Munshi Premchand Jayanti: बैलगाड़ी के जमाने के आधुनिक कथाकार प्रेमचंद, आइये जाने इनके बारे में
Munshi Premchand Jayanti: हिंदी भाषा का अध्ययन करने वाले हर शिक्षार्थी और पाठक ने प्रेमचंद को अवश्य ही पढ़ा होगा। प्रेमचंद को गरीबों, दलितों, किसानों का लेखक माना जाता रहा है।
Munshi Premchand Jayanti: हिंदी भाषा का अध्ययन करने वाले हर शिक्षार्थी और पाठक ने प्रेमचंद को अवश्य ही पढ़ा होगा। आज बुलेट ट्रेन और चंद्रमा पर पहुंचने के दिनों में प्रेमचंद को याद करना कितना प्रासंगिक है। इसके साथ ही यह सोचना भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि हम प्रेमचंद को क्यों भूलने लगे हैं? कल 31 जुलाई को प्रेमचंद की 143 वीं जयंती है। उनकी मृत्यु को 7 दशक से भी अधिक का समय बीत चुका है। ऐसे में हमें प्रेमचंद को क्यों याद करना चाहिए, इस पर एक सार्थक चर्चा हमेशा ही आवश्यक होती है।
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आज भी उनके नाम पर इतनी अधिक चर्चाएं हैं कि हिंदी साहित्य के विद्यार्थी उनको पढ़े बगैर हिंदी उपन्यासों और कहानियों को समझ ही नहीं सकते हैं। हो सकता है कि कई लोगों की नजर में प्रेमचंद को पढ़ना निरर्थक जान पड़ता हो क्योंकि वे बैलगाड़ी और मोटरकार के जमाने का कथाकार, साहित्यकार आज की बुलेट रफ्तार वाली पीढ़ी के लिए कहां तक अनुकरणीय होगा य, यह समझने और समझाने वाली बात है। मैं भी अपने माध्यमिक शिक्षा के विद्यार्थी जीवन में ऐसा ही सोचा करती थी। लेकिन जैसे-जैसे प्रेमचंद को पढ़ा, उनके उपन्यासों को, उनकी कहानियों को पढ़ा । प्रेमचंद के प्रगतिशील विचार तो नहीं कहूंगी तब उनके यथार्थवादी और आदर्शवादी विचारों को समझने लगी। उन्होंने अपने उपन्यासों और कहानियों में न केवल ग्रामीण परिवेश बल्कि शहरी और कस्बाई पात्रों को भी लिखा है। एक भारतीय किसान से लेकर अंग्रेज अफसरों तक के पात्रों को उन्होंने गढ़ा है।
किसान जीवन का यथार्थवादी चित्रण
प्रेमचंद स्वाधीनता आंदोलन के समय के कथाकार हैं, उन्होंने अपने कथा साहित्य में भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों और जीवन के विभिन्न पक्षों और रूपों का चित्रण किया है। वे सिर्फ जातीय जीवन के ही लेखक नहीं थे। भारतीय जीवन का शायद ही कोई ऐसा चरित्र, पात्र या पहलू उनकी लेखनी से छूटा होगा, जिसकी समस्याओं पर प्रेमचंद ने कलम नहीं चलाई होगी। उन्होंने किसान जीवन के यथार्थवादी चित्रण की परंपरा को विकसित किया था। हो सकता है कि उनके परिणामों और हमारी समझ के परिणामों में अंतर हो लेकिन उन्होंने यथार्थ का चित्रण भली प्रकार किया है। प्रेमचंद ने एक भारतीय नागरिक के जीवन की समस्याओं को लिखा है और जीवन की कटुता को भी लिखा है। वे अपने कहानियों के अंत में हमेशा आदर्श रखते रहे हैं। उन्होंने किसी भी समस्या को यथार्थवादी तरीके से प्रस्तुत किया है और उसका परिणाम एक आदर्श के रूप में ही प्रस्तुत किया है।
गरीबों, दलितों, किसानों के लेखक प्रेमचंद
प्रेमचंद को गरीबों, दलितों, किसानों का लेखक माना जाता रहा है। उन्होंने अपनी कहानियों और उपन्यासों में जाति प्रथा, छुआछूत, गरीबी और सांप्रदायिकता पर हमेशा ही अपना आक्रोश प्रकट किया है। वह पीड़ित वर्ग के दर्द, हताशा और पीड़ा को समझते थे। उसको अपने साहित्य में लिखते भी रहे। प्रेमचंद के उपन्यास जीवन की विविधता की पहचान कराते हैं। वह समय था जब पारिवारिक झगड़ों के लिए महिलाओं को ही दोषी ठहराया जाता रहा, सामंतवादी व्यवस्था थी। पितृसत्ता का प्रचलन था। इसके साथ ही एक तरफ स्वतंत्रता आंदोलन का संघर्ष अपने चरम पर था तो दूसरी तरफ तत्कालीन महिला समाज में एक नई स्वातंत्र्य चेतना भी अपने रंग दिखाने लगी थी। लेकिन चूँकि पुरुष प्रधान सत्ता थी तो प्रवृत्ति भी सामंती थी, ऐसे में प्रेमचंद की महिला पात्रों में परंपराओं को तोड़ने की छटपटाहट थी । लेकिन वे समाज को तोड़ना नहीं चाहती थीं। हां , वे कहीं-कहीं अपने महिला पात्रों के साथ क्रूर भी रहे और कुछ अधिक आदर्शवादी भी रहें।
यह अभी कुछ दिनों पहले की ही बात है कि सन् 1935 में लिखी हुई उनकी कहानी 'कफन' पर बहस उठ खड़ी हुई थी। प्रेमचंद की कहानी 'कफन' में घीसू और माधव बुधिया की मौत के बाद उसके कफन के लिए इकट्ठा हुए पैसों से शराब पी जाते हैं। एक औरत की मुर्दा देह को ढकने के लिए कफन की आवश्यकता कितनी है, यह कफन समाज की मुर्दा मर्यादाओं को ढकने के लिए अधिक आवश्यक है, यह कहानी उसी का चित्रण है। प्रेमचंद ने अपनी कहानी में मृत्यु से जुड़े अनावश्यक रीति-रिवाजों पर प्रश्न खड़ा किया है। कहानी को या उपन्यास को आगे बढ़ाने के लिए पात्रों के निर्धारण के लिए जाति के प्रयोग करने पर भी उन्हें आलोचना का शिकार होना पड़ा।
महाजन व्यवस्था के विरुद्ध
प्रेमचंद ने अपने साहित्य में महाजन व्यवस्था के विरुद्ध भी अपना आक्रोश जाहिर किया है। मध्यम वर्ग के पात्रों की नब्ज़ को वे सहज भाव से टटोल सकते थे। उनकी रचनाओं का ध्येय जहां समाज सुधार था, वहीं विधवा जीवन, वैश्या जीवन के भी विभिन्न पहलुओं को उन्होंने उठाया। उनकी कहानियों में एक बेचैनी, एक हताशा, नाराजगी, सत्य का बोध दिखाई देता है। यही वजह है कि उनकी रचनाओं से निकली आवाज को हम आज भी महसूस करते हैं। एक बार जैनेंद्र ने अपने स्वयं के और प्रेमचंद के बीच के अंतर को स्पष्ट किया था कि 'मैं अपने को बुद्धि का दुश्मन मानता हूं जबकि प्रेमचंद के संबंध में मैं कह सकता हूं कि वे धन के दुश्मन थे।'
प्रेम पर जोर
प्रेमचंद पर यह आलोचना होती रही है कि उनका लेखन यथार्थवादी और परिणाम आदर्शवादी भी हैं । लेकिन वे आधुनिक नहीं हैं। लेकिन उनके साहित्य को ध्यान से पढ़ने वाले जानते हैं कि उन्होंने अपने उपन्यासों में बगैर विवाह के भी प्रेम से साथ रहने को स्वीकृति प्रदान की है, यहां उनका जोर प्रेम पर था। एक तरह से वे लिव इन रिलेशनशिप के प्रति अपनी पक्षधरता दिखाते हैं। वे मानव मूल्यों और संवेदना की रक्षा करते हैं। ढकोसलाबाजी और अनावश्यक मृत परंपराओं का विरोध भी करते हैं।
क्या आज हम यह सोच सकते हैं कि उस समय में भी उनके उपन्यास का किरदार दूसरी जाति में विवाह को स्वीकार कर रहा था, दलित गर्भवती को अपने घर में आश्रय दे रहा था, बिना विवाह किए साथ रह रहा था। उन्होंने धार्मिकता को चुनौती दी और वे वर्ण रहित व्यवस्था और राष्ट्रीयता के पोषक बनना चाहते थे। आज के समय में व्यक्ति किसी भी मुद्दे पर इसलिए चुप रह जाता है क्योंकि वह या तो सच्ची बात कहने की कूवत नहीं रखता है या फिर उसके लिए त्याग करने का साहस नहीं उठाता। लेकिन प्रेमचंद का मानना था कि 'क्या बिगाड़ की बात नहीं कहोगे'।
प्रेमचंद को भूलना बेमानी होगा
आज जबकि राजसत्ता जन सेवा की जगह सत्ता के चिन्हों के निर्माण में अधिक व्यस्त है, प्रेमचंद का साहित्य भविष्य की सुंदर कल्पना के लिए एक आदर्श जमीन की रचना करता है। ऐसे समय में जब मानव सोशल मीडिया के दौर में आत्मकेंद्रित होता जा रहा है, हिंसक भाषा का प्रयोग कर रहा है, मानवीय संबंधों का उपहास हो रहा है, प्रेमचंद को भूलना बेमानी होगा। अगर भूलते हैं तो यह मानवता अपनी संवेदनाओं की जमीन छोड़कर आगे कैसे बढ़ेगी?
अंत में ऐसे साहित्यकार की यह पंक्ति लेख का समापन करने के लिए आवश्यक है -
'कोई अन्याय केवल इसलिए मान्य नहीं हो सकता कि लोग उसे परंपरा से सहते आए हैं।'