Manipur Violence: मणिपुर की आग को समझना है जरूरी, जानें इससे जुड़े सभी तथ्य, सरकार का अब क्या प्लान?

Manipur Violence: मणिपुर हिंसा हर दिन बढ़ रही है। भारत सरकार द्वारा मणिपुर में हिंसा को रोकने के लिए प्लान है भी या नहीं। इस पर गृहमंत्रालय द्वारा कोई खास गंभीरता नहीं दिख रही है।

Update:2023-06-16 16:48 IST
Manipur Violence (Image: Social Media)

Manipur Violence: देश की राजधानी दिल्ली से 2447 किलोमीटर दूर और लखनऊ से 2000 किलोमीटर दूर है मणिपुर की राजधानी इम्फाल। दिल्ली में चूँकि मणिपुर के बहुत से छात्र पढ़ते हैं तो शायद वहां कुछ इलाकों में मणिपुर को लोग जानते होंगे। लेकिन लखनऊ के बाशिंदों को बहुत कुछ पता नहीं है , न ही यहाँ के लोग कभी मणिपुर गए भी होंगे। लेकिन मणिपुर के बारे में जानना जरूरी है। मणिपुर जिस तरह जल रहा है वैसा अगर हमारे आसपास के राज्यों में होता तो पता नहीं क्या हालात बन जाते। चूँकि बात सुदूर मणिपुर की है सो ये उत्तर-दक्षिण-पश्चिम कहीं भी चिंता या चर्चा का विषय नहीं है।

दरअसल, मणिपुर विभिन्न जनजातीय समुदायों का केंद्र है। इस राज्य को बने 40 साल हो चुके हैं। इन वर्षों में विभिन्न जातीय समुदायों के बीच कई हिंसक संघर्ष देखे गए। लेकिन 3 मई से जो देखा जा रहा है, वह सबसे विनाशकारी है। इसमें सैकड़ों नागरिकों की मौत हुई है। मैतेई और कुकी - दोनों पक्षों की अनगिनत संपत्तियों का नुकसान हुआ है। इस संघर्ष की जड़ में दो प्रमुख चीजें हैं - जमीन का अधिकार और स्थानीय-बाहरी विवाद।

संघर्ष के वास्तविक कारण

- जातीय अशांति का तात्कालिक कारन मैतेई समुदाय को एसटी सूची में शामिल करने की मांग है। लेकिन इस तात्कालिक कारण के अलावा और भी कारण हैं जिनमें राज्य के पहाड़ी क्षेत्रों में आरक्षित और संरक्षित वनों पर स्थानीय लोगों का दावा, और कुकी लोगों में ‘प्रताड़ित’ किये जाने की भावना भी शामिल है।

- चिन समुदाय के बहुत से लोग म्यांमार में हिंसा और उत्पीड़न से भागकर भारत में प्रवेश कर के रह रहे हैं। चिन लोगों को कुकी अपने समुदाय जैसा मानते हैं। इसलिए इन अवैध शरणार्थियों के खिलाफ सरकार के सख्त रुख ने कुकियों को नाराज कर दिया है।

- मणिपुर की पहाड़ियों में आदिवासी समुदायों द्वारा आरक्षित और संरक्षित वन क्षेत्रों के अतिक्रमण के खिलाफ सरकार का सख्त रुख।

- पहाड़ियों में कई एकड़ भूमि का उपयोग अफीम की खेती के लिए किया जा रहा है। सरकार वन क्षेत्रों पर अपनी कार्रवाई को ड्रग्स के खिलाफ एक बड़े युद्ध के हिस्से के रूप में देखती है। लेकिन सभी कुकी लोगों के खिलाफ "ड्रग लॉर्ड्स" जैसे शब्दों का उपयोग भी सही नहीं है।

- मणिपुर में भूमि पर गंभीर दबाव है। जैसे-जैसे आदिवासी गाँवों में आबादी बढ़ती है, वे आसपास के वन क्षेत्रों में फैल जाते हैं, जिसे वे अपना ऐतिहासिक और पैतृक अधिकार मानते हैं। सरकार इसके विरोध में है। साथ ही, घाटियों में रहने वाले मैतेई नाराज हैं । क्योंकि उन्हें पहाड़ी क्षेत्रों में बसने या जमीन खरीदने की अनुमति नहीं है, जबकि आदिवासी लोग घाटियों में जमीन खरीद सकते हैं।

- मणिपुर में अन्य राज्यों से ए लोगों की तादाद बहुत तेजी से बढ़ी है और यह भी असंतोष की वजह है।

कुकी और बहुसंख्यक मैतेई

पूर्व-औपनिवेशिक दिनों से कुकी मैतेई के साथ रहे हैं। लेकिन अब सब बिखर चुका है। दोनों समुदायों के बीच संघर्ष का पूरा मुद्दा ‘जमीन’ पर आधारित है। मैतेई लोगों का तर्क है कि सभी को पहाड़ियों में बसने की अनुमति दी जानी चाहिए, जो वर्तमान में अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित है। लेकिन कुकी अपनी जमीनों और अपनी पहचान बचने के लिए कोई समझौता करना नहीं चाहते। गैर-आदिवासी मैतेयी समुदाय की आबादी मणिपुर में करीब 53 फीसदी है। इस समुदाय के लोग मणिपुर घाटी यानी मैदानी इलाकों में रहते हैं। यह समुदाय लंबे अरसे से अपने लिए अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की मांग कर रहा है।

मैतेयी समुदाय की दलील है कि अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिलने के बाद वे लोग राज्य के पर्वतीय इलाकों में जमीन खरीद सकेंगे। अभी तक ऐसा करने पर रोक है। मैतेई लोग मणिपुर के मैदानी इलाकों में तो जमीन खरीद सकते हैं। लेकिन पर्वतीय इलाकों में जमीन खरीदने का उनको अधिकार नहीं है। मौजूदा कानून के अनुसार, मैतेई समुदाय को राज्य के पहाड़ी इलाकों में बसने की इजाजत नहीं है। इस समुदाय का कहना है कि अनुसूचित जनजाति का दर्जा नहीं होने के कारण पड़ोसी म्यांमार और बांग्लादेश से आने वाले लोगों की लगातार बढ़ती तादाद उनके वजूद के लिए खतरा बनती जा रही है। उधर आदिवासी समुदाय, यानी मुख्यतः कुकी उनकी इस मांग का विरोध कर रहे हैं। आदिवासी संगठनों का कहना है कि ऐसा होने पर मैतेयी समुदाय उनकी जमीन और संसाधनों पर कब्जा कर लेगा।

आदिवासी समुदाय की चिंता

आदिवासी संगठनों को चिंता है कि अगर मैतेयी समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिल गया तो सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों से आदिवासियों को वंचित होना पड़ेगा। आरक्षण का तमाम लाभ मैतेयी समुदाय को ही मिल जाएगा। राज्य की कुल आबादी में 40 फीसदी आदिवासी हैं। इनमें नागा और कुकी समुदाय भी शामिल हैं। मैतेयी तबके की आबादी को ध्यान में रखते हुए ही वे उसे यह दर्जा देने का विरोध कर रहे हैं। इसके अलावा राज्य में आदिवासी समुदाय के लोग कथित वन क्षेत्र से आदिवासियों को उजाड़ने, आरक्षित वनक्षेत्र, संरक्षित जंगल और वन्यजीव अभयारण्यों के सर्वेक्षण के खिलाफ पहले से ही आंदोलन कर रहे हैं।

अलग प्रशासन की मांग

मणिपुर में कुकी सशस्त्र संगठन लंबे अरसे से अलग कुकी राज्य की मांग करते रहे हैं। उनका कहना है अलग हुए बगैर मसला सुलझने वाला नहीं है। केंद्र सरकार वर्ष 2016 से ही उनसे शांति वार्ता कर रही है । लेकिन अब ताजा हिंसा ने अलग राज्य की मांग को नए सिरे से उकसा दिया है। मणिपुर विधानसभा में चीन-कुकी-मिजो-जोमी पहाड़ी आदिवासियों का प्रतिनिधित्व करने वाले 10 निर्वाचित विधायकों ने अपने क्षेत्र के लिए भारत के संविधान के तहत एक अलग प्रशासन की मांग की थी। ताकि सब समुदाय शांतिपूर्वक पड़ोसियों के रूप में रह सकें। विधायकों ने कहा है कि अब चिन-कुकी-मिजो-जोमी वर्तमान मणिपुर राज्य के भीतर नहीं रह सकते।

कहां से शुरू हुआ बवाल

मणिपुर की लगभग 38 लाख की आबादी में से आधे से ज्यादा मैतेयी समुदाय के लोग हैं। ये समुदाय अपने लिए अनुसूचित जनजाति का दर्जा मांग रहा है। मैतेयी समुदाय के लोगों का तर्क है कि 1949 में भारतीय संघ में विलय से पूर्व उनको अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्राप्त था। अपनी मांग के समर्थन में मैतेयी संगठन ने हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की थी। मणिपुर हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को मैतेयी समुदाय की मांग पर विचार करने और चार सप्ताह के भीतर केंद्र को अपनी सिफारिशें भेजने का निर्देश दिया था। इसके विरोध में तीन मई को आदिवासी संगठनों ने मैतेयी समुदाय की मांग के विरोध में अखिल आदिवासी छात्र संघ मणिपुर के बैनर तले राज्य के सभी 10 पर्वतीय जिलों में आदिवासी एकता रैली का आयोजन किया था। तभी से हिंसा शुरू हुई और आज तक मणिपुर जल रहा है।

मणिपुर की भौगोलिक स्थिति

मणिपुर ख्यतः दो भागों में बंटा है - पर्वतीय और मैदानी इलाका। पर्वतीय इलाका आदिवासी बहुल है। राज्य के नौ में से पांच जिले इसी इलाके में हैं। पहाड़ों के आदिवासी लोग सदियों से वहां की जमीन पर अपना दावा करते रहे हैं। उनका दावा है कि इस जमीन का मालिकाना हक उनके पूर्वजों के पास था। इसमें वन क्षेत्र भी शामिल है। राज्य के आदिवासी तबके में जमीन पर पीढ़ी दर पीढ़ी मालिकाना हक की परंपरा बहुत पुरानी है। ऐसे में इस जमीन पर सरकारी हस्तक्षेप का हमेशा विरोध होता रहा है। दलील दी जाती है कि भारत के संविधान में भी आदिवासियों के हक को मान्यता दी गई है।

संसद ने वर्ष 2006 में ‘द शेड्यूल ट्राइब्स एंड अदर ट्रेडिशनल फारेस्ट ड्वेलर्स (रीग्नीशन ऑफ़ फारेस्ट राइट्स)’ एक्ट पारित किया था। इसका मकसद खासकर वन क्षेत्र में स्थित जमीन का मालिकाना हक तय करना था। लेकिन व्यावहारिक समस्या यह थी कि आदिवासी लोग भले ही सदियों से उन इलाको में रह रहे थे। लेकिन उनका नाम सरकारी रिकार्ड में दर्ज नहीं हो सका था। इसी वजह से मणिपुर में यह अधिनियम आदिवासी संगठनों के विरोध के कारण कभी लागू नहीं किया जा सका। अब जब-जब इसके तहत सर्वेक्षण की बात उठती है, आदिवासी संगठन इसके विरोध में सड़कों पर उतर जाते हैं।

यही वजह है कि राज्य में वन क्षेत्र की जमीन का मालिकाना हक तय नहीं हो सका है। इंडीजीनस ट्राइबल लीडर्स फोरम (आईएलटीएफ) का दावा है कि सरकार ने हाल में रिजर्व फॉरेस्ट इलाके में रहने वाले किसानों और आदिवासियों को वहां से उजाड़ने का अभियान शुरू किया है। बार-बार ज्ञापन देने के बावजूद सरकार की तरफ से स्थानीय लोगों की समस्याओं पर ध्यान नहीं दिया है। इंडीजीनस ट्राइबल में मुख्यतः कुकी लोग हैं।

स्थानीय और बाहरी का विवाद

मणिपुर में स्थानीय और बाहरी का विवाद भी दशकों से है। वैसे, यह विवाद पूर्वोत्तर के लगभग सभी राज्यों में बना हुआ है। पूर्वोत्तर के तीन राज्यों - अरुणाचल, नगालैंड और मिजोरम में पहले से ही इनर लाइन परमिट प्रणाली लागू थी। केंद्र सरकार ने दिसंबर, 2019 में मणिपुर में भी इस प्रणाली को लागू कर दिया था। इस परमिट के बिना बाहर का कोई व्यक्ति इन राज्यों में नहीं प्रवेश कर सकता है। इसके अलावा लोग परमिट में लिखी अवधि तक ही वहां रुक सकते हैं। मणिपुर सरकार ने इनर लाइन परमिट (आईएलपी) प्रणाली लागू करने के लिए मूल निवासी तय करने की खातिर साल 1961 को आधार वर्ष मानने का फैसला किया था। लेकिन तमाम संगठन लंबे अरसे से 1951 को कटऑफ साल तय करने की मांग करते रहे हैं।

मणिपुर की जॉइंट कमिटी ऑन इनर लाइन परमिट सिस्टम (जेसीआईएलपीएस) ने कहा है कि उसे सरकार का यह फैसला स्वीकार नहीं है। मणिपुर के तमाम संगठनों का दावा है कि राज्य में बाहरी लोगों की आबादी लगातार बढ़ रही है। हालत यह है कि घाटी में रहने वाले मैतेई समुदाय की आबादी जहां 7.51 लाख है, वहीं बाहरी लोगों की तादाद 7.04 लाख तक पहुंच गई है। इससे मैतेई समुदाय का अपना वजूद खतरे में नजर आ रहा है। संयुक्त समिति के संयोजक कोन्साम कहते हैं - राज्य में पुरानी आईएलपी प्रणाली वर्ष 1950 में खत्म हो गई थी।

वर्ष 1950 से 1961 के बीच करीब दस लाख अवैध प्रवासी राज्य में आकर बस गए। आईएलपी पर बनी संयुक्त समिति ने साल 2011 की जनगणना की रिपोर्ट के बाद बाहरी लोगों की आमद बढ़ने के खिलाफ अभियान शुरू किया था। उस रिपोर्ट में कहा गया कि जनगणना में वृद्धि का राष्ट्रीय औसत जहां 17.64 फीसदी है, वहीं मणिपुर में इसकी दर 18.65 फीसदी है। समिति ने आरोप लगाया कि बाहरी लोगों के आने पर कोई रोक न होने के कारण ही जनसंख्या तेजी से बढ़ी है। साल 2015 में समिति के विरोध प्रदर्शन के दौरान हुई पुलिसिया कार्रवाई में 17 साल के एक छात्र की मौत हो गई थी। फिर जून 2016 में भी राज्य इस मुद्दे पर लंबे समय तक अशांत रहा था।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

मणिपुर कभी स्वतंत्र रियासत हुआ करता था, जिसे ब्रिटिश शासनकाल में अंग्रेजों ने 1891 में अपने अधिकार में ले लिया था। 1947 में जब अंग्रेज भारत छोड़ कर गए तो मणिपुर के तत्कालीन राजा ने इसे एक देश के रूप में आजाद मान लिया था। इससे पहले 1941 में बोधचंद्र सिंह मणिपुर के शासक बने, जिन्होंने नई सरकार के संविधान का मसौदा तैयार करने के लिए एक समिति गठित की। 1947 में यह काम पूरा हुआ और जून 1948 में मणिपुर में पहला चुनाव हुआ। एमके प्रियोबर्ता मणिपुर के पहले मुख्यमंत्री चुने गए और एक असेम्बली का गठन किया गया। इस बीच महाराजा को शिलांग में भारत सरकार के प्रतिनिधियों से मिलने के लिए कहा गया। कुछ दिनों की बातचीत के बाद 21 सितंबर, 1949 को मणिपुर के भारत में विलय होने संबंधी दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए गए।

1972 में मणिपुर को पूर्ण राज्य का दर्जा मिला। यहां राजाओं के शासनकाल के दौरान इनर लाइन परमिट जैसी एक प्रणाली लागू थी, जिसके तहत कोई बाहरी व्यक्ति राज्य में न तो स्थायी नागरिक बन सकता था और न यहां जमीन या कोई दूसरी संपत्ति खरीद सकता था। लेकिन देश में विलय के बाद केंद्र ने वह प्रणाली खत्म कर दी थी। उसके बाद अस्सी के दशक से ही समय-समय पर वही प्रणाली लागू करने की मांग उठती रही है। आईएलपी की मांग में पहला बड़ा आंदोलन वर्ष 1980 में छात्रों ने शुरू किया था। उस साल अप्रैल में पुलिस फायरिंग में दो छात्रों की मौत हो गई थी। तब से हर साल अप्रैल में विरोध-प्रदर्शन होते रहते थे।

मणिपुर को राज्य का दर्जा मिलने के बाद से, इसके 20 मुख्यमंत्रियों में से दो को छोड़कर सभी मैतेयी समुदाय से रहे हैं। बाकी दो तांगखुल नागा समुदाय के रहे हैं। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार मणिपुर की जनसंख्या 28 लाख है। इनमें से 15 लाख मैतेई हैं, जबकि कुकी की तादाद लगभग आठ लाख है।

धार्मिक स्थिति

मणिपुर में हिंदू और ईसाई प्रमुख प्रचलित धर्म हैं। 1961 और 2011 की भारत की जनगणना के बीच, राज्य में हिंदुओं की हिस्सेदारी 62 फीसदी से घटकर 41 फीसदी हो गई, जबकि ईसाइयों की हिस्सेदारी 19 फीसदी से बढ़कर 41 फीसदी हो गई। मैतेई बोलने वाले लोगों के धार्मिक समूहों में हिंदू, सनमाहिस्ट, मैतेई ईसाई और मैतेई पंगल शामिल हैं। इनके अलावा, गैर मैतेई-भाषी समुदाय (आदिवासी समुदाय) ज्यादातर ईसाई हैं।

मणिपुर में हिंदू धर्म का पालन करने वाला बहुसंख्यक समूह मैतेई है। मणिपुर के स्वदेशी समुदायों में मैतेई एकमात्र हिंदू हैं क्योंकि कोई अन्य स्वदेशी जातीय समूह इस धर्म के अनुयायी नहीं हैं। हिंदू आबादी मणिपुर घाटी के मैतेई बहुल क्षेत्रों में, मेइती लोगों के बीच केंद्रित है। 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार बिष्णुपुर, थौबल, इंफाल पूर्व और इंफाल पश्चिम के सभी जिलों में हिंदू बहुमत है। वैष्णव हिंदू धर्म मणिपुर साम्राज्य का राजकीय धर्म था। 1704 में, मैतेई राजा चरैरोंगबा ने वैष्णववाद को स्वीकार कर लिया। अपने पारंपरिक मैतेई नाम को हिंदू नाम पीतांबर सिंह में बदल दिया। हालाँकि, पहले हिंदू मंदिरों का निर्माण बहुत पहले किया गया था।

मणिपुर के आदिवासियों के बीच ईसाई धर्म प्रमुख धर्म है। मणिपुर में ईसाई आबादी का विशाल बहुमत (96 फीसदी से अधिक) आदिवासी ईसाई हैं। राज्य में 41 फीसदी लोग ईसाई धर्म के अनुयायी हैं। लेकिन 53 फीसदी के साथ ग्रामीण क्षेत्रों में बहुमत है और पहाड़ियों में प्रमुख रूप से प्रचलित है। इसे 19वीं शताब्दी में प्रोटेस्टेंट मिशनरियों द्वारा ईसाई धर्म मणिपुर लाया गया था।

मैतेई समुदाय में पंगल लोग मुस्लिम या मणिपुरी मुस्लिम के रूप में जाने जाते हैं। यह राज्य में तीसरा सबसे बड़ा धार्मिक बहुसंख्यक समूह है। 2011 की जनगणना के अनुसार मुस्लिम लोग राज्य की आबादी का लगभग 8.3 फीसदी हैं। वे सुन्नी समूह से संबंधित हैं।

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