President Droupadi Murmu: द्रोपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बनने से निकले संदेश, पढ़ें वरिष्ठ पत्रकार योगेश मिश्र का लेख

President Droupadi Murmu: द्रौपदी मुर्मू देश की सबसे युवा राष्ट्रपति हैं। 20 जून 1958 को पैदा होने वाली मुर्मू की उम्र 64 साल एक महीना और 8 दिन है।

Written By :  Yogesh Mishra
Update: 2022-07-25 14:37 GMT

Message to Indian Political Structure Droupadi Murmu

President Droupadi Murmu: हर छोटे व बड़े चुनाव किसी न किसी तरह के संकेत व संदेश देते हैं। जिस पर न केवल वर्तमान चलता है बल्कि भविष्य की पृष्ठभूमि भी इसी आधार पर तैयार होती है। कच्चे घरों के अंधेरों से निकलकर जगमगाते राष्ट्रपति भवन तक की द्रौपदी मुर्मू की यात्रा कुछ इसी तरह की पृष्ठभूमि तैयार करने में कामयाब दिख रही है। क्योंकि द्रौपदी मुर्मू भी मोदी की तरह 'लुटिययन ज़ोन' से पूरी तरह अनजान थीं। मोदी की तरह ही द्रौपदी मुर्मू आज़ादी के बाद जन्मी देश की पहली राष्ट्राध्यक्ष हैं। मूर्मू की जीत एक ओर दीन दयाल उपाध्याय जी के अंत्योदय को आकार देती है तो दूसरी तरफ़ हर आम आदमी के लिए किसी भी सपने के कभी भी पूरे जाने की हक़ीक़त बयां करती है। मुर्मू की जीत ने देश में एक नये हर्ष व आशा का संचार किया है।

1952 में जब संघ के दूसरे सरसंघचालक गुरू जी माधव सदाशिव गोलवरकर ने वनवासी कल्याण आश्रम की कल्पना की थी तब किसने सोचा होगा कि सदियों से अलग थलग पड़े तमाम ख़तरों को झेलने वाले, घृणा युक्त एकाकीपन जीवन जीने वाले और विदेशी धन से धर्मांतरण के ख़तरे झेलने वाला हमारा जनजातीय समाज इतना बड़ा इतिहास इतनी जल्दी रच पायेगा। 98 फ़ीसदी विदेशी धन का खेल इसी क्षेत्र में होता है। नक्सलवादी, माओवादी सरीखे तमाम अलगाववादी आंदोलन के ये ही शिकार होते हैं। ये अस्पृश्य भले न हों पर उपेक्षितों रहे ही हैं। देश के नक़्शे पर इनके तक़रीबन एक लाख पैंतीस हज़ार गाँव विकास की बाट जोहते जोहते थक गये, बुढ़ा गये, उनकी आँखें पथरा गईं। हमारी नौकरशाही ने तो इसे नक़्शे से बाहर ही कर रखा है। पर द्रौपदी मुर्मू के चलते सभी गाँव नक़्शे में एकबारगी आ गये। अब इन गाँवों में नल, जल, बिजली, सड़क, पानी, चिकित्सा, शिक्षा लेकर दौड़ती भागती नौकरशाही नज़र आयेंगी।

मुर्मू (Draupadi Murmu Political Career) के चुनाव ने सिद्ध कर दिया है कि भारत के विरोधी दल भाजपा को टक्कर देने में आज भी असमर्थ हैं और 2024 के चुनाव में भी भाजपा के सामने वे बौने सिद्ध होंगे। यानी -'अगली बार, फिर मोदी सरकार।' क्योंकि नरेंद्र मोदी को पराजित करने के लिए ज़रूरी है कि नेता व उसकी पार्टी अस्सी बनाम बीस में अस्सी फ़ीसदी की सियासत कर रहे हों। लेकिन ऐसा करने वाला दूर दूर तक कोई नेता नहीं है। यदि कोई इस दिशा में कदम बढ़ाता भी है तब भी वह रेस में मोदी को पीछे नहीं छोड़ पायेगा। दूसरे, मोदी को शिकस्त देने के लिए विपक्षी एकता का होना बेहद अनिवार्य तत्त्व है। मुर्मू के चुनाव ने यह साबित कर दिया कि यह होने वाला नहीं है। क्योंकि एक चेहरे पर इनमें सहमति की तो छोड़ दें, सिर फुटव्वल रुकने का नाम नहीं ले रही है। विपक्ष की ओर से यशवंत सिन्हा सर्वसम्मति के उम्मीदवार नहीं थे। ममता बनर्जी, द्रौपदी मुर्मू की टक्कर में ओडिशा के ही एक आदिवासी नेता तुलसी मुंडा को खड़ा करना चाहती थीं। एक समय था कि विपक्ष पर सत्ता पक्ष तंज कसता था कि आपका चुनाव में चेहरा कौन होगा। सवाल यही आज भी है पर आज विपक्ष व सत्ता पक्ष की कुर्सियाँ एकदम बदल गयी हैं।

भाजपा की लड़ाकू जिजीविषा को इससे समझा जा सकता है कि उसके नेताओं ने मुर्मू के पक्ष में 65 फ़ीसदी वोट पड़ने का दावा किया था, उन्हें 64 फ़ीसदी वोट मिले। जबकि मुर्मू को एनडीए की तरफ से 61.1 फीसदी वोट मिलने चाहिए थे। यानी 2.9 फीसदी की क्रॉस वोटिंग का फायदा मिला। वहीं यशवंत सिन्हा को विपक्ष की तरफ से 38.9 फीसदी वोट मिलने की उम्मीद थी। लेकिन मिले 36 फीसदी यानी 2.9 फीसदी का नुक्सान क्रॉस वोटिंग के कारण हुआ। 17 सांसदों व 110 विधायकों का द्रौपदी मुर्मू के पक्ष में क्रास वोटिंग यह संदेश देता है कि कम से कम राष्ट्रपति चुनाव में हर जनप्रतिनिधि को अपने विवेक का इस्तेमाल करने की अनुमति होनी ही चाहिए। चुनाव से पहले खासकर सभी दलों ने अपने सांसदों और विधायकों को वोटिंग की ट्रेनिंग दी थी ताकि कोई वोट अमान्य न हो जाए। फिर भी कुल 53 वोट अमान्य घोषित किये गए। 2017 के राष्ट्रपति चुनाव में राष्ट्रीय स्तर पर पड़े कुल मतों में से 77 अमान्य घोषित हो गए थे। वोटों का अमान्य होना यह बताता है कि अमृत महोत्सव के वर्ष तक हम अपने गणतंत्र को गुणतंत्र में नहीं तब्दील कर पाये हैं। क्योंकि चुनाव केवल दो के बीच ही होना था। इसी के साथ चौदह सांसदों और बयालीस विधायकों का वोट न देना यह दर्शाता है कि हम अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के प्रति कितने ग़ैर ज़िम्मेदार हैं।

भाजपा को अब तक तीन राष्ट्रपति बनाने का मौका हाथ लगा है। पार्टी ने इन तीन मौकों पर मुसलमान एजेपी अब्दुल कलाम, अनुसूचित जाति के रामनाथ कोविंद और अनुसूचित जनजाति (Adivasi Mahila Draupadi Murmu) की द्रौपदी मुर्मु को इस पद के लिए आगे किया। इनके संदेश ये हैं कि पार्टी ने दलित व जनजाति समाज के लिए अपनी सोशल इंजीनियरिंग के द्वार खोल दिये हैं। भाजपा को यह कहने का मौक़ा मिल गया है कि कांग्रेस न केवल आदिवासी विरोधी है बल्कि बल्कि राजनीति में महिलाओं को बढ़ावा देने के खिलाफ है। मुर्मू को चुनकर, भाजपा समर्थक यह दावा जरूर करेंगे कि केवल मोदी में एक आदिवासी महिला को देश का राष्ट्रपति बनाने का साहस और दूरदर्शिता है।

मुर्मू का पदार्पण ऐसे समय में हुआ जब कांग्रेस और उसके पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी आदिवासी समुदाय को लुभाने की कोशिश कर रहे थे। राहुल ने हाल ही में गुजरात में अपनी पार्टी के आदिवासी सत्याग्रह की शुरुआत की थी। आदिवासी समुदाय के कल्याण के लिए लड़ने की अपनी प्रतिबद्धता दोहराई थी। लेकिन द्विवार्षिक राज्यसभा चुनावों के लिए कांग्रेस छत्तीसगढ़ से दो सीटें जीतने की स्थिति में होने के बावजूद एक भी आदिवासी उम्मीदवार को मैदान में उतारने में विफल रही। सो अब कांग्रेस के पास आदिवासी समुदाय को दिखाने के लिए कोई प्रतीक नहीं है।

मुर्मू ने काउंसलर से राष्ट्रपति पद तक का सफर तय किया है। हालाँकि मुर्मू व उनके पति नहीं चाहते थे कि वह राजनीति की ओर पैर बढ़ायें। द्रौपदी टीचर बनकर और उनके पति श्याम चरण मुर्मू बैंक की नौकरी से संतुष्ट थे। मयूरभंज के तत्कालीन जिला अध्यक्ष रविंद्र नाथ महतो द्रौपदी को काउंसलर का चुनाव लड़ने का प्रस्ताव लेकर 25 साल पहले 1997 में गये थे। महतो रायरंगपुर वार्ड नंबर दो, जो जनजाति महिला के लिए आरक्षित था, से द्रौपदी को लड़ाना चाहते थे। मुर्मू जब भुवनेश्वर के आदिवासी आवासीय विद्यालय में पढ़ने गई थीं, महतो उसी समय से द्रौपदी मुर्मू को से परिचित थे। द्रौपदी, महतो को चाचा की तरह सम्मान देती थी। आखिरकार रविंद्र नाथ महतो के अनुरोध और दबाव के आगे श्याम चरण और द्रौपदी को झुकना पड़ा।

द्रौपदी मुर्मू (Draupadi Murmu Birth Date) देश की सबसे युवा राष्ट्रपति हैं। 20 जून 1958 को पैदा होने वाली मुर्मू की उम्र 64 साल एक महीना और 8 दिन है। द्रौपदी मुर्मू ओडिशा की पहली ऐसी नेता है जिन्हें इस शीर्ष पद पर पहुंचने में कामयाबी मिली है।

मुर्मू की जीत से भाजपा को मध्यम अवधि के चुनावी लाभ मिलने की उम्मीद है। 2022 के अंत और 2024 के लोकसभा चुनावों के बीच, गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में चुनाव होने हैं। इनमें से हर राज्य के पास एक बड़ा आदिवासी वोट बैंक है जिसने पिछले विधानसभा चुनावों में भाजपा को ठुकरा दिया था। मुर्मू के चुनाव का यह संदेश भी है कि जनजातीय वोटों पर अब भाजपा के एकाधिकार में देर नहीं है। लोकसभा की 47 और विधानसभा की 604 सीटों पर अब आगे भाजपा को प्रचार की ज़रूरत नहीं है।

बहरहाल, द्रौपदी मुर्मू का राष्ट्रपति बनना एक बहुत गहरा व गंभीर सन्देश है। विश्व में बहुत कम ऐसा हुआ है कि किसी देश की सरजमीं के मूल निवासी, जिन्हें आदिवासी, जनजाति या एबरिजनल की संज्ञा दी जाती है, को सर्वोच्च पद पर स्थापित किया गया हो। अमेरिका दुनिया का अत्यंत मजबूत लोकतंत्र और समान अधिकार वाला देश होने का दावा करता है लेकिन अमेरिका के इतिहास में कोई मूल अमेरिकी या रेड इंडियन देश का राष्ट्रपति नहीं बन पाया है। यही हाल कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैण्ड का है, जहाँ मूल आदिवासी शीर्ष से बहुत दूर हैं।

द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बना कर भाजपा चाहे जो राजनीतिक लाभ उठाये वह बहुत मायने नहीं रखता। लेकिन एक आदिवासी, इस धरती के असली निवासी को उसका अधिकार देने के दिशा में बहुत महत्वपूर्ण कदम है जिसके बारे में आजतक न कोई सोच पाया था, न हिम्मत जुटा पाया था।

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