जरा सोचें 2018 के विस चुनावों का सबक 2019 में फिर पढ़ना है या खुद को बदलना है
किसी ने सही कहा है कि एक ही नाव के मुसाफिरों को साथी के डूबने का जश्न नहीं मनाना चाहिए। क्योंकि आप बच नहीं गए हैं अगला नंबर आप का भी हो सकता है। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे कुछ इसी थीम को बयां कर रहे हैं।
किसी ने सही कहा है कि एक ही नाव के मुसाफिरों को साथी के डूबने का जश्न नहीं मनाना चाहिए। क्योंकि आप बच नहीं गए हैं अगला नंबर आप का भी हो सकता है। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे कुछ इसी थीम को बयां कर रहे हैं।
यह नतीजे सभी के लिए सबक हैं कि जनता को मूर्ख मत समझो। धनबल बाहुबल या फिर जुमलो से चुनाव नहीं जीते जा सकते। दूसरे अगर आप ने कुछ नहीं किया है अपनी गलतियों से सबक नहीं लिया है तो जनता भी आपको अपना नेता चुनने के लिए मजबूर नहीं है। उसके पास भी विकल्प खुले हैं।
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रंगा को खारिज करके बिल्ला को चुनने की मजबूरी की काट है नोटा। लेकिन जनता सबक तो आपको सिखाएगी ही। बिना किसी मजबूरी के। चुनाव आयोग के लिए भी यह नतीजे सबक हैं कि जिस तरह प्रत्याशियों की जमानत जब्त होती है उसी तरह से उसे भी न्यूनतम वोट प्रतिशत पाने वाले प्रत्याशी को विजयी घोषित करने की मजबूरी से उबरना होगा। बेशक उसे दोबारा चुनाव कराने पड़ें। लेकिन प्रत्याशियों की जीत का पैमाना तो बदलना ही होगा।
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इलेक्शन वाच ने भी अपनी सिफारिश में कहा है कि नोटा के वोट अलग करके प्रत्याशी की हार जीत का फैसला करने की जगह यह देखना होगा कि जो प्रत्याशी जीता है उसे अपने क्षेत्र के कुल मतों में से कितने वोट मिले हैं। यदि वह न्यूनतम वोटों को प्राप्त करने की अर्हता नहीं रखता है तो उसे विजयी घोषित न करके उस क्षेत्र में दोबारा मतदान कराना चाहिए।
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इसके लिए पूरी प्रक्रिया फिर से होनी चाहिए ताकि विभिन्न दल अपने प्रत्याशी बदल कर जनभावना का आदर कर सकें। बेशक नोटा का प्रचार प्रसार जितना अधिक हो सके उतना किया जाए।
हाल में संपन्न पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में जितने भी प्रत्याशी चुनाव लड़ रहे थे। उनके कैंडिडेचर में जनता की कितनी भागीदारी थी। जीरो। जी हां जिसे जनता ने अपना प्रत्याशी नहीं बनाया उसे अपना रहनुमा चुनने को जनता मजबूर नहीं है। यही इन चुनावों का संदेश है।
एक बात और है कि इन चुनावों में जनता का क्षेत्रीय दलों से मोहभंग भी साफ दिखाई दिया है। जनता का सारा फोकस दो बड़े दलों या क्षेत्रीय स्तर पर राज्य की लीडिंग पार्टी पर रहा है। जिसे उन्होंने जिताया है। क्योंकि जनता स्थायित्व चाहती है। चाहे क्षेत्रीय स्तर पर हो या फिर राष्ट्रीय स्तर पर।
उदाहरण के लिए मध्य प्रदेश इसका सबसे ताजा उदाहरण है। यहां पर शिवराज सिंह के डेढ़ दशक लंबे शासन से लोगों की मामा नाम से विख्यात शिवराज सिंह चौहान से नाराजगी कुछ ऐसा तूल पकड़ी कि उनके तमाम मंत्री और विधायक इस गुस्से के लावे में बहते चले गए।
अभी तक कोई ऐसा थर्मामीटर भी नहीं बना है जिससे आप जनता की नाराजगी का स्तर जांच लें। अगर ऐसा होता तो शिवराज अंतिम क्षणों पर जीत के मुगालते में न रहते। कांग्रेस का यही हाल राजस्थान में था। पार्टी ने चुनाव अनुभव व युवा जोश के मिश्रण से लड़ा अब बाजी हाथ लग गई है तो समस्या ये है कि कौन नेतृत्व सम्हाले।
अब देखिये जनता की शिवराज से नाराजगी कितनी जबरदस्त रही होगी कि उसने वोट बेकार न जाए इसलिए ज्योतिरादित्य सिंधिया, कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की तिकड़ी में फंसी कांग्रेस को वोट दे दिया लेकिन भाजपा को नहीं दिया।
जबकि एक बड़ी तादाद ऐसे लोगों की भी थी जिन्होंने वोट बरबाद होने की चिंता किये बिना नोटा यानी इनमे से कोई नहीं पर मोहर लगा कर अपना विरोध सभी दलों के प्रत्याशियों से जता दिया। अगर सत्ता को घर की जागीर बना देने का खमियाजा भी शिवराज सिंह को झेलना पड़ा जिन्होंने दिल खोलकर मंत्रियों विधायकों के सगे संबंधियों को टिकट बांटे।
छत्तीसगढ़ में प्रदेश अध्यक्ष भूपेश का दावा सबसे पहले बनता है। लेकिन यहां पर सीएम पद को लेकर नतीजे आने के पहले ही कई दावेदारों के नाम सामने आ रहे हैं। इनमें सबसे ज्यादा पसंदीदा नाम सीजी विस में नेता प्रतिपक्ष टीएस सिंहदेव का है। इसके बाद पार्टी का राज्य में एकमात्र सांसद ताम्रध्वज साहू का नाम भी शामिल बताया जा रहा है। इसके बाद पूर्व सांसद और पार्टी के वरिष्ठ नेता चरणदास मंहत का नाम भी सीएम की दौड़ में शामिल है।
ऐसे में जो भी मुख्यमंत्री बनेगा उसके लिए कांटों भरा ताज ही साबित होगा। मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भाजपा को एससी एससी एक्ट को लेकर सवर्णों और भुखमरी के शिकार होते किसानों की नाराजगी को भी झेलना पड़ा।
एक कहावत है कि अतिशय कर्श करे जब कोई अगिन प्रगट चंदन से होई। शायद भाजपा इसे भी भूल गई। मोदी युग की शुरुआत से ही एक संगीत बजना शुरू हुआ कांग्रेस मुक्त भारत और राहुल गांधी पप्पू है। शुरू में लोगों ने इसका मजा लिया।
लेकिन संगीत बजता गया धीरे धीरे लोगों को मजा आना बंद हुआ। लेकिन संगीत फिर भी बजता गया। अब लोगों को कांग्रेस और राहुल से सहानुभूति होने लगी। पारिवारिक पृष्ठभूमि पर हमले ने इसमें आग में और घी डालने का काम कर दिया।
आपके पास विकास का कोई एजेंडा नहीं है। जनता की समस्याओं का कोई समाधान नहीं है। जिस काम के लिए जनता ने आपको अपार बहुमत दिया आप उस काम को छोड़कर बाकी सब काम कर रहे हो। धर्म, जाति उपजाति के नाम पर लोगों में विघटन की साजिश रच रहे हो। ऐसे हिंदुत्व को लेकर कोई क्या करेगा। क्या राम मंदिर का निर्माण लोगों को रोटी और रोजगार दे पाएगा। क्या मूलभूत समस्याओं से छुटकारा दिला पाएगा।
यही सब कारण हैं कि कांग्रेस ने भी दस साल के शासन में जनता की आवाज नहीं सुननी चाही थी। जनता के ढंग से न चल कर अपने ढंग से जनता को हांकना चाहा था किसी ढोर की तरह।
अरे इंसान को जानवर की श्रेणी में लाकर हांकने पर बुरा तो लगेगा ही न। और लगा भी जनता ने उखाड़ फेंका। क्योंकि कोई भावनात्मक लहर नहीं थी जिसमें जनता फंस कर मूर्ख बन जाती। इसलिए तुम नहीं कोई भी वाले सिद्धांत पर कांग्रेस को बैठे बिठाए लाभ हो गया। अब यदि कांग्रेस फिर पहले वाली गलतियां दोहराएगी तो अगले मौके में और भी बुरीगत होगी।
दलों को जोरदार ढंग से नकारने का एक बड़ा कारण यह भी है कि जनता अब नेताओं की तरह चालाक हो गई है। वह हर दल के नेता से प्रेम से मिलती है। आप अपना मानकर जो भी प्रलोभन जिस भी रूप में देते हैं वह स्वीकार कर लेती है क्योंकि उसे पता है कि आप उसी के पैसे का इस्तेमाल उसी को प्रलोभन देने में कर रहे हैं। लेकिन मतदान के मौके पर वह एक झटके में आपको सबक सिखा देती है।
शायद इसी लिए तीन प्रमुख हिन्दी भाषी राज्यों छत्तीसगढ़ में 2.1 फीसदी मत यानी 1.92 लाख वोट नोटा पर पड़े। इसी तरह मध्य प्रदेश में 1.5 फीसद यानी 4.2 लाख लाख मत नोटा में गए। जबकि राजस्थान में 1.3 प्रतिशत यानी 4.45 लाख मत नोटा को दिये गए।
अब ये वक्त सभी दलों के लिए आत्म चिंतन का है कि एक की हार या दूसरे की जीत अफसोस या खुशी जताएं या फिर आत्म चिंतन कर जनता में वास्तविक अर्थों में विश्वास पैदा करें। प्रत्य़ाशी वही दें जिसे जनमत हासिल हो। ऊपर से या बाहर से लाकर न थोपें।