Motivational Story: जीवन बदल देगी ये कहानी, जरूर पढ़ें समय निकालकर

Motivational Story: शरीर का आराम, भोग, स्वाद, मान, बड़ाई – इनको आप बेचेंगे तो इनका पाँच पैसा भी नहीं मिलेगा । फिर आप मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा में समय खर्च करते हैं, यह सरासर मूर्खता है ।

Update:2023-08-08 20:21 IST
Motivational Story (PHOTO: SOCIAL MEDIA)

Motivational Story in Hindi: हर एक भाई को यह विचार करना चाहिये कि अपना समय किस काम में बीत रहा है । कोई भी विचार करेगा तो पता चलेगा कि उसका समय उसके ध्येय के अनुसार नहीं बीतता है, उसका सुधार करना चाहिये, अग्रसर होना चाहिये । मनुष्य अपना ध्येय अच्छा बनाता है, किन्तु ध्येय के अनुसार चल नहीं पाता, काम में नहीं लाता। हर एक भाई सोचता है कि परमात्मा का ध्यान निरन्तर करना चाहिये, फिर भी हम उसके अनुसार अपना समय नहीं बिताते हैं। आप अपना सुधार क्यों नहीं करते हैं ? बात यही है कि आपके गहरी लगन नहीं है। आप इस ओर ध्यान देंगे कि मेरा समय बर्बाद हो रहा है तो आपके जागृति होगी। आप विचार नहीं करेंगे तो आपको पश्चाताप करना पड़ेगा।

शरीर का आराम, भोग, स्वाद, मान, बड़ाई – इनको आप बेचेंगे तो इनका पाँच पैसा भी नहीं मिलेगा । फिर आप मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा में समय खर्च करते हैं, यह सरासर मूर्खता है । इस मूर्खता से आपको बचना चाहिये ।ईश्वर ने आपको ज्ञान, बुद्धि दी है, फिर भी क्या आप मारे-मारे फिरेंगे ? मनुष्य-जीवन इस तरह नष्ट करने के लिये नहीं है। यदि आप नष्ट करते हैं तो आपकी मूर्खता है।

मनुष्य-शरीर को पाकर जो आराम में समय बिताता है, वह अमृत के बदले में विष लेता है। परमात्मा की प्राप्ति का उपाय अमृत है, क्योंकि परमात्मा अमृत हैं। उसका साधन भी अमृत है। उसे छोड़कर जो विषय-भोगों में मन लगाता है, वह विष ही खाता है। विष खाने से तो तो एक जन्म में ही करता है, विषयरूपी विष खाने से तो जन्मता-मरता ही रहता है। आप गम्भीरता पूर्वक विचार करें तो आपको रोना आयेगा कि क्या ईश्वर ने मनुष्य-शरीर इसीलिए दिया है ।

आपके भीतर जो काम क्रोध, लोभ हैं – ये नरक में ले जायेंगे । भगवान् ने कहा है

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनामात्मन: |

काम: क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत ||

( गीता १६/२१)

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काम, क्रोध तथा लोभ – ये तीन प्रकार के नरक के द्वारा आत्मा का नाश करने वाले अर्थात उसको अधोगति में ले जाने वाले हैं। अतेव इन तीनों का त्याग देना चाहिये।

यदि आप कहें कि इनका त्याग करना हमारे वश की बात नहीं है | यह कहना आप की भूल है | यदि आपके वश के बात नहीं होती तो भगवान् इनका त्याग करने के लिये नहीं कहते | जिन्होंने काम, क्रोध का त्याग कर दिया, वे भगवान् को प्राप्त हो गए –

वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रीयता: |

बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागता: ||

( गीता ४/१० )

पहले भी जिनके राग, भय और क्रोध सर्वथा नष्ट हो गये हैं और जो मुझमें अनन्यप्रेमपूर्वक स्थित रहते हैं, ऐसे मेरे आश्रित रहने वाले बहुत-से भक्त उपर्युक्त ज्ञानरूप तप से पवित्र होकर मेरे स्वरूप को प्राप्त हो चुके हैं |

हजारों प्राप्त हो गए, यदि तुम मानते हो कि हमारे वश की बात नहीं है, तो जिसके वश की बात है, उसके शरण हो जाओ। परमात्मा के वश की बात है, उसकी शरण ग्रहण करो। आप कहें कि हम शरण भी नहीं हो सकते। कुछ तो करना ही होगा। संसार में ऐसी कोई बात नहीं है, जो ईश्वर की शरण होकर नहीं हो सकती। ईश्वर के रहते हुए मनुष्य को निराश होने का कोई कारण नहीं है। प्रभु दयालु हैं , पतितपावन हैं, सर्वशक्तिमान हैं। उनके आगे प्रार्थनापत्र देना चाहिये। मैं तो जोर देकर कह सकता हूँ कि आप प्रार्थनापत्र देंगे तो आपकी सुनवायी होगी। आप प्रार्थनापत्र नहीं देते हैं तो भगवान् समझते हैं कि इसे गरज नहीं है, आवशयकता नहीं है। आवश्यकता होती तो आपके तड़फन हो जाती। किसी को फाँसी की सजा हो जाती है तो कैसी बैचैनी हो जाती। मृत्यु आ रही है, इससे बढ़कर क्या फाँसी होगी ? जब यमराज के दूत आकर कन्ठ पकड़ेंगे, तब तुम्हारा कुछ वश नहीं चलेगा।

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मनुष्य का शरीर भी बार-बार नहीं मिलेगा।तुम इसका दुरूपयोग करते हो, इसका दण्ड भी तुमको दिया जायगा। जैसे तुलसीदास जी ने कहा है –

नर तनु पाई विषयं मन देहीं।

पलटि सुधा ते सठ विष लेहीं॥

इसी प्रकार भगवान् ने कहा है –

ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते |

आद्यनत्वन्त: कौन्तेय न तेषु रमते बुध: ||

( गीता ५/२२ )

जो ये इन्द्रिय तथा विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले सब भोग हैं, यद्यपि विषयी पुरुषों को सुखस्वरूप भासते हैं, तो भी दुःख के ही हेतु हैं, आदि अन्तवाले अर्थात अनित्य हैं। इसलिए हे अर्जुन ! बुद्धिमान विवेकी पुरुष उनमे नहीं रमता।

अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम ||

( गीता ९/३३ )

तू सुख रहित और क्षणभंगुर इस मनुष्य-शरीर को प्राप्त होकर निरन्तर ही भजन कर।

मनुष्य का शरीर सदा रहने का नहीं है। इसलिये जब तक मृत्यु दूर है, तब तक उपाय कर लेना चाहिये और इसमें सुख भी नहीं है। यह शरीर तुमको परमात्मा की प्राप्ति के लिये मिला है। यदि तुम प्रयास नहीं करोगे तो तुम्हें पश्चाताप करना पड़ेगा। परिणाम आपको ही भोगना पड़ेगा, दूसरा नहीं भोगेगा।आपने जब यह बात समझ ली, फिर यह कमी क्यों रहनी चाहिये ? माता-पिता, स्त्री, धन आदि कोई तुम्हारी कोई सहायता नहीं कर सकेगा। करोड़पति, अरबपति मर जाते हैं, उनकी थैलियाँ यहीं पडी रह जाती है। राजा-महाराजा मर जाते हैं, उनकी फौजें रह जाती है।

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फिर तुम किसके भरोसे से निर्भय-से रह रहे हो ? तुम्हारी बड़ी भारी दुर्दशा होने वाली है। यदि तुम प्रयास करोगे तो उस संकट से बच सकोगे। भगवान् ने बताया है :–

मच्चित: सर्वदुर्गाणी मत्प्रसादातरिशयसी |

( गीता १८/५८ )

मुझ में चित वाला होकर तू मेरी कृपा से समस्त संकटों को अनायास ही पार कर जायेगा।

क्या करना चाहिये ? अपने चित को प्रभु में लगा देना चाहिये। यदि चित नहीं लगे तो उसके नाम का जप करे। नाम का जप नहीं हो सके तो उस परमात्मा के लिये व्याकुल होना चाहिये। वह परमात्मा तुम्हारा है। और तो क्या, यह शरीर भी तुम्हारा नहीं है। लाख प्रयत्न करो तो भी तुम इस शरीर में अधिक दिन ठहर नहीं सकते, क्योंकि यह शरीर रुपी कुटिया तुम्हारी नहीं है। जिनकी है, वे इसे खाली करायेंगे। तुम्हारे ऊपर मुकदमा हो गया है। यमराज के दूत आयेंगे, वे इस कुटिया को तुमसे खाली कराकर पाँच भूतों को संभला जायेंगे। पहले से ही तुम इस पर से अपना अधिकार छोड़ दोगे तो तुम्हारी इज्जत रह जायगी। इससे ममत उठा देना ही बुद्धिमानी है।

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तुम्हें परमेश्वर में ममता रखनी चाहिये, क्योंकि तुम उनके अंश हो, जो परमेश्वर के शरण हो जाता है, वह सदा के लिये सुखी हो जाता है :–

वासुदेवाश्रयो मर्त्यो वासुदेवपरायण: |

सर्वपाप विशुद्धात्मा याति ब्रहम सनातनम ||

( विष्णुसहस्रनाम १३० )

मनुष्य भगवान् वासुदेव के आश्रित एवं परायण होकर सारे पापों से विशुद्ध होकर सनातन परमपद को प्राप्त कर लेता है।

उपरोक्त उपदेश भीष्मपितामह ने राजा युधिष्ठिर को सुनाया है।

बड़ा महत्वपूर्ण श्लोक है। भगवान् कहते हैं :–

तमेव शरण गच्छ सर्वभावें भारत।

तत्प्रसादात्परां शान्ति स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतं ॥

( गीता १८/६२ )

उस परमात्मा की सब प्रकार शरण जा। उसकी कृपा से परम शान्ति, अविनाशी पद को प्राप्त हो जायगा। हर एक माता, भाई, बहनों के लिये यह सोचने की बात है कि आपका जीवन नष्ट हो जा रहा है। यदि भगवान् के अतिरिक्त तुम्हारा समय जाता है तो वह मिट्टी में मिलता है । तुम्हारा मन तुमको धोखा दे रहा है, किंतु तुम ध्यान नहीं देते। बार-बार अन्त:करन में यह सवाल पैदा करना चाहिये कि मैं कौन हूँ ? कहाँ स आया हूँ, क्या कर रहा हूँ ? मेरा क्या कर्तव्य है ? विचारने से मालूम होगा कि मैं परमात्मा का अंश हूँ। भगवान् स्वयं कहते हैं :–

ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:।

मन:षष्ठानीन्द्रियानि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥

( गीता १५/७ )

इस देह में यह सनातन जीवात्मा मेरा हे अंश है और वही इस प्रकृति में स्थित मन और पाँचों इन्द्रियों का आकर्षण करता है।

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यही बात तुलसीदास जी कहते हैं –

ईस्वर अंस जीव अबिनासी।

चेतन अमल सहज सुखरासी ॥

दुःख की बात है कि आनन्द की राशी होते हुए भी दुःख की राशी बना हुआ है। उबलते हुए तेल में जैसे बड़ा पसीजता है, इस तरह पसीज रहा है, क्योंकि हम दूसरों की चीज हड़प रहे हैं। शरीर पाँच भूतों का है। इससे प्रेम करोगे तो सुख होने का नहीं है आप जिसे सुख समझते हैं, वह सुख नहीं है। दुःख ही आपकी मूर्खता के कारण सुख के रूप में आपको भास् हो रहा है। सांसारिक सुख क्षणिक हैं । आपको परमात्मा की खोज करनी चाहिये। वह परमात्मा सुखरूप है, आनन्दरूप है। आप उसे बाहर खोजते हैं, वह बाहर कहाँ है। तुम्हारे अन्त;करण में ही उपस्थित है। मृग चारों ओर कस्तूरी की गंध ढूँढता है; गंध तो उसकी नाभि के अन्दर है।

सूरदासजी कहते हैं – भीतर में जब धन गड़ा है तो बाहर क्यों मिलेगा ? भगवान् तो आपके भीतर हैं। उन्हें हम वन में, पहाड़ों में, तीर्थों में ढूंढेंगे तो कहाँ मिलेंगे ? भगवान् कहते हैं-

सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत: स्मृतिर्ज्ञानमपोहन च।

वेदैशच सर्वेरहमेव वेद्यो वेदान्तकृदवेदवीदेव चाहम॥

( गीता १५/१५ )

मैं ही सब प्राणियों के ह्रदय में अन्तर्यामीरूप से स्थित हूँ । मुझ से ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन होता है। सारे वेदों द्वारा मैं ही जानने योग्य हूँ। वेदान्त का करता और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूँ |

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ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेअर्जुन तिष्ठति।

भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारुढ़ानि मायया॥

( गीता १८/६१ )

हे अर्जुन ! शरीररूप यंत्र में आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी माया से उनके कर्मों के अनुसार भ्रमण करता हुआ सब प्राणियों के हृदय में स्थित है।

उस हृदयस्थ परमात्मा का ध्यान करना चाहिये। उसको जब आप पा लेंगे तो त्रिलोकी का एश्वर्य आपके चरणों की धूलि के सामान भी नहीं रहेगा। बड़े-बड़े राजा-महाराजा आपके चरणों में गिरेंगे। अत: उस परमात्मा का ध्यान करना चाहिये। प्रहलाद के पिता ने कहा कि तू भगवान् का नाम छोड़ दे। मैं तुझे राजा बना दूँगा। मैं तीनो लोकों का राजा हूँ । तू मेरी बात मान ले । प्रहलाद ने कहा – प्रभो ! आपका कहना बहुत उतम है, किन्तु प्रभु को मैं नहीं छोड़ सकता। यह मेरा शरीर मेरे माँ और मेरे से पैदा हुआ है, यह तो माता-पिता की चीज है। प्रहलाद ने अपने शरीर को तो पिता के अर्पण कर दिया, चाहे इसे समुद्र में गिराओ, चाहे काटो। भीतर में जो आत्मा है, वह परमात्मा की चीज है, उसे परमात्मा को अर्पण कर दिया।

हम लोगों का शरीर पाँच-भूतों का है। इसे पाँच भूतों के अर्पण कर देना चाहिये । अर्पण तो होगा ही, तुम सुखी हो जाओगे। भागवत की कथा है । एक चील मांस की बोटी को लेकर आकाश में उडी । दूसरी-दूसरी चीलें उसे घायल करने लगीं ।उसने मांस की बोटी फेंक दी । वह सुखी हो गयी। यह देखकर दतात्रेय जी ने उसे गुरु बनाया। इससे शिक्षा मिली। चील ने मांस का त्याग कर दिया तो सुखी हो गयी। इसी प्रकार यह शरीर पाँच भूतों का है। ऐसे छोड़ देने से सुखी हो जाता है, छोड़ना तो पड़ेगा ही। खटके वाली चीज को छोड़ दो, फिर चाहे जहां रहो।किसी चीज में आपकी ममता है, यही खटके वाली चीज है।

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आपकी चीज है परमात्मा।परमात्मा आपके हैं, आप परमेश्वर के हैं ।इस गमछे को आप देखते हैं, इसकी उत्पति सूत से है। सूत की उत्पति वृक्ष से। वृक्ष की उत्पति मिट्टी से है, अत: यह गमछा मिट्टी ही है । इसे आग लगाकर देख लो, इसकी मिट्टी हो जायगी।

ज्ञानमार्ग के हिसाब से आपकी सारी क्रिया प्रकृतिजन्य है।उसके अर्पण कर दो, फिर सुखी हो जाओगे।

प्रकृते: क्रियमाणानी गुणे: कर्माणि सर्वश:।

अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥

( गीता ३/२७ )

वास्तव में सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं, तो भी जिसका अन्त:करण अहंकार से मोहित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी मैं कर्ता हूँ – ऐसा मानता है।

तत्ववितु महाबाहो गुणकर्मविभागयो: ।

गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥

( गीता ३/२८ )

परन्तु हे महाबाहो ! गुणविभाग और कर्मविभाग के तत्व को जानने वाला ज्ञानयोगी सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा समझकर उनमे आसक्त नहीं होता।

नैव किंचित्करोमिति युक्तो मन्येत तत्ववित्।

( गीता ५/८-९ )

तत्व को जानने वाला सांख्ययोगी तो देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूघंता हुआ, भोजन करता हुआ, गमन करता हुआ सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ ग्रहण करता हुआ तथा आँखों को खोलता हुआ और मूंदता हुआ भी, सब इन्द्रियाँ अपने-अपने अर्थों में बरत रही हैं – इस प्रकार समझकर नि:सन्देह ऐसा माने कि मैं कुछ भी नहीं करता हूँ |

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जो इस तरह मानता है, वह फिर पाप से नहीं बँधता –

यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।

हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते॥

( गीता १८/२७ )

जिस पुरुष के अन्त:करण में ‘मैं कर्ता हूँ’ ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थों में और कर्मों में लिपायमान नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न तो मरता है और न पाप से बँधता है।

ज्ञान के सिद्धान्त के अनुसार आपको यही ख्याल करना चाहिये कि शरीर आपका नहीं है। यह आपकी बेईमानी है कि प्रकृति की चीज पर आप अपना अधिकार जमा रहे हैं।

भक्ति के सिद्धान्त से विचार करने से भी यही सिद्ध होता है कि यह आपका नहीं है । आपके तो केवल परमात्मा हैं। उन्हें सँभालना चाहिये। पाँचों भूतों से राजीनामा कर लेना चाहिये कि यह शरीर तुम्हारा है, मैं इसे तुम्हारे लिये छोड़ देता हूँ । इसकी अपने आवश्यकता भी नहीं है । इस शरीर की ममता को आप त्याग दो, फिर आपके लिये कोई ख़तरा नहीं है।

एक भगवान् का भक्त था। उसके पास एक महात्मा पहुँचे।

यह मकान किसका ? भगवान् का।

स्त्री किसकी ?

भगवान् की।

लडका किसका ?

भगवान् का।

फिर घूमते-घूमते मंदिर में पहुंचे |कहा – मन्दिर किसका ?

प्रभु का।

भगवान् किसके ?

हमारे।

आप किसके ?

मैं इनका।

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इनका और हमारा नित्य सम्बन्ध है।और सब बनाई हुई बात है । आज यह हमारा लडका, हमारी स्त्री, यह हमारी दादी-ये क्षणिक सम्बन्ध हैं, बनावटी हैं । बनावटी बात कितने दिन ठहरने वाली है ? अपनी चीज है परमात्मा । उसे अपनाना चाहिये । तुम यहाँ से मरकर जाओगे तो परमात्मा ही तुम्हारा साथ देंगे, और कोई नहीं देगा ।तुम्हारे सगे सम्बन्धी तुमको शमशान में जाकर छोड़ आयेंगे, फिर तुम जाओ जहन्नुम में ।वास्तव में सम्बन्ध हो तो टूटे ही नहीं। टूटना क्या है, झूठी मान्यता है, वह कैसे रहेगी।

जब तक तुम संसार से सम्बन्ध रखोगे, तुम्हें कभी सुख होने का नहीं है। दूसरे का धन हडपने वाले को क्या कभी सुख होता है ? रात को आपको नींद आ जाती है, यही बहुत है । जब तक सांसारिक पदार्थों में आपकी ममता, अहंकार रहेगा, तब तक सुख होने का नहीं है। यह शरीर रहने वाला नहीं है, फिर इस शरीर से होने वाला सुख कायम कैसे रहेगा ? यह तो तुम्हारे रहते-रहते ही विदा होगा। तुम इस शरीर को अपना मत मानो, फिर दुःख तुम्हारे पर आ ही नहीं सकता। शरीर में जो तुम्हारे ममता, अभिमान है, वही दुःख को देने वाला है।

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एक इज्जतदार आदमी था, वह प्रयाग स्टेशन पर पहुँचा। कितने ही ठग पण्डों के रूप में आये।पूछा आप प्रयाग किस काम के लिये आये हैं ?

त्रिवेणी स्नान के लिये।

हम लोग पण्डे हैं। हमारे घर चलिये। वहाँ सब व्यवस्था है।

अपने घर ले गये। उसको मालूम हुआ कि वे लोग ठग हैं।

मुझे मारकर सब हडप कर लेंगे ।सोचा इनके पंजे से कैसे छूटें ? कहा – त्रिवेणी स्नान के लिये चलो।

पहले दक्षिणा दे दो ।

पण्डे लोग तो पीछे दक्षिणा लेते हैं।

हम ऐसे पण्डे नहीं हैं।

उस यात्री ने सोचा – इनके पंजे में फँस गये, अब कोई रास्ता निकालो। जोर-जोर से रोने लगा। कहा- पेट में दर्द होता है । वह डाकुओं का अड्डा था ही। पुलिस को पता ही था। पुलिस, थानेदार सब आ गए। पुलिस ने पूछा – क्या बात है।

कहा- हुजूर ! ये बदमाश हैं। हमें लूटते हैं, मारते हैं। पुलिस डाकुओं को पकड़कर ले गयी।

हमें सोचना चाहिये – इस शरीर में फँस गए । ये डाकुओं के मोहल्ले में फँस गये । इससे निकलने कि चेष्टा करनी चाहिये । आप तो प्रयत्न में हैं ।परिणाम ख़तम होगा ।इससे निकलने का तरीका यही है – पुकार लगानी चाहिये। पुकार से या तो सिपाही आ जायँगे, वे दुःख दूर कर देंगे या स्वयं भगवान् ही आ जायँगे।

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यह समझना चाहिये कि हम डाकुओं के अड्डे में फँस गए हैं।यहाँ से निकलने की चेष्टा करनी चाहिये, चेष्टा करने पर आप निकल सकते हैं। आप यहाँ रहना चाहते हैं, यही आपकी मूर्खता है। जो मनुष्य यहाँ पर डेरा डालना चाहता है, वह तो अपने गले में फाँसी दे रहा है। यहाँ सुख है ही नहीं।

बात यह है कि हम लोग अभी भोजन करते हैं, वह ठण्डी रोटी खाते हैं। हमारी रोटी गर्म तभी होगी, जब हम अपनी कमाई खाएं। अपनी कमाई है – भजन, ध्यान करना । भजन, ध्यान करने से परमात्मा की प्राप्तिरूपी धन मिलेगा – हम लोग संसार के एश, आराम में मौज उड़ा रहे हैं, जिस प्रकार ससुराल में मौज उड़ाते हैं । संसार को ससुराल समझ रखा है। हम इस शरीर से भोग भोग रहे हैं। जब कोई रोग, बीमारी आकर प्राप्त होते हैं, वह हमारे लिये मृत्यु है। उस समय मायादेवी को समझना है कि किसी तरह पिण्ड छोड़ । माया तुम्हारे समझाने से समझ गयी तो तुम मायापति बन जाओगे। हम इस मायाजाल में फँसे हुए दु:खी हो रहे हैं। इसको किसी प्रकार समझाकर अपने अधीन करना है। किसी प्रकार हम माया को समझा दें । वह मायारूपी ठगनी बुद्धि या अन्त:करण की वृति समझे, यही हमें शान्ति प्राप्त करा सकती है । इसके वश में रहेंगे तो यह हमारा वध करा सकती है । हमारी चित वृति हमारे वश में नहीं है तो यही हमारे लिये शत्रु है । इसे हम वश में कर लें तो यही हमारे लिये मित्र है

पोस्ट-14

हम ठगों की नगरी फँस गये हैं । यहाँ से किसी तरह निकलना है। यह संसार ठगों की नगरी है। यहाँ से निकलना चाहिये। फँसाव् भारी खतरे की चीज है। कोई मनुष्य ठगों के पंजे में फँस जाय, वह निकलने के लिये जैसे चेष्टा करता है, इसी तरह हमें निकलने की चेष्टा करनी चाहिये।

एक तो बुद्धि का उपाय है। यह तो ज्ञान का मार्ग है। पहले जो रोने की बात बतायी, वह भक्ति का मार्ग है। बात यह है कि किसी भी प्रकार से आपको समझ लेना चाहिये कि संसार के भोग खतरे की चीज हैं । जब तक मृत्यु न आये, तब तक यहाँ से निकलने की चेष्टा कर लेनी चाहिये। हम एश, आराम में फँस कर क्यों अपने जीवन को नष्ट कर रहे हैं ? किसी के भी मुलाहिजे में आकर अपने जीवन को नष्ट नहीं करना चाहिये। माया के पदार्थों के साथ प्रीति खतरे की चीज है या मृत्यु है | संसार से प्रेम हटाकर प्रभु से प्रेम करना चाहिये।

आपको सोचना चाहिये कि संसार से मुझे क्या प्रयोजन है ? एक परमात्मा के सिवाय किसी की इच्छा करे ही नहीं। प्रभु से प्रार्थना करे – हे प्रभो ! मुझे आप इस संसार समुद्र से निकालें। जिस प्रकार कोई मनुष्य तालाब में फँस जाता है, निकलने की चेष्टा करता है, उसी तरह हमें निकलने की चेष्टा करनी चाहिये। किसी का सहारा मिल जाय तो समझना चाहिये कि परमात्मा की दया हो गयी।किनारे लग गया तो काम हो गया।

पोस्ट-15

किनारा है मनुष्य का शरीर। सहारा है परमात्मा का। इस प्रकार का मौका चूक जाओगे तो पश्चाताप करना पड़ेगा।

जैसे किनारे पर खड़े हुए मनुष्य डूबते हुए को निकालने की चेष्टा करते हैं, इसी प्रकार हमारे ऊपर दया करते हैं। डूबने वाले को अपनी कोई चेष्टा नहीं करनी चाहिये। जो निज की चेष्टा करता है, उससे लोग डरते हैं। क्या भगवान् भी डरते हैं ? जो भगवान के शरण होते हैं, भगवान् उसे सरलता से निकाल लेते हैं ।जो वाणी से भी भगवान् के शरण हो जाता है; किन्तु अपना मन, बुद्धि भी लगाता रहता है, भगवान् तो उसे भी निकालते हैं ।

पोस्ट-16

एक नम्बर शरण लेने योग्य भगवान् हैं ।दो नम्बर में महापुरुष हैं ।हमें तो आवाज लगानी है – हे नाथ ! हे नाथ ! हम संसार-सागर में डूब रहे हैं । हे नाथ ! हे नाथ ! – यह साधन बना लो। पुकारते ही रहो, जब तक नाथ बाहर नहीं निकालते ।दूसरी बात है महात्माओं से कहना – मुझे निकालो । मैं डूब रहा हूँ । तो महात्मा लोग निकालते हैं । वे कहते हैं-सावधान ! तुम मुझे पकड़ना नहीं । दूर रहो।लोग उनके चरण पकड़ते हैं, पूजा करते हैं, महात्मा दूर फेंकता है । महात्मा कहता है – मैं तुम्हें निकालना चाहता हूँ। तुम मुझे डुबोना चाहते हो । कोई महात्मा पूजा, प्रतिष्ठा नहीं चाहता। कोई करता है तो उसके विरुद्ध यह सब करता है । कई विरक्त पुरुष होते हैं । ज्ञान वैराग्य सब है; तैराक है; किंतु दया नहीं है ।डुबो तो डूबते रहो । जो ऐसे स्वार्थी हैं कि अपनी ही आत्मा के ही सुधार में लग जाते हैं, वे इस प्रकार डूबते हुए को नहीं निकालते।

पोस्ट-16

इसी बात को भगवान् गीता में कहते हैं :–

सर्वधर्मानपरित्यज्य मामेकं शरणं वर्ज |

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामी मा शुच: ||

सम्पूर्ण धर्मों को अर्थात सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को मुझ में त्यागकर तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान, सर्वाधार परमेश्वर की ही शरण में आ जा । मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर।

जब शरण हो जायँगे तो बेड़ा पार है । देर का काम नहीं है । शरण का मार्ग बड़ा सीधा है । एक श्लोक का सार बताया जाता है । खूब ध्यान देकर सुनना चाहिये।

कि पुनब्राहमण: पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा ।

अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम ॥

( गीता ९/३३ )

फिर इसमें तो कहना ही क्या है, पुण्यशील ब्राह्मण तथा राजर्षी भक्तजन मेरी शरण होकर परमगति को प्राप्त होते हैं । इसलिये तू सुखरहित और क्षणभंगुर इस मनुष्य-शरीर को प्राप्त होकर निरन्तर मेरा ही भजन कर।

जाति से जो पापी से पापी होते हैं, उनका भी कल्याण हो जाता है; जो आचरणों में नीच होते हैं , उनका भी भगवान् की शरण से कल्याण हो जाता है।

पोस्ट-17

इसी बात को भगवान् गीता में कहते हैं :–

सर्वधर्मानपरित्यज्य मामेकं शरणं वर्ज ।

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामी मा शुच:।

सम्पूर्ण धर्मों को अर्थात सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को मुझ में त्यागकर तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान, सर्वाधार परमेश्वर की ही शरण में आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर।

जब शरण हो जायँगे तो बेड़ा पार है । देर का काम नहीं है । शरण का मार्ग बड़ा सीधा है । एक श्लोक का सार बताया जाता है ।खूब ध्यान देकर सुनना चाहिये।

कि पुनब्राहमण: पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा।

अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम ॥

( गीता ९/३३ )

फिर इसमें तो कहना ही क्या है, पुण्यशील ब्राह्मण तथा राजर्षी भक्तजन मेरी शरण होकर परमगति को प्राप्त होते हैं । इसलिये तू सुखरहित और क्षणभंगुर इस मनुष्य-शरीर को प्राप्त होकर निरन्तर मेरा ही भजन कर ।

जाति से जो पापी से पापी होते हैं, उनका भी कल्याण हो जाता है; जो आचरणों में नीच होते हैं , उनका भी भगवान् की शरण से कल्याण हो जाता है।

पोस्ट -18

फिर जो पुण्यात्मा हैं और ब्राह्मण हैं; जाति भी ऊँची हो और आचरण भी ऊँचा हो तो कहना ही क्या है ! इसी प्रकार राजा भी हो, ऋषि भी हो, मेरी शरण आने से उसका कल्याण हो जाय तो कहना ही क्या है ! तब फिर इस मनुष्य-शरीर को पाकर मेरा भजन ही करना चाहिये ; क्योंकि यह मनुष्य-शरीर बार-बार मिलने वाला नहीं है | यह चौरासी लाख योनियों में सबसे बढ़कर है। अनित्य है, रहने वाला नहीं है; जैसे समुद्र का बुलबुला है, मिटने ही वाला है । ‘ असुखं’ – सभ्यता के साथ भगवान् बताते हैं कि सुख नहीं है, प्रतीत होता है, धोखे की चीज है, फँस जाओगे; जैसे स्वपन ! आँख खुलने पर क्या समझाते हो ? धोखे की बात है, किन्तु उस समय तो एकदम सच्चा समझते थे ? बात धोखा ही निकली न ? यह भी धोखा ही है | यदि सच्चा होता तो कायम रहता । इसी प्रकार संसार में सुख दीखता है, वह भ्रम है । उसमे नहीं फँसना चाहिये, ललचाना चाहिये। ललचोगे तो मारे जाओगे। तुम्हें सुख दीखता है, तभी तो भगवान् कहते हैं कि सुख नहीं है। सच्चा सुख होता तो क्यों कहते कि इसमें फँसना नहीं। यह भगवान् कह रहे हैं। आपके यदि कमजोरी आती है, आपमें निराशा आती है तो आप उसे हटा दें । जाति को लेकर निराशा आती है तो इस श्लोक का पाठ करना चाहिये ।

मां हि पार्थ व्यापाश्रीत्य येअपि स्यु: पापयोनय:।

स्त्रीयों सित्रयो वेश्यास्ताथा शूद्रास्तेअपि यान्ति परां गतिम् ॥

( गीता ९/३२ )

हे अर्जुन ! स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा पापयोनि – चाण्डालादि जो कोई भी हों, वे भी मेरे शरण होकर परमगति को ही प्राप्त होते हैं ।

आचरणों को लेकर कमजोरी आती है तो इस शलोक का पाठ करना चाहिये –

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक।

साधुरेव स मन्तव्य: सम्यगव्यवसितो ही स: ॥

( गीता ९/३० )

यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभाव से मेरा भक्त होकर मुझे भजता है तो वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है, अर्थात उसने भलीभाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के सामान ऐसी कुछ भी नहीं है।

पोस्ट-19

इसका फल अगले श्लोक में बताया है :–

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शाश्वच्छान्ति निगच्छति।

कौन्तेय प्रतिजानीहि न में भक्त: प्रणश्यति ॥

( गीता ९/३१ )

वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहने वाली परम शान्ति को प्राप्त होता है । हे अर्जुन ! तू निश्चयपूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता।

भगवान् हिम्मत बंधाते हैं, आश्वासन दिलाते हैं – केवल धर्मात्मा ही नहीं होगा, अपितु वह सदा रहने वाली शान्ति को प्राप्त हो जायेगा। मैं प्रतिज्ञा करता हूँ – मेरी भक्ति करने वाले का पतन नहीं होगा।

यह ख्याल करके हमें भगवान् पर निर्भर हो जाना चाहिये कि हमारे कल्याण में सन्देह है ही नहीं और तत्परता से लग जाना चाहिये, क्योई भगवान् ने हमें बड़ा भारी मौक़ा दिया है । इस अवसर को खाली नहीं जाने देना चाहिये।

माम भजस्व – इतना ही उपदेश है । भगवान् की आज्ञा, भगवान् का आश्वासन है, फिर आप में कमजोरी आने का, निराश होने का कोई कारण ही नहीं है । यदि आप में जाति का दोष हो तो कोई आपति नहीं । आचरण का दोष हो तो कोई आपति नहीं । दोनों दोष हों तो तीनों श्लोकों का पाठ करना चाहिये, चाहे चार श्लोकों का पाठ करना चाहिये | पाँच का करो तो और भी ठीक है ।

( ९/३० से ९/३४ तक )

इनको अपना जीवन बना लेना चाहिये । इन पाँच श्लोकों में सारा उपदेश भरा पड़ा है । इन पाँच श्लोकों के अनुसार अपना जीवन बना लें तो थोड़े ही समय में आपका कलयाण हो सकता है । पाँच श्लोक नहीं , एक ही पद को आप धारण कर लें – ‘माम भजस्व’ इतना ही धारण कर लें । अब से मरने तक केवल भगवान् का ही भजन करें । आपका काम हो गया । इसलिए नारायण, नारायण भजो।

( लेखक ख्याति प्राप्त ज्योतिषाचार्य हैं।)

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