पट्टी बंधी होती है। पुजारी के हाथ में दस्ताने होते हैं। वो पुरानी मूर्ती से ‘ब्रह्म पदार्थ’ निकालता है और नई मूर्ती में डाल देता है। ये ब्रह्म पदार्थ क्या है? आजतक किसी को नही पता? इसे आजतक किसी ने नहीं देखा। हज़ारों सालों से ये एक मूर्ति से दूसरी मूर्ति में ट्रांसफर किया जा रहा है।
यह एक अलौकिक पदार्थ है जिसको छूने मात्र से किसी इंसान के जिस्म के चिथड़े उड़ जाए। इस ब्रह्म पदार्थ का संबंध भगवान श्री कृष्ण से है। मगर ये क्या है, कोई नहीं जानता। यह पूरी प्रक्रिया हर 12 साल में एक बार होती है। उस समय सुरक्षा बहुत ज्यादा होती है। मगर आजतक कोई भी पुजारी यह नहीं बता पाया की महाप्रभु जगन्नाथ की मूर्ती में आखिर ऐसा क्या है।
कुछ पुजारियों का कहना है कि जब हमने उसे हाथ में लिया तो खरगोश जैसा उछल रहा था। आंखों में पट्टी थी। हाथ में दस्ताने थे तो हम सिर्फ महसूस कर पाए।
रोज बदला जाता है 45 मंजिला शिखर पर स्थित झंडा
आज भी हर साल जगन्नाथ यात्रा के उपलक्ष्य में सोने की झाड़ू से पुरी के राजा खुद झाड़ू लगाने आते हैं। भगवान जगन्नाथ मंदिर के सिंहद्वार से पहला कदम अंदर रखते ही समुद्र की लहरों की आवाज अंदर सुनाई नहीं देती। जबकि आश्चर्य में डाल देने वाली बात यह है कि जैसे ही आप मंदिर से एक कदम बाहर रखेंगे, वैसे ही समुद्र की आवाज सुनाई देंगी। आपने ज्यादातर मंदिरों के शिखर पर पक्षी बैठे-उड़ते देखे होंगे, लेकिन जगन्नाथ मंदिर के ऊपर से कोई पक्षी नहीं गुजरता। झंडा हमेशा हवा की उल्टी दिशा में लहराता है। दिन में किसी भी समय भगवान जगन्नाथ मंदिर के मुख्य शिखर की परछाई नहीं बनती। भगवान जगन्नाथ मंदिर के 45 मंजिला शिखर पर स्थित झंडे को रोज बदला जाता है, ऐसी मान्यता है कि अगर एक दिन भी झंडा नहीं बदला गया तो मंदिर 18 सालों के लिए बंद हो जाएगा। इसी तरह भगवान जगन्नाथ मंदिर के शिखर पर एक सुदर्शन चक्र भी है, जो हर दिशा से देखने पर आपके मुंह आपकी तरफ दीखता है।
भगवान जगन्नाथ मंदिर की रसोई में प्रसाद पकाने के लिए मिट्टी के 7 बर्तन एक-दूसरे के ऊपर रखे जाते हैं, जिसे लकड़ी की आग से ही पकाया जाता है, इस दौरान सबसे ऊपर रखे बर्तन का पकवान पहले पकता है। भगवान जगन्नाथ मंदिर में हर दिन बनने वाला प्रसाद भक्तों के लिए कभी कम नहीं पड़ता, लेकिन हैरान करने वाली बात ये है कि जैसे ही मंदिर के पट बंद होते हैं वैसे ही प्रसाद भी खत्म हो जाता है।
कहीं भी कभी भी उदास नहीं दिखते कृष्ण
कृष्ण अकेले हैं जो समग्र जीवन को पूरा ही स्वीकार कर लेते हैं। जीवन के समग्रता की स्वीकृति उनके व्यक्तित्व में फलित हुई है। तभी वह शोडष कलाधारी हैं। पूर्ण अवतार हैं। राम परमात्मा के अंश हैं। पर कृष्ण परमात्मा हैं। कृष्ण कहीं भी कभी भी उदास नहीं दिखते। कृष्ण ने धर्म को हँसता हुआ बनाया। अल्बर्ट श्वीत्ज़र ने भारतीय धर्म की आलोचना में एक बड़ी बात कही है, वह यह कि 'भारत का धर्म जीवन-निषेधक, 'लाइफ निगेटिव" है।" यह बात बहुत दूर तक सच है, यदि कृष्ण को भुला दिया जाए। पर यदि कृष्ण को भी विचार में लिया जाए तो यह बात एकदम ही गलत हो जाती है।
श्वीत्ज़र यदि कृष्ण को समझते तो ऐसी बात न कह पाते। लेकिन कृष्ण की कोई व्यापक छाया भी हमारे चित्त पर नहीं पड़ी है। वे अकेले दुख के एक महासागर में नाचते हुए एक छोटे-से द्वीप हैं। या ऐसा हम समझें कि उदास, निषेध, दमन और निंदा के बड़े मरुस्थल में एक बहुत छोटे-से नाचते हुए मरूद्यान हैं। जब जब मनुष्यता हंसती हुई होगी, नाचती हुई होगी तब तब कृष्ण ही होंगे इसके पीछे। इसके आसपास। वे पुरुष होकर स्त्री से पलायन नहीं करते। वे परमात्मा को अनुभव करते हुए युद्ध से विमुख नहीं होते। वे करुणा और प्रेम से भरे होते हुए भी युद्ध में लड़ने की सामर्थ्य रखते हैं। अहिंसक-चित्त है उनका, फिर भी हिंसा के ठेठ दावानल में उतर जाते हैं। अमृत की स्वीकृति हैं उन्हें, लेकिन जहर से कोई भय भी नहीं है।
कृष्ण का जीवन इसीलिए लीला है। चरित्र व व्यक्तित्व समझना आसान है। लीला अबूझ है। इसलिए कृष्ण को तभी बूझ सकते हैं जब पूरी तरह समर्पित हो जायें। राम की तरह वह शबरी के बेर खाने, निषाद के तट पार करवाने मात्र से उऋण नहीं करते। उनके लिए तो पांडवों की तरह, द्रोपदी की तरह, मीरा की तरह, राधा की तरह अपना सब संपूर्णता में न्योछावर करना होगा।