कृषि कानूनों का विरोधः आंदोलन की मुखाल्फत करने वालों को वोट न करने की अपील

किसान आंदोलन के तहत दिल्ली में तो किसान अपनी मांगों के समर्थन में धरने पर बैठा ही है लेकिन किसानों के समर्थन में लामबंद हो रहे लोग, किसान और संस्थाएं अब आंदोलन के विरोधियों को वोट न देने पर फोकस कर रहे हैं।

Update: 2021-02-15 16:39 GMT
किसानों और दिहाड़ी मजदूरों ने निवासियों से अपने क्षेत्रों में भाजपा उम्मीदवारों को वोट न देने का आग्रह किया। ये तो मात्र एक शुरुआत है।

रामकृष्ण वाजपेयी

कृषि कानूनों के खिलाफ किसान आंदोलन का स्वरूप व्यापक होता जा रहा है। 20 जनवरी के बाद से केंद्र सरकार के साथ वार्ता में गतिरोध की स्थिति में एक तरफ किसान सरकार की घेराबंदी तेज करते नजर आ रहे हैं तो दूसरी ओर विपक्षी पार्टियों के नेता भी सरकार पर कृषि कानून के खिलाफ दबाव बना रहे हैं। हालांकि आंदोलन में राजनीतिक दखल के लिए किसान पहले भी मना कर चुके हैं, लेकिन महापंचायतों के मंच पर नेताओं की मौजूदगी के सवाल पर राकेश टिकैत का कहना है कि ‘हम थोड़ी महापंचायत करा रहे हैं। वे अपनी पंचायत कर रहें होंगे, हमारी यूनियन की नहीं है। टिकैत का यह भी कहना है, ‘कोई जा रहा है और पंचायत का नाम ले रहा है तो पंचायत शब्द पर बैन थोड़ी न है, पंचायत सभी को करनी चाहिए।’

सरकार की घेराबंदी कैसे

किसान आंदोलन के तहत दिल्ली में तो किसान अपनी मांगों के समर्थन में धरने पर बैठा ही है लेकिन किसानों के समर्थन में लामबंद हो रहे लोग, किसान और संस्थाएं अब आंदोलन के विरोधियों को वोट न देने पर फोकस कर रहे हैं। जिसमें सीधे निशाने पर भाजपा आ रही है। इस तरह का माहौल बनाने की शुरुआत पंजाब के जालंधर में हो चुकी है जहां म्युनिसिपल कारपोरेशन के चुनाव के मौके पर प्रदर्शन किया गया। जालंधर के दोआबा क्षेत्र के विभिन्न कृषि संगठनों के बैनर तले स्थानीय निवासियों ने पिछले दिनों आदमपुर से होशियारपुर तक विरोध मार्च निकाला था। प्रदर्शनकारियों में किसान, मजदूर और दिहाड़ी मजदूर शामिल थे।

तीन कृषि कानूनों को पारित करने के लिए सरकार की निंदा करने के अलावा, कृषि नेताओं ने कहा कि मार्च मुख्य रूप से निवासियों को आगामी नगर निकाय चुनाव में भाजपा उम्मीदवारों को वोट न देने की अपील करने पर केंद्रित था। किसानों और दिहाड़ी मजदूरों ने निवासियों से अपने क्षेत्रों में भाजपा उम्मीदवारों को वोट न देने का आग्रह किया। ये तो मात्र एक शुरुआत है। उत्तर प्रदेश के अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव पर भी इसका असर पड़ने की संभावना है। विधानसभा चुनाव किसान आंदोलनकारी भारतीय जनता पार्टी को संकट में डाल सकते हैं।

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क्योंकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश, एक ऐसा क्षेत्र है जहां भाजपा ने कुल 110 सीटों में से 2012 की 38 सीटों के मुकाबले 2017 में 88 सीटों पर अपनी बढ़त बनाई है। यानी भाजपा को 40 सीटों का फायदा हुआ था।

दशकों पहले, भारतीय किसान यूनियन (बीकेयू) के नेता महेंद्र सिंह टिकैत ने किसानों को उनके अधिकारों के लिए सामूहिक रूप से लड़ने के लिए संगठित किया था, आज यह आंदोलन उनके बेटे राकेश टिकैत और नरेश टिकैत द्वारा चलाया जा रहा है। भाजपा राम मंदिर आंदोलन चलते मुसलमान, अहीर, जाट, गुर्जर और राजपूत के प्रसिद्ध "माजर" गठबंधन को प्रभावी ढंग से विफल करने में कामयाब रही थी, जिन्हें राज्य के सबसे बड़े जाट, दिवंगत प्रधान मंत्री, चौधरी चरण द्वारा एक साथ जोड़ कर रखा गया था।

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किसानों के आंदोलन ने सभी को लाया साथ

सवाल ये है कि चुनावों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट वोट का एक बड़ा हिस्सा हासिल करने वाली भाजपा 2022 में उनके समर्थन के बिना आगे कैसे जा सकती है? क्या नाराज किसान पश्चिमी यूपी में भाजपा की पकड़ को खत्म कर देंगे? आज, किसानों के आंदोलन ने क्षेत्र के जाटों, गुर्जरों, अहीरों, मुसलमानों, त्यागी और ब्राह्मणों को एक ही मंच पर एक साथ ला दिया है।

हालांकि भाजपा समर्थक लॉबी इस बात को नहीं मानेगी और इसे जल्दबाजी का निष्कर्ष कह सकती है, अभी कई उलटफेर भी हो सकते हैं। हो सकता है चुनाव का मुद्दा किसान के अलावा कुछ और बने। विपक्ष चुनाव में कितना मजबूत रह पाता है।

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लेकिन किसान आंदोलन से जुड़े नेता अपने संघर्ष को व्यापक करने के लिए जिस तरह देश भर में निकल रहे हैं और विपक्ष भी भाजपा को अलग थलग करने की कोशिशों में जिस तरह जुटा है उससे तो यही लगता है कि यदि किसानों को मनाने में भाजपा विफल रही तो उसको बड़ा नुकसान हो सकता है।

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