अपना भारत/न्यूज़ट्रैक Exclusive: अखाड़ा बिहार का, चित हुए कई राज्यों के पहलवान

Update:2017-07-28 15:51 IST

योगेश मिश्र

बिहार का मैदान मार कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दो मोर्चों पर विजयगाथा लिखी है। पहला, उन्होंने देश से धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता के नाम पर चल रही छद्म लड़ाई का अंत कर दिया है। दूसरा, उन्होंने अगले चुनाव का एजेंडा सेट कर दिया है।

2019 का चुनाव नरेंद्र मोदी भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग की तरह लड़ेंगे। मोदी के खिलाफ गठबंधन में जो चेहरे होंगे उनमें एकाध को छोडक़र कोई ऐसा नहीं होगा जिसके पीछे कोई न कोई केंद्रीय एजेंसी की जांच चूहा बिल्ली का खेल न खेल रही हो।

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नीतीश कुमार इकलौते ऐसे राजनीतिक शख्स थे जो मोदी विरोधी खेमे में भ्रष्टाचार के लड़ाई को आइना दिखा सकते थे, पलीता लगा सकते थे। मोदी विरोधी मोर्चे में लालू प्रसाद यादव, ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, मायावती, अरविंद केजरीवाल, करुणानिधि जैसे नाम हैं। ये सारे नेता अपने कारनामों के चलते किसी न किसी तरह की जांच की जद में हैं। कांग्रेस, जो इन नेताओं की संरक्षक है उसके भी तमाम नेता अलग-अलग मामलों में जनता के कटघरे में जांच का जवाब देते समय असमय नजर आते हैं।

सिर्फ ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक अपवाद हैं पर पटनायक बीजेपी के साथ रह चुके हैं इसलिए किसी भी लडाई में उतने हमलावर नहीं हो सकते हैं। जिस तरह लालू प्रसाद यादव का पूरा का पूरा परिवार प्रवर्तन निदेशालय तथा सीबीआई की जांच की जद में है उससे इस लड़ाई की अगुवाई करने पर ही आने वाले कुछ दिनों में बड़ी गाज गिर जाये तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

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लालू की बेटी मीसा, चंदा, तेजस्वी यादव और तेजप्रताप यादव सब के सब लालू के कारनामों के शिकार हो गये हैं। पटना के राजनीतिक ड्रामे ने अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा के शानदार प्रदर्शन का मार्ग प्रशस्त किया है। इससे मोदी के विरोध में महागठबंधन बनाने की कोशिशों को भी पलीता लगा है। नीतीश बिहार में गैर-यादव, पिछड़े और गरीब वर्ग के लोकप्रिय नेता हैं। दलित को राष्ट्रपति बनाकर मोदी इन सभी वर्गों में अपनी जगह बढ़ा चुके हैं।

गैर-यादव पिछड़ा गठबंधन का फायदा उत्तर प्रदेश में मिलने की उम्मीद की जानी चाहिए। 325 विधायकों बड़ा स्कोर मोदी इस फार्मूले में अगड़ों को जोडक़र हासिल करने में विधानसभा में कामयाब हुए हैं। बिहार में माई (मुस्लिम-यादव) फेल होने की प्रतिध्वनि उत्तर प्रदेश में भी सुनी जा सकेगी। पटना में गठबंधन का टूटना उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा-कांग्रेस के किसी भावी गठबंधन पर सवाल उठाता है क्योंकि इन दलों में भी खासा अंतरविरोध और विरोधाभास है। केरबेर के रिश्ते हैं। सपा और बसपा का शीर्ष नेतृत्व भी जांच की जद में है।

मोदी साथ-साथ और सतर्क-सतर्क चलने वाले नेता हैं। तभी तो एकतरफ वह रामगोपाल यादव के राजनीतिक जीवन के 25 वर्ष के कार्यक्रम में शिरकत करते हैं तो दूसरी तरफ उनकी पार्टी के मुख्यमंत्री उत्तर प्रदेश में सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव के खिलाफ और भर्ती घोटालों की सीबीआई जांच की अनुशंसा कर देते हैं।

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बिहार और उत्तर प्रदेश से 120 सांसद लोकसभा जाते हैं इसमें से पिछली बार 104 यहीं से गये थे और इन्हीं दोनों राज्यों ने मोदी सरकार के बैसाखी की संभावनाओं को खत्म कर दिया था। इन्हीं दोनों राज्यों के पास अगले लोकसभा की राजनीतिक संघर्ष की कुंजी है।

कहा जाता है, कि उत्तर प्रदेश से प्रधानमंत्री की कुर्सी का रास्ता होकर जाता है। पिछले लोकसभा चुनाव में 73 लोकसभा और उसके हिसाब से 343 विधानसभा सीटों पर बढ़त दर्ज कराई थी तकरीबन ढाई साल बाद हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 325 सीटें जीतने का कीर्तिमान बनाया वह भी तब जबकि जनता यह जानती थी कि यहां की कुर्सी पर मोदी का कोई नुमाइंदा बैठेगा, मोदी नहीं।

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जांच एजेंसियों की सक्रियता ने उत्तर प्रदेश के नेताओ की दिक्कतें बढ़ाई हैं। ऐसे में जब मोदी विरोध के स्वर भ्रष्टाचार की आंच में तप कर कुंद हो रहे हों तब हिंदी बेल्ट मेें लोकसभा चुनाव का इतिहास दोहराया जाएगा इस पर आशंका फिलहाल व्यक्त करना बेमानी लगता है।

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