महागठबंधन में रार, सत्ताधारी राजग में चोरी-छिपे वार

Update:2019-03-15 13:44 IST
भाजपा ने 'बड़े भाई' पर छोड़ा 'कुश' मैनेजमेंट

शिशिर कुमार सिन्हा

पटना: विपक्ष कभी नहीं चाहता था लेकिन चुनाव आते-आते उसके सारे मुद्दे बिहार में गौण हो गए हैं। एक ही मुद्दा है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। जब विपक्ष के पास यही मुद्दा है तो सत्ताधारी राजग भी खुद को इसी पर केंद्रित कर रहा है। वह पिछली बार की तरह नरेंद्र मोदी के नाम पर ही वोट के लिए उतर रहा है। ‘फिर एक बार मोदी सरकार’ और ‘काम करे जो, उम्मीद उसी से हो’- यह दो स्लोगन विपक्ष की आंखों में गड़ रहे हैं और घूमते-फिरते विपक्ष भी नरेंद्र मोदी हटाओ अभियान के तहत चुनाव में उतर रहा है। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) के ठेठ बिहारी रूप महागठबंधन के पास एक ही नारा है - ‘नरेंद्र मोदी हटाओ, देश बचाओ।’ जाहिर है, जब चुनाव नरेंद्र मोदी को दोबारा लाने या हटाने के मुद्दे पर हो रहा है तो प्रत्याशियों को समझाने के लिए भी राजग और महागठबंधन में यही रामबाण भी है। एक-एक लोकसभा क्षेत्र से हर पार्टी के पास पांच-पांच मजबूत दावेदार हैं। हरेक का दावा अपने आप में सबसे आगे है। इन दावों के बीच जिन्हें चुनाव के लिए सिम्बल मिलना है, उन्हें छोडक़र सभी को यही घुट्टी पिलाई जा रही है कि नरेंद्र मोदी को जिताने के लिए फलां को टिकट देना होगा या हराने के लिए इससे बेहतर विकल्प कोई नहीं।

सीटों का सबसे ज्यादा नुकसान भाजपा को, परेशानी भी यहीं

जदयू ने पिछले लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी को हराने का प्रण लिया था और उसे महज नालंदा और पूर्णिया के सांसद से संतोष करना पड़ा था। इस बार प्रण बदला हुआ है और नरेद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए उसे चुना लडऩे के लिए 17 सीटें मिल रही हैं। बिहार की 40 सीटों में राजग के अंदर इस तरह बंटवारा हुआ है कि 17-17 सीटें भाजपा-जदयू के पास हैं और छह पर लोजपा को लडऩा है। इस बार लोजपा को मिली हैं हाजीपुर, जमुई, समस्तीपुर, खगडिय़ा, वैशाली और नवादा। असल संकट जदयू और भाजपा के बीच समन्वय को लेकर है। भाजपा ने पिछली बार 30 सीटों पर किस्मत आजमाई थी और उसके 22 सांसद बने थे। इस बार उसे महज 17 सीटों पर उम्मीदवार उतारना है। इसके कारण सीधा और बड़ा नुकसान भाजपा ही झेल रही है। जदयू को 17 सीटें देने के लिए उसे अपनी पांच जीतीं सीटें तो वैसे ही खाली करनी पड़ रही हैं। इसके अलावा भी दो-तीन जीतीं सीटों पर जदयू का दावा है। ऐसे में उसे हारी हुई तीन सीटों पर चुनाव में उतरना पड़े तो आश्चर्य नहीं होगा।

जदयू ने भाजपा की आठ जीतीं सीटों - पाटलिपुत्र, दरभंगा, झंझारपुर, वाल्मीकिनगर, गोपालगंज, औरंगाबाद और बक्सर पर दावा कर रखा है। इनमें पाटलिपुत्र के सांसद रामकृपाल यादव और बक्सर के सांसद अश्विनी चौबे केंद्र में मंत्री हैं। भाजपा केंद्रीय मंत्रियों की सीटों पर शायद ही समझौता करे लेकिन अब तक की स्थितियां बता रही हैं कि इनमें से एक सीट तो जदयू लेकर ही मानेगा। दरभंगा सीट छोडऩे में भाजपा को ज्यादा परेशानी नहीं है, क्योंकि यहां से उसके सांसद कीर्ति झा आजाद बगावत के साथ महागठबंधन में जा चुके हैं। अन्य सीटों पर उसे सांसदों का टिकट काटने में कैडर मैनेजमेंट की भी परेशानी झेलनी पड़ सकती है।

पहले तो भोला सिंह के निधन से खाली हुई बेगूसराय सीट पर भी जदयू की नजर थी लेकिन भाजपा ने उसे लगभग अपने लिए सुरक्षित कर लिया है। जदयू के खाते में जाने से जिन सांसदों को शिफ्ट करना है, उनमें किसी भूमिहार प्रत्याशी को बेगूसराय देकर आसानी से मैनेज किया जा सकता है। भाजपा ने पटना साहिब सीट को अपने लिए सुरक्षित रखा है, क्योंकि यहां भाजपाई सोच के वोटर सबसे ज्यादा मार्जिन देते रहे हैं। शत्रुघ्न सिन्हा की बगावत के बावजूद उसे यह सीट पक्की लग रही है। इसके अलावा नवादा की सीट भाजपा के खाते से लोजपा को जा रही है। ऐसे में यहां से भाजपा के सांसद केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह के समर्थकों को मैनेज करना भी पार्टी के लिए चुनौती ही है।

जदयू के अंदर सबसे ज्यादा नेता, मौका भी यहीं

२014 के लोकसभा चुनाव में जदयू जिस तरह चौपट हालत में पहुंची थी, इस बार उसके लिए रिकवरी का बड़ा ऑप्शन है। सीटें भी 17 मिल रही हैं। जदयू इन सभी पर मजबूत दावेदार उतारना चाह रही है। पार्टी के पास संसद जाने की चाहत रखने वाले कद्दावर नेताओं की ठीकठाक भी संख्या है। इसके अलावा कई युवा नेता भी पिछले दो-तीन वर्षों में उभरे हैं। पार्टी को सिर्फ यह तय करना है कि उसे किन युवाओं पर भरोसा करना है और किन पुराने धुरंधरों पर फिर से बाजी लगानी है। जदयू ने भाजपा से पाटलिपुत्र और पटना साहिब में से एक सीट देने को कहा था।

पटना साहिब के लिए पहले ही मना हो गया था, अब पाटलिपुत्र भी मना होता ही दिख रहा है। पाटलिपुत्र से राजद के सिम्बल पर लालू प्रसाद की बेटी मीसा भारती एक बार फिर भाग्य आजमाने जा रही हैं। ऐसे में रामकृपाल से मजबूत विकल्प जदयू के पास भी नहीं है। जदयू के लिए पद्मश्री डॉ. गोपाल प्रसाद सिन्हा पटना साहिब और पाटलिपुत्र, दोनों का विकल्प देख रहे थे लेकिन अब उनकी संभावना शून्य के करीब पहुंच गई हैं। एक तरह से मीसा भारती के कारण रामकृपाल यादव या भाजपा से यह सीट जदयू नहीं छीन सका। शेष जगहों पर जदयू की मांग भी भाजपा को समझ में आई और एक तरह से वहां के प्रत्याशियों को लेकर भी जद्दोजदह अंतिम दौर में है।

महागठबंधन की मजबूती नरेंद्र मोदी के विरोध पर निर्भर

कांग्रेस नेता अहमद पटेल के यहां हुई बैठक के नतीजों से अलग बिहार में सरजमीं पर महागठबंधन की हालत ऐसी है कि गठबंधन के बावजूद एकता नहीं है। उधर दिल्ली में कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल, राष्ट्रीय लोक समता पार्टी, हिन्दुस्तानी आवामी मोर्चा (हम) सेक्युलर और विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) के नेता दिल्ली में सीट शेयरिंग पर बैठक कर रहे थे और इधर पुराने दिग्गज कांग्रेसी पटना में यह कहते नहीं थक रहे थे कि उत्तर प्रदेश की तरह अगर बिहार में भी कांग्रेस को अलग लडऩा पडऩा पड़ा तो उसके पास ताकत की कमी नहीं है। सीट शेयरिंग के फॉर्मूले पर चारा घोटाले में सजायाफ्ता राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद की अंतिम मुहर की बात पर कांग्रेस के ज्यादातर नेता इसी तरह उखड़ा सा जवाब दे रहे हैं।

यानी, महागठबंधन के अंदर सब कुछ सामान्य नहीं है। हम पार्टी के नेता जीतन राम मांझी ने दिल्ली जाने से पहले यह दावा फिर दुहरा दिया था कि वह राजद और कांग्रेस के बाद महागठबंधन के सबसे बड़े दल हैं। यानी, हम भी खुद को कमजोर नहीं बता रहा। यह संदेश नीचे तक है। ऐसे में सीट शेयरिंग की औपचारिकता के बावजूद महागठबंधन के लिए बिहार में एकता बनाए रखना टेढ़ी खीर ही है। ऐसे में महागठबंधन के बड़े नेता, खासकर राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद के बेटे तेजस्वी यादव बार-बार ‘नरेंद्र मोदी हराओ’ की मुहिम का हवाला देकर सभी को एकजुट रहने का मंत्र दुहराते रहेंगे, यह भी तय है। उनके इस सुर में सुर तो अन्य दलों के नेता भी मिलाएंगे, लेकिन महागठबंधन में एक पार्टी के संभावित प्रत्याशी दूसरी पार्टी के पास टिकट जाने पर इस सुर की धारा में बह सकेंगे, इसकी उम्मीद बहुत कम दिख रही है। अंदर ही अंदर महागठबंधन के दलों में इतनी रार है कि नरेंद्र मोदी को हराने की मुहिम टिकट बंटवारे के बाद मजबूत होने की जगह कमजोर हो तो आश्चर्य नहीं होगा।

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