लखनऊ: 90 के दशक में यूपी में पुलिस में होने वाली भर्तियों में योग्यता नहीं बल्कि पैसे का बोलबाला था। उस वक्त यह पैसा सीधे सीएम तक पहुंचता था। पैसा मिलने के बाद सीएम खुद लिस्ट फाइनल करते थे। पैसा सिर्फ पुलिस भर्ती में ही नहीं बल्कि अफसरों की ट्रांसफर-पोस्टिंग में भी लिया जाता था। पैसे के हिसाब से मनचाहे क्षेत्र में तैनाती मिलती थी। यह बातें जुलाई 2000-01 तक यूपी के डीजीपी रहे महेश चंद्र दि्वेदी ने कही।
क्रिमिनल सोच वालों की तादात बढ़ी
newztrack.com से बात-चीत में उन्होंने कहा, पैसे के खुले खेल के चलते ही पुलिस में बहुत से क्रिमिनल सोच वाले लोग आ गए हैं। पुलिस में पैसे देकर आने वाले लोगों ने ज्वाइन करने के साथ ही पैसा कमाने को अपना लक्ष्य बना लिया जिससे पुलिस की छवि बदनाम होती चली गई। उन्होंने कहा कि जैसे-जैसे रीजनल पार्टियों का जनाधार मजबूत होता गया वैसे-वैसे हर जगह निचले स्तर तक करप्शन फैलता गया।
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इन पर साधा निशाना
हालांकि पूर्व डीजीपी ने अपने आरोपों में नाम तो नहीं बताए लेकिन तथ्यों को कालखंड में बांटा। newztrack.com बताने जा रहा है 90 के दशक में कौन-कौन सीएम हुए। अब पाठक खुद तय कर ले कि उनका इशारा किस ओर है।
-05 दिसंबर1989 में 19 महीने के लिए मुलायम सिंह यादव पहली बार सीएम बने।
-24 जून 1991 से बीजेपी के कल्याण सिंह 17 महीने तक सीएम रहे।
-06 दिसंबर 1992 से एक साल तक यूपी में राष्ट्रपति शासन रहा।
-04 दिसंबर 1993 से समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह 18 महीने के लिए फिर सीएम बने।
-03 जून 1995 को बसपा सुप्रीमो 4 महीने 15 दिन के लिए सीएम बनीं।
-18 अक्टूबर 1995 से 18 महीने तक राष्ट्रपति शासन रहा।
-21 मार्च 1997 से 6 महीने के लिए मायावती फिर सीएम बनीं।
-21 सितंबर 1997 को 2 साल 2 महीने के लिए कल्याण सिंह, रामप्रकाश गुप्ता और राजनाथ सिंह सीएम रहे।
-03 मई 2002 को मायवती एक साल 7 महीने के लिए एक बार फिर सीएम बनीं।
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जूनियर ऑफिसर को बनाते थे डीजीपी
पूर्व डीजीपी एमसी द्विवेदी ने बताया कि पहले भी डीजीपी बनाने में अपने लोगों को प्राथमिकता दी जाती थी। लेकिन सीनियर ऑफिसर को केंद्र में भेज दिया जाता था। हाल के दिनों में 10-12 अधिकारियों की वरिष्ठता को दरकिनार कर डीजीपी बनाए जा रहे हैं। उन्होंने अपने बारे में बताया कि चार बार उन्हें भी अनदेखा कर जूनियर को प्रमोट किया गया था। तब लोग अपने आदमी को प्रमोट करते वक़्त यह जरूर देखते थे कि वह अनफिट या करप्ट नहीं है। अब ऐसा नहीं है।
अब सही-गलत मायने नहीं रखता
एमसी द्विवेदी ने कहा, 'पहले के नेताओं को जब बता दिया जाता था कि आप जिसकी पैरवी कर रहे हैं वह गलत है तो नेता उसकी पैरवी करना बंद कर देते थे। लेकिन 90 के दशक के बाद ये चीजें ख़त्म हो गईं। उन्हें अपनी बात से मतलब था सही गलत से नहीं।' उन्होंने कहा कि हालांकि, पहले सीएम और मंत्री स्तर के लोग अधिकारियों की इज्जत देते थे। जो अब नहीं दिखता।
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अब सिर्फ सीएम और मंत्रियों की चलती है
पूर्व डीजीपी ने कहा कि ट्रांसफर-पोस्टिंग में अब पूरी तरह से राजनीतिक दबाव होता है और सीएम और मंत्रियों की ही चलती है। खासकर हायर लेवल पर राजनीतिज्ञों का ज्यादा हस्तक्षेप होता है। दूसरी ओर, अधिकारियों को आए दिन सीएम मंत्रियों से काम पड़ता रहता है, इसलिए उनसे लड़ भी नहीं सकते हैं।
इन्क्वॉयरी सिर्फ लीपापोती के लिए होती है
-द्विवेदी ने बताया कि इन्क्वॉयरी सिर्फ मामले की लीपापोती के लिए होती है। जिसे भी बचाना होता है उसके खिलाफ इन्क्वॉयरी बैठा दी जाती है। रिपोर्ट लंबे समय बाद आती है तब तक स्थिति बदल चुकी होती है। अगर सरकार का उद्देश्य सच सामने लाना हो तो वह एफ़आईआर दर्ज करवाए।क्योंकि इन्क्वायरी के बाद भी एफआईआर करानी पड़ेगी, फिर पुलिस अपनी इन्क्वॉयरी करेगी। इसमें ही कई साल लग जाते हैं और मामले में लीपापोती हो जाती है।
एमसी द्विवेदी ने अब तक एक दर्जनभर किताबें लिख चुके हैं। जिनमें 3 उपन्यास, 3 कहानी संग्रह, 3 व्यंग्य संग्रह, 2 कविता संग्रह, 2 संस्मरण और हाल ही में एक एक बुक 'इंटरेस्टिंग एक्सपोजर और एडमिनिस्ट्रेशन' लिखी है। जिसमें उन्होंने ये सभी आरोप लगाए हैं।