आशुतोष सिंह
वाराणसी। प्रियंका गांधी के एक्टिव पॉलिटिक्स में एंट्री के बाद यूपी की सियासी तस्वीर करवट ले रही है। बैकफुट पर नजर आने वाली कांग्रेस अब फ्रंटफुट में खेलती नजर आ रही है। कांग्रेस की बढ़ती ताकत देख उसे नजरंदाज करने वाली पार्टियों सपा-बसपा के रुख में भी बदलाव नजर आने लगा है। गठबंधन में कांग्रेस को शामिल करने की सुगबुगाहट शुरू हो चुकी है। हालांकि इस पर अभी कुछ भी कह पाना जल्दबाजी होगी। बीजेपी की विरोधी पार्टियां इस बात को बखूबी जानती है कि अगर यूपी का रण जीतना है तो एकजुट होना पड़ेगा। मोदी के तिलिस्म को तोडऩा होगा। यही कारण है कि अब बनारस में मोदी के खिलाफ संयुक्त विपक्षी उम्मीदवार खड़ा करने की मांग उठने लगी है। सियासी गलियारे में इस बात की चर्चा तेज है कि अगर सब कुछ ठीक रहा तो अमेठी और रायबरेली की तर्ज पर बनारस में विपक्षा का साझा उम्मीदवार स्थानीय सांसद और देश के पीएम नरेंद्र मोदी को टक्कर दे सकता है। बनारस की चकाचौंध के बीच एक ऐसा वर्ग भी है जो मोदी से चिढ़ा हुआ है। उसे मौके की तलाश है। तो अब सवाल इस बात का है कि क्या विपक्ष का चेहरा गांधी परिवार का कोई सदस्य होगा या फिर कोई और? और अगर वाकई ऐसा होता है तो फिर वाराणसी की चुनावी तस्वीर क्या होगी? क्या मोदी मैजिक और उनके आभामंडल के आगे विपक्षी टिक पाएंगे?
सेंधमारी की कोशिश
वैसे तो मूड और मिजाज से बनारस को भाजपाई कहा जाता है। नब्बे के दशक के बाद से इस सीट पर बीजेपी का कब्जा रहा है, सिर्फ 2004 को छोडक़र। मुश्किल हालात में भी बनारस के लोगों ने बीजेपी का साथ नहीं छोड़ा। यही कारण है कि देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 के लिए बनारस की सीट को चुना। अब जबकि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने पूर्वी उत्तर प्रदेश की कमान अपनी बहन प्रियंका को सौंपी है तो ये माना जा रहा है कि कांग्रेस अब सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से टक्कर लेने के मूड में है। वाराणसी के सियासी गलियारे में इसकी सुगबुगाहट भी शुरू हो गई है। प्रियंका के आने के बाद से बनारस के कांग्रेस दफ्तर में अलग माहौल दिखने लगा है। स्थानीय नेता संगठन को मजबूत करने में जुट गए हैं। यकीनन बनारस के जातिगत और राजनीतिक आंकड़े भले ही कांग्रेस के खिलाफ हो, लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि राहुल या प्रियंका की दावेदारी को खारिज कर दिया जाए। कहा भी जाता है कि राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं है।
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बनारस के विकास का डंका पूरे देश में पीटा जा रहा है। धार्मिक नगरी की चमचमाती तस्वीरें सोशल मीडिया की सुर्खियां बनी रहती है। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई बार बदलते बनारस का बखान कई बार कर चुके हैं। विरोधी भी विकास की इस नई इबारत को झुठला नहीं पा रहे हैं। इतना कुछ होने के बाद भी क्या कांग्रेस अपने दिग्गजों को मोदी के सामने उतारने की हिम्मत दिखाएगी? यकीनन संभव है। दरअसल चमचमाती तस्वीरों के बीच बनारस का एक बड़ा वर्ग है जिसे लगता है कि विकास बेमानी है। बनारस में व्यापारियों को बीजेपी का परंपरागत वोटर माना जाता है, लेकिन नोटबंदी और जीएसटी मुद्दे पर व्यापारी वर्ग बीजेपी से नाराज चल रहा है। देश के अन्य प्रदेशों की तरह उसे लगता है कि केंद्र सरकार ने उसके लिए कुछ नहीं किया। कड़े कानून के चलते उसका धंधा चौपट हो रहा है। लंबे समय से बीजेपी को वोट देने वाले दिलीप जायसवाल कहते हैं कि हम लोग बीजेपी के समर्थक रहे हैं, लेकिन बीजेपी सरकार में खुद को ठगा महूसस कर रहा हूं। शहर चमकाने से व्यापार नहीं चमक जाएगा। नोटबंदी के बाद हमारी कमर टूट गई है। व्यापारियों के लिए इस सरकार ने कुछ नहीं किया। ये दर्द सिर्फ दिलीप जायसवाल का नहीं है। उनकी तरह बहुत से व्यापारी सरकार की नीतियों से परेशान हैं। संभव है कि ये व्यापारी नए विकल्प की तलाश करें।
काशी विश्वनाथ कॉरीडोर से संत समाज नाराज
काशी विश्वनाथ कॉरीडोर को मोदी सरकार का ड्रीम प्रोजेक्ट बताया जाता है। अगले दौरे पर मोदी इस कॉरीडोर का शिलान्यास करेंगे। सरकार का दावा है कि कॉरीडोर के बनने के बाद से बाबा विश्वनाथ का दर्शन करने वाले श्रद्धालुओं को काफी सहूलियतें मिलेंगी,लेकिन कॉरीडोर के नाम पर जिस तरह से पक्के महाल में घरों और मंदिरों को ध्वस्त किया गया, उससे बनारस के लोगों में बेहद गुस्सा है। मोदी सरकार लोगों के साथ साधु-संतों के निशाने पर है। विश्वनाथ कॉरीडोर को लेकर बनारस में लंबे समय तक आंदोलन चला। जमीनी स्तर पर विश्वनाथ कॉरीडोर को लेकर एक बड़े जनमानस के मन में गुस्सा भरा हुआ है। यकीनन सत्ता के आगे ये लोग खामोश हो गए हो, लेकिन इसकी चिंगारी सुलग रही है। कॉरीडोर की खिलाफत करने वाले राजनाथ तिवारी कहते हैं कि मोदी सरकार तानाशाही पर अमादा हो गई है। बनारस की पहचान मिटाने की कोशिश की जा रही है। आने वाले चुनाव में पीएम मोदी को इसकी कीमत चुकानी पड़ सकती है। एक तरह जहां साधु-संत विश्वनाथ कॉरीडोर को लेकर नाराज हैं तो दूसरी ओर सवर्ण मतदाता एससी-एसटी एक्ट को लेकर गुस्से में है। सरकार ने भले ही गरीब सवर्णों के लिए आरक्षण के दरवाजे खोल दिए, लेकिन एक बड़ा वर्ग है जो अभी भी बीजेपी से नाराज है।
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विपक्ष हुआ एकजुट तो मोदी को होगी मुश्किल
जानकार बताते है कि अगर पूरा विपक्ष एकजुट हो जाता है तो मोदी की राह में मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं। मौजूदा दौर में ना तो 2014 का माहौल है और न ही वो लहर। कई मुद्दों को लेकर देश के तमाम हिस्सों की तरह बनारस में भी बीजेपी के खिलाफ गुस्सा है। ऐसे में इसका खामियाजा स्थानीय सांसद और पीएम नरेंद्र मोदी को भी भुगतना पड़ सकता है। अगर हम 2014 के लोकसभा चुनाव के नतीजों पर गौर तो इस दौरान नरेंद्र मोदी को कुल 5,81,022 वोट मिले थे। दूसरे स्थान पर रहने वाले आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल को 2,09,238 वोट मिले। कांग्रेस प्रत्याशी के अजय राय को 75,614 वोट, बीएसपी उम्मीदवार विजय प्रकाश जायसवाल 60,579 मत जबकि सपा प्रत्याशी कैलाश चौरसिया को 45,291 वोट मिले थे। मतलब नरेंद्र मोदी को कुल पड़े वोट का 56 प्रतिशत मत मिला। ये वक्त तब था जब पूरे देश में मोदी की प्रचंड लहर चल रही थी। बच्चे-बच्चे की जुबान पर मोदी का नाम था। इसके अलावा 2014 के उलट जातिगत समीकरण भी बीजेपी के पक्ष में जाते नहीं दिख रहे हैं। बनारस की कुल मतदाताओं में वैश्य जाति की संख्या 3.25 लाख, ब्राह्मण 2.50 लाख, मुस्लिम तीन लाख संख्या हैं। फिलहाल ये तीनों वर्ग बीजेपी से नाराज है जबकि 2014 में ब्राह्मणों और वैश्यों ने एकतरफा बीजेपी के पक्ष में वोट किया था। जानकार बताते हैं कि बदलते समीकरण में ब्राह्मणों का एक बड़ा वर्ग कांग्रेस का साथ दे सकता है। इसके अलावा कांग्रेस ने कोशिश की तो वैश्य भी कांग्रेस के पाले में आ सकते हैं।
बड़े नेताओं की पसंदीदा सीट रहा है बनारस
देश की राजनीति में बनारस का एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है। सियासी नेताओं को हमेशा ही बनारस की सीट लुभाती रही है। कमलापति त्रिपाठी, राजनारायण, अनिल शास्त्री, अरविंद केजरीवाल, मुरली मनोहर जोशी सरीखे सियासी दिग्गज यहां से चुनाव लड़ चुके हैं। इसके अलावा देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद यहां से सांसद हैं। जानकार बताते हैं कि बनारस से चुनाव जीतने की हसरत हर बड़े नेता की होती है। बनारस न सिर्फ धार्मिक नगरी है बल्कि बुद्धजीवियों का भी गढ़ रही है। इस शहर का जुड़ाव जितना आध्यात्म से रहा है, उतना ही कला-संगीत और कलम से भी। यहां से सांसद बनना अपने आप में एक गौरव होता है। यही कारण है कि बनारस सीट दिग्गजों को लुभाती रही है।
बीजेपी का मजबूत किला
वाराणसी को उत्तर प्रदेश में बीजेपी का सबसे मजबूत गढ़ माना जाता है। साल 1991 से लेकर 2014 तक हुए लोकसभा चुनावों में सिर्फ एक बार ऐसा हुआ,जब बीजेपी के अलावा कोई दूसरी पार्टी ने यहां जीत हासिल की हो। 2004 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार राजेश मिश्रा ने लगातार बीजेपी के शंकर प्रसाद जायसवाल को हराया था। 2009 और 2014 में यहां से मुरली मनोहर जोशी और नरेंद्र मोदी चुनाव जीत चुके हैं। फिलहाल वाराणसी की आठों विधानसभा सीटों पर बीजेपी का कब्जा है। वाराणसी नगर निगम और जिला पंचायत भी बीजेपी के पास है। बीजेपी के पास विरोधियों की अपेक्षा मजबूत संगठन मौजूद है। साथ ही पार्टी के पास परंपरागत वोट बैंक भी है जो सालों से बीजेपी को वोट देते आ रहा है। यही नहीं सांसद के तौर पर बीजेपी के पास मोदी जैसा करिश्माई चेहरा है तो आरएसएस का साथ भी है।
बीजेपी का डैमेज कंट्रोल
पूर्वांचल में आने वाले मुश्किल को बीजेपी ने भी भांप लिया है। उसे इस बात का अहसास है कि मोदी के खिलाफ विरोधी एकजुट हो सकते हैं। लिहाजा अपने सबसे बड़े योद्धा को सुरक्षित रखने के लिए पार्टी ने प्रयास शुरू कर दिए हैं। बीजेपी का संगठन अचानक फास्ट हो गया है। यही कारण है कि बीजेपी आलाकमान ने पिछले दिनों लोकसभा चुनाव के मद्देनजर काशी क्षेत्र के करीब 30 हजार बूथ अध्यक्षों के साथ संवाद किया। चुनाव के मोर्चे पर सरकार बड़े-बड़े केंद्रीय मंत्री लग चुके हैं। डैमेज कंट्रोल के लिए अमित शाह ने जेपी नड्डा को जिम्मेदारी सौंपी है। कार्यकर्ताओं का मूड टटोलने के लिए जेपी नड्डा लगातार दौरे कर रहे हैं। यही नहीं पूरे जिले में लोगों के घरों पर 50 हजार बीजेपी के झंडे लगाने की योजना है। बीजेपी को इस बात का इल्म हो चुका है कि मोदी के खिलाफ संयुक्त विपक्ष कोई उम्मीदवार खड़ा कर सकता है। बीजेपी की नजर अपने बूथ कार्यकर्ताओं पर टिकी है। आने वाले दिनों में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में हो रहे बूथ सम्मेलनों के माध्यम से 1.75 लाख बूथ कार्यकर्ताओं को लोकसभा चुनाव संबंधी मार्गदर्शन देंगे। हालांकि बीजेपी को भरोसा है कि मोदी के विकास कार्यों की अनदेखी कर पाना लोगों के लिए मुश्किल होगा। फिर भी पार्टी कोई रिस्क नहीं लेना चाहती है।
विकास के लिए बहाया पानी की तरह पैसा
वाराणसी के विकास के लिए मोदी सरकार ने पानी की तरह पैसा बहाया है। अब तक लगभग 30 हजार करोड़ रुपए की अलग-अलग परियोजनाओं को मंजूरी दी जा चुकी है। इनमें से कई का लोकापर्ण हो चुका है तो कई पर काम चल रहा है। मोदी के आने के बाद से बाबतपुर एयरपोर्ट से शहर को जोडऩे वाली 17 किलोमीटर की फोरलेन सडक़ बनी। सालों से रुकी रिंगरोड परियोजना परवान चढ़ी और परियोजना का फेज वन बनकर तैयार हुआ। इसी तरह मोदी ने सीवर और पेयजल के क्षेत्र में काफी काम किया है। गोइठहां और दीनापुर सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट बनकर तैयार है। मोदी ने चिकित्सा के क्षेत्र में भी बनारस के लोगों को सौगात दी। मोदी के आने के बाद ट्रामा सेंटर का उद्घाटन हुआ। इसके बाद बीएचयू को एम्स के समकक्ष दर्जा मिला। यही नहीं अब शहर में दो-दो कैंसर अस्पताल हैं। बिजली के तारों के जाल को अंडरग्राउंड केबलिंग,गंगा ऊर्जा परियोजना के तहत गैस पाइप लाइन के अलावा और भी कई ऐसी परियोजनाएं रही हैं, जिसकी कल्पना करना फिलहाल मुश्किल था। कई दशकों से विकास तो दूर बनारस एक अदद गड्ढामुक्त सडक़ के लिए परेशान था। ऐसे में मोदी का मुकाबला तमाम समीकरणों के बावजूद बहुत चैलेंजिंग होगा।
बनारस का जातिगत समीकरण
वैश्य - 3.25 लाख
ब्राह्मण - 2.50 लाख
मुस्लिम - तीन लाख
भूमिहार - 1.25 लाख
राजपूत - एक लाख
यादव - 1.50 लाख
पटेल - दो लाख
चौरसिया - 80 हजार
दलित - 80 हजार
अन्य पिछड़ी जातियां - 70 हजार