Operation Blue Star: 39 साल पहले पंजाब का वह स्याह सच, जिसने झकझोर कर रख दिया था देश को, कहानी आपरेशन ब्लू स्टार की

Operation Blue Star 1984: आठ दिन तक चला ऑपरेशन ब्लू स्टार ऐसी घटना थी जिसने भारत को पूरी तरह से झखझोर कर रख दिया था। यह आपरेशन जरनैल सिंह भिंडरावाले की मौत के साथ सफल रहा था लेकिन आगे चल कर इसकी बड़ी कीमत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की शहादत के रूप में देश को चुकानी पड़ी थी।

Update:2023-06-01 22:53 IST
Operation Blue Star file Photo

Operation Blue Star 1984: आज से 39 साल पहले पंजाब में घटा वो स्याह सच जिसने भारत को झकझोर कर रख दिया था। उस दिन अमृतसर के हरमंदर साहब (स्वर्ण मंदिर) प्रांगण में जो घटना घटित हुई थी वो आजादी के बाद भारतीय इतिहास के सबसे सियाह पन्ने के रूप में आज भी दर्ज है। यहां बात कहानी आॅपरेशन ब्लू स्टार की रही है। इस आॅपरेशन में काफी नुकसान हुआ। भारतीय सेना के 83 जवान शहीद और 248 घायल हो गए थे। आज ही के दिन शुरू हुआ यह आॅपरेशन 8 जून तक चला था। घटना 1984 की है। आठ दिन तक चला आॅपरेशन ब्लू स्टार ऐसी घटना थी जिसने भारत को पूरी तरह से झखझोर कर रख दिया था। यह आॅपरेशन जरनैल सिंह भिंडरावाले की मौत के साथ सफल रहा था लेकिन आगे चल कर इसकी बड़ी कीमत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की शहादत के रूप में देश को चुकानी पड़ी थी।

एक दिन में नहीं शुरू हुई यह कहानी

पंजाब के अशांत होने की यह कहानी रातों-रात या कोई एक दिन में नहीं शुरू हो गई थी। इसके केंद्र में जरनैल सिंह भिंडरावाले तो था, लेकिन इसकी शुरुआत सत्ता की उस महत्वाकांक्षा से हुई थी, जिसमें लोहे की काट लोहे से या जहर की काट जहर से की जाती है। कांग्रेस ने यही किया और ये कांग्रेस के लिए इतना भारी पड़ा कि इसकी कीमत देश को चुकानी पड़ी।

कांग्रेस ने आखिर ऐसा किया क्यों?

इस कहानी को समझने के लिए हमें आजादी के भी लगभग 25 साल पहले जाना होगा। 1920 में शिरोमणि अकाली दल नाम का एक संगठन बना जो खुद को सिखों का प्रतिनिधि मानता था और इसका मानना था कि खिसों का अपना देश होना चाहिए। जब 1930 में ऐसा लगने लगा था कि अंग्रेज भारत से चले जाएंगे तो पंजाब में भीतर ही भीतर ऐसी जनभावनाएं बनने और बनाए जाने लगी कि सिखों के लिए सिख होम लैंड होना चाहिए। लेकिन इस बात को मुखर रूप से कहने का मौका मिला 1940 में जब लाहौर रेजोलुशन पास हुआ, जिसमें मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान बनाने की मांग की। फिर क्या था अकाली दल ने भी मौका देखा और सिखों के लिए अलग देश की मांग उठाना शुरू कर दिया। इस वाकए को मशहूर लेखक खुशवंत सिंह ने अपनी किताब ‘सिखों का इतिहास‘ में बहुत ही बारीकी से उल्लेख किया है। वह लिखते हैं कि सिख यह मानने लगे थे कि अंग्रेजों के बाद पंजाब पर केवल उनका हक है। लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं और यह बात आई गई हो गई।

...देश आजाद हुआ और पंजाब के हो गए दो टुकड़े

1947 में देश आजाद हुआ और पंजाब के दो टुकड़े हो गए। बड़ा हिस्सा पाकिस्तान के साथ चला गया। बड़ी संख्या में सिख, हिंदू और सिंधी पाकिस्तान से भारत आ गए और पंजाबियों को अपनी संस्कृति और भाषा के वजूद की चिंता सताने लगी। फिर एक बार ये मांग उठी, लेकिन इस बार मांग धार्मिक आधार पर नहीं भाषाई आधार पर की गई थी। 1953 में आंध्र प्रदेश भाषा के आधार पर गठित होने वाला भारत का पहला राज्य बना तो अकाली दल ने फिर दांव देखा और ‘पंजाबी भाषा’ बोलने वालों के लिए अलग राज्य की मांग कर दी। इस रणनीति को बड़ी सफलता उस समय मिली जब 1 नवंबर, 1966 में उस समय के पंजाब को भाषा के आधार पर विभाजित कर पंजाब एवं हरियाणा का गठन किया गया। अगर एक तरीके से देखा जाए तो यहां सिखों की मांग पूरी हो गई थी, लेकिन देश को तो अभी बहुत कुछ देखना बाकी था। देखा जाए तो इसके पहले के पंजाब में पंजाब का मौजूदा हिस्सा, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली भी शामिल थी तो ऐसे में सिखों की संख्या हिंदुओं के मुकाबले कम थी। सिखों का मानना था कि पंजाब के संसाधनों पर पहले पंजाबियों का हक है। ऐसे में देश में बनने वाले बांध और नहरों पर उन्हें ज्यादा हक और स्वायत्ता दी जानी चाहिए। इस विभाजन के बाद भी कसक कुछ बाकी थी। कुछ नहीं, पूरी ही मान लें। 4 साल बाद ही इस मांग का दूसरा स्वरूप देखने को मिला। 1970 में।

यहां से उठी खलिस्तान की मांग

पंजाब विधानसभा में एक समय डिप्टी स्पीकर थे जगजीत सिंह चैहान। 1967 में हुए चुनावों में अकाली दल ने मांग उठाई थी कि पंजाब को जम्मू-कश्मीर की तरह धारा 370 के तहत विशेष दर्जा दिया जाए। इन चुनावों में अकाली दल को जीत मिली और यहीं से कांग्रेस और अकाली दल आमने-सामने आ गए। जगजीत सिंह चैहान चुनाव हारने के बाद 1969 में ब्रिटेन चले गए और 1970 में यहां से खलिस्तान के लिए अभियान चलाना शुरू कर दिया। 1971 में चैहान ने न्यूयॉर्क टाइम्स में एक विज्ञापन दिया और दुनियाभर के सिखों से खलिस्तान के लिए मदद मांगी। 1971 से इमरजेंसी के बीच और फिर 1980 तक चैहान ने खलिस्तान की मांग का खूब प्रचार किया। इसी साल जगजीत सिंह चैहान ने खालिस्तान का अलग देश के रूप में गठन का ऐलान कर दिया और वहीं पर मुद्रा भी जारी कर दी। हालांकि अकाली दल ने कभी भी अलग खालिस्तान की मांग नहीं की थी, वह स्वायत्ता चाहता था लेकिन अलग देश की मांग उसने कभी नहीं की थी।

1973 का आनंदपुर साहिब प्रस्ताव और वो सात मांगें

इधर, दूसरी तरफ भारत में अकाली दल और कांग्रेस अभी भी आमने-सामने थे। विरोध के सुर तेज-धीमे होते रहे, लेकिन 1973 में जो हुआ वह आगे जाकर शोर बनने वाला था। आनंदपुर साहिब में एक महत्वपूर्ण बैठक हुई, जिसमें एक प्रस्ताव पारित करते हुए कहा गया कि केंद्र सरकार को राज्यों के काम में ज्यादा हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए और साथ ही सरकार फेडेरल स्ट्रक्चर के तौर पर राज्यों को पूरी ताकत दे दे। अकाली दल के आनंदपुर प्रस्ताव में सात बातें महत्वपूर्ण थीं। पहला चंडीगढ़ को पंजाब को दे दिया जाए। हरियाणा के पंजाबी बोले जाने वाले कुछ इलाकों को पंजाब में शामिल किया जाए। मौजूदा संविधान के अंतर्गत राज्यों को और अधिक अधिकार दिए जाएं। राज्यों के काम में केंद्र के दखल को कम किया जाए। पंजाब में औद्योगीकरण और लैंड रिफॉर्म हो। कमजोर तबके के लोगों के हितों का ख्याल रखा जाए। अखिल भारतीय गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी का गठन। पंजाब के बाहर अल्पसंख्यकों सिखों के अधिकारों की रक्षा। फौज में सिखों की भर्ती ज्यादा संख्या में होनी चाहिए और मौजूदा कोटा सिस्टम को खत्म किया जाए। 1973 में ये प्रस्ताव रखा जरूर गया, लेकिन लागू नहीं हुआ। ये सातों मांगें केवल हवा में गूंजती रहीं। लेकिन ये सात प्रस्ताव भी ऑपरेशन ब्लू स्टार की नींव के पत्थर ही थे, जिन्होंने आगे के सालों में बड़ी भूमिका निभाई थी।

...और सामने आया भिंडरावाले-

इसी 71 से लेकर 1980 के बीच जरनैल सिंह भिंडरावाले का उदय हुआ था। शुरुआत में वह महज एक धार्मिक नेता था। 1977 में भिंडरावाले को सिखों की धर्म प्रचार की प्रमुख शाखा दमदमी टकसाल का मुखिया बनाया गया था। इस कहानी से एक और खूनी कहानी जुड़ती है। कहानी भिंडरावाले और निरंकारियों के टकराव की। असल में, पारंपरिक रूप से सिखों का मानना है कि दशम गुरु, गोविंद सिंह के बाद गुरु ग्रंथ साहब ही आखिरी गुरु हैं और अनंत काल तक बने रहेंगे। निरंकारी सिख इस बात को नहीं मानते हैं। ऐसे में 1978 में वैशाखी के दिन सिखों और निरंकारी सिखों के बीच खूनी झड़प हो गई जिसमें 13 निरंकारी मारे गए। भिंडरावाले के लोगों पर प्रभाव का यह पहला मामला सामने आया था और कांग्रेस की नजर इस पर पड़ चुकी थी और वहीं इमरजेंसी लगाने के कारण कांग्रेस की देशभर में किरकिरी हुई थी।
जनता पार्टी की सरकार बनी थी तो पंजाब की बागडोर अकाली दल के हाथ में आ गई थी। कांग्रेस को अकाली दल के इसी काट की जरूरत थी। जिसकी खोजबीन वह कई सालों में कर रही थी और आपातकाल के बाद इसकी जरूरत ज्यादा ही हो गई थी। इस वाकये को वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर ने अपनी किताब ‘ट्रेजेडी ऑफ पंजाब’ में बहुत तफसील से बयान किया है। वह लिखते हैं ‘पंजाब की कमान संजय गांधी के हाथ में थी। यहां परंपरागत सिख धड़ा अकाली दल के समर्थन में था। ऐसे में उनका सुझाव था कि किसी ऐसे व्यक्ति को अकाली दल के सामने खड़ा किया जाए जो सिखों में खासी पकड़ रखता हो।‘ ऐसा ही सुझाव पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री ज्ञानी जैल सिंह ने भी दिया था और ऐसे व्यक्ति की तलाश भिंडरावाले पर आकर खत्म हुई थी। कांग्रेस पर यह आरोप लगते हैं कि उसने ही भिंडरावाले को पंजाब की धार्मिक राजनीति में बढ़ावा देने के लिए हर तरह की मदद की। भिंडरावाले ने गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी में अपने उम्मीदवार खड़े करने शुरू किए तो कांग्रेस ने उनका समर्थन किया। जनवरी 1980 तक इंदिरा की फिर से सत्ता में वापसी हो चुकी थी। इस चुनाव के दौरान भिंडरांवाले ने कांग्रेस के लिए जमकर प्रचार किया था।

दरबारा सिंह बने थे नए सीएम-

जनता पार्टी की सरकार के गिरने के बाद 1980 में फिर से चुनाव हुए तब पंजाब में एक बार फिर कांग्रेस की सरकार बनी और दरबारा सिंह मुख्यमंत्री। उन्होंने कहा कि भिंडरावाले को रोका जाए और दबाया जाए लेकिन कांग्रेस नेतृत्व इसके पक्ष में नहीं था। 1980 में ही 1977 वाले बैसाखी झगड़े को लेकर फैसला आया और गुरबचन सिंह रिहा हो गए तो भिंडरावाले बौखला उठा और अकाली दल के खिलाफ मुखर विरोधी हो गया। दो महीने बाद ही निरंकारी बाबा गुरबचन सिंह की दिल्ली में हत्या कर दी गई। इसका आरोप भिंडरावाले व उसके समर्थकों पर लगा। यह मामला जोर-शोर से उठा ही था कि भाषा का मुद्दा एक बार फिर गहराने लगा। 1981 में जनगणना के दौरान यह इतना अहम मुद्दा बना कि हिंदी के आगे पंजाबी के पिछड़ने का डर सिखों को सताने लगा। पंजाब केसरी ने अपने लेखों में लिखा कि पंजाब में रहने वाले हिंदू हिंदी को अपनी मातृभाषा बताएं न कि पंजाबी को। इसका नतीजा यह निकला कि पंजाब केसरी के मालिक लाला जगत नारायण की हत्या कर दी गई।

दो दिन की गिरफ्तारी में बड़ा हो गया भिंडरावाले का कद

इस मामले में भिंडरावाले को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया लेकिन गिरफ्तारी के विरोध में पंजाब में हिंसा शुरू हो गई और कुछ दिन बाद भिंडरावाले को छोड़ दिया गया। लेकिन इस घटना के बाद भिंडरावाले का कद अचानक से सिख राजनीति में बहुत बड़ा हो गया। एक बार भिंडरावाले ने ऐसा कहा भी था कि ‘जो काम मैं सालों में नहीं कर पाया वो दो दिन जेल में रहने से पूरा हो गया।

1982 में साथ आए भिंडरावाले और अकाली

भाषा का मुद्दा और सिखजन हिताय वाला मामला इतना बड़ा हो गया कि एक-दूसरे के धुर विरोधी भिंडरावाले और अकाली दल एक साथ हो गए। इस तरह इनका विरोधी एक रह गया वह थी कांग्रेस। अकाली दल के संत हरचंद सिंह लोंगोवाल और भिंडरावाले के बीच सहमति के बाद धर्मयुद्ध मोर्चा की शुरुआत हुई, जिसका मुख्य उद्देश्य 1973 के आनंदपुर साहब प्रस्ताव की मांगों को पूरा करवाना था। वो सात प्रस्ताव जो ऑपरेशन ब्लू स्टार वाली घटना की नींव थे. अब कुल मिलाकर बात ये थी कि पंजाब की हालत बद से बदतर होती जा रही थी। भिंडरावाले ने गोल्डन टेम्पल को अपना ठिकाना बना लिया और वहां से आदेश जारी किए जाने लगे। कांग्रेस सरकार ने इस आंदोलन को रोकने की पूरी कोशिश की। इस दौरान तकरीबन 100 लोगों की जान चली गई। तकरीबन 30 हजार लोगों को इस दौरान गिरफ्तार किया गया। अपनी बात मनवाने के लिए इस मोर्चे ने 1982 में दिल्ली में होने वाले नौवें एशियाई खेलों के आयोजन में व्यवधान डालने की योजना बनाई थी। ऐसे में पंजाब से हरियाणा और दिल्ली की ओर आने वाले सभी सिखों की तलाशी ली जाने लगी। चुन-चुन कर तलाशी लिए जाने की वजह से सिखों में नाराजगी हो गई।

1983, जब स्वर्ण मंदिर की सीढ़ियों पर बहा खून

1983 में धर्मयुद्ध मोर्चा के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने वाले आईपीएस अधिकारी एएस अटवाल की स्वर्ण मंदिर की सीढ़ियों के पास हत्या कर दी गई। पुलिस के अंदर भिंडरावाले का इतना खौफ था कि अपने अधिकारी की लाश उठाने 2 घंटे तक कोई पुलिसकर्मी उनके पास नहीं पहुंचा। इसके बाद पंजाब में हिंदू और पंजाबियों के बीच विवाद पैदा हो गया। अक्टूबर 1983 में एक बस में सवार 6 हिंदुओं की हत्या कर दी गई। इसके बाद पंजाब में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। सीएम दरबारा सिंह की सरकार को इंदिरा गाधी ने बर्खास्त कर दिया।

भिंडरावाले ने किया अकाल तख्त पर कब्जा

दूसरी ओर भिंडरावाले और उनके समर्थकों ने हरमंदर साहब परिसर के अंदर हथियार इकट्ठे करना शुरू कर दिए। बड़ी मात्रा में वहां हथियार आता था। 15 दिसंबर, 1983 को भिंडरावाले ने अपने समर्थकों के साथ अकाल तख्त पर कब्जा जमा लिया। इसके बाद इंदिरा गांधी ने भिंडरावाले के सामने बातचीत का प्रस्ताव रखा। अकाली गुट ने तो सरकार का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया लेकिन भिंडरावाले ने इसे सिरे से खारिज कर दिया। भिंडरावाले ने अकालियों पर राजनीतिक ताकत हासिल करने की महत्वकांक्षा का आरोप लगाया और कहा, मुझे भारत सरकार का प्रस्ताव स्वीकार नहीं है।

1 जून 1984... शुरू हुआ ऑपरेशन ब्लू स्टार

लगातार हमले को बढ़ता देखते हुए 1 जून, 1984 पूरे पंजाब में कर्फ्यू लगा दिया गया। ऑपरेशन ब्लू स्टार से पहले पांच महीने में तकरीबन 300 लोगों की जान जा चुकी थी। ऐसे में भारत सरकार ने बड़ा कदम उठाने से पहले पंजाब में बड़ी पाबंदियां लगाईं। रेल, वायु और सड़क मार्ग बंद कर दिए गए। किसी भी तरह के संदेश भेजने पर रोक लगा दी गई। सेना और अर्ध सैन्य बलों ने सारा नियंत्रण अपने हाथों में ले लिया और पत्रकारों को भी अमृतसर छोड़ने के लिए कह दिया गया।

इंदिरा गांधी ने बातचीत का रखा प्रस्ताव

1 जून को इंदिरा गांधी ने रेडियो पर अपना भाषण दिया और बातचीत का रास्ता खुले होने की बात कही। 3 जून को सिक्खों के पांचवें गुरु अंगद देव का शहीदी दिवस था। उस दिन स्वर्ण मंदिर में रोज की अपेक्षा ज्यादा श्रद्धालु मत्था टेकने आए थे। पुलिस और सरकारी तंत्र लोगों को मंदिर से वापस जाने के लिए कह रहा था, लेकिन भिंडरावाले के समर्थकों ने श्रद्धालुओं को मंदिर परिसर से बाहर नहीं निकलने दिया। उनका इरादा साफ था कि उन्हें सरकारी कार्रवाई के आगे ढाल बनाया जाएगा।

प्रशिक्षित थे भिंडरावाले के समर्थक

भिंडरावाले के समर्थकों को हथियार चलाने और सैन्य बलों का सामना करने का प्रशिक्षण ब्रिगेडियर शाहबेग सिंह ने दिया था। इस शाहबेग ने ही बांग्लादेश की मुक्ति वाहिनी के लोगों को पाकिस्तानी सेना का सामना करने के लिए प्रशिक्षित किया था। उनका ये अनुभव यहां काम आया था। लेकिन, सवाल उठता है कि शाहबेग ने ऐसा क्यों किया। जब 1971 के युद्ध में उनकी बहादुरी और देशभक्ति की मिसाल दी जाती है तो वह 1984 में देश विरोधी बनकर कैसे सामने आए? इस सवाल के जवाब में एक और कहानी बांग्लादेश बनने के समय में ब्रिगेडियर शाहबेग सिंह की सेवाओं के लिए भारत सरकार ने उनको परम विशिष्ट सेवा मेडल से सम्मानित किया था। इससे पहले उन्हें अति विशिष्ट सेवा मेडल मिल चुका था। लेकिन फिर ऐसा क्या हुआ? रिटायरमेंट से पहले शाहबेग यूपी के बरेली में पोस्टेड थे। एक रिपोर्ट के मुताबिक, वहां एक ऑडिट रिपोर्ट में वित्तीय अनियमितता सामने आई थी, शाहबेग इसकी जांच कर रहे थे। इसी बीच रिटायरमेंट से एक दिन पहले उन्हें बिना किसी मुकदमे या कोर्ट मार्शल के नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया यही नहीं उनकी पेंशन भी रोक दी गई और भ्रष्टाचार के आरोप भी लगाए गए। उन पर अपना मकान बनवाने में अपनी आय के स्रोत से कहीं अधिक धन लगाने का आरोप भी लगाया गया। ‘अमृतसर मिसिज गांधीज लास्ट बैटल‘ लिखने वाले पत्रकार सतीश जैकब ने किताब में शाहबेग के प्रशिक्षण का जिक्र भी किया है। उनके मुताबिक, सरकार के इस कदम ने शाहबेग सिंह को सरकार विरोधी बना दिया। हालांकि अदालत ने उनके खिलाफ लगे आरोपों को गलत पाया लेकिन इसके बावजूद सरकार के प्रति उनके रवैये में कोई बदलाव नहीं आया। वह भिंडरावाले के करीबी बन गए और फिर उन्होंने स्वर्ण मंदिर में भिंडरावाले के लिए वह सब कुछ किया, जो ऑपरेशन ब्लू स्टार में भारतीय सेना के लिए मुसीबत बन सकता था, बल्कि बना भी। शाहबेग के ही प्रशिक्षण का नतीजा था कि चरमपंथियों ने अपने हथियार जमीन से कुछ ही ऊंचे रखे। मकसद, आगे बढ़ने वाले सैनिकों के पैर में गोली लगे। इस तरह भारतीय सेना के पास रेंग कर आगे बढ़ने का विकल्प ही खत्म हो गया, क्योंकि इसका मतलब था, सीधे सिर में गोली और फिर मौत।

कुलदीप सिंह बरार संभाल रहे थे कमान

इस ऑपरेशन की कमान मेजर जनरल कुलदीप सिंह बरार को सौंपी गई थी। 5 जून की शाम दोनों पक्षों के बीच मुख्य लड़ाई शुरू हुई। सेना को पहले से ही ये निर्देश थे कि हरमंदिर साहब को किसी तरह की क्षति नहीं पहुंचनी चाहिए। शुरुआत में सेना को इस बात का अंदाजा नहीं था की आतंकियों के पास आधुनिक हथियार हैं। उनके पास एंटी टैंक गन, रॉकेट लॉन्चर, मशीन गन थी और वो सही पोजीशन पर घात लगाए बैठे थे। जब शुरुआत में ज्यादा संख्या में सैनिक घायल हुए तो मेजर बरार ने अपनी स्ट्रैटजी बदल दी और अकाल तख्त पर हमले के लिए टैंक मंगा लिए। इन टैंक का उपयोग रात में रोशनी करके भिंडरावाले और उसके समर्थकों पर निशाना लगाना था, लेकिन जब बात इससे भी नहीं बनी तो अकाल तख्त के ऊपर टैंक से गोले दागे गए और इस दौरान भिंडरावाले की मौत हो गई। जांच में सामने आया था कि टैंक से अकाल तख्त के ऊपर 80 से ज्यादा गोले दागे गए थे।

सेना के 83 जवान हुए थे शहीद

हमले के दौरान अकाल तख्त और पुस्तकालय को बड़ा नुकसान पहुंचा था। मिशन के पूरा होने के बाद जब स्वर्ण मंदिर परिसर की जांच की गई तो बड़ी मात्रा में पर हथियार मिले थे। आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक ऑपरेशन ब्लू स्टार के दौरान भारतीय सेना के 83 जवान शहीद हुए थे। वहीं 248 घायल हुए थे। जबकि इस दौरान 500 से ज्यादा आतंकी मारे गए थे जिसमें भिंडरावाले भी शामिल था। ब्रिगेडियर शाहबेग सिंह भी मारे गए थे।
अब ये घटना इतिहास बन चुकी है, वह भी खून से सना इतिहास। इसमें कौन दोषी था यह कहना मुश्किल नहीं तो आसान भी नहीं, लेकिन यह सच है कि 1981 से 84 के बीच और इस मामले से जुड़ी हर घटना में निर्दोष से अधिक मरे। पंजाब को शांति पाने में तो 10 साल लग गए, लेकिन खलिस्तान की मांग जब-तब इस शांति को भंग करने की कोशिश करती रहती है। यह मांग आज भी उठती रहती है। आॅपरेशन ब्लू स्टार कांग्रेस और देश दोनों को काफी नुकसान पहुंचाया। देश ने इंदिरा गांधी जैसे प्रधानमंत्री को खो दिया वहीं पंजाब का भी काफी नुकसान हुआ।

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