असल में हारी तो कांग्रेस है!
पांच राज्यों कहीं भी कांग्रेस अपनी सरकार नहीं बना रही है। तमिलनाडु में वह सरकार में तो रहेगी लेकिन ना के बराबर।
पांच राज्यों के चुनाव परिणामों ने राजनीतिक गलियारों में कई नई चर्चाओं को जन्म दिया है। सबसे अधिक चर्चा बंगाल के परिणामों की है। पश्चिम बंगाल में ममता दीदी की तृणमूल कांग्रेस के ऐतिहासिक जीत ने सबको चौंकाया है। ऐसी जीत तो शायद ही किसी ने उम्मीद की थी। भारतीय जनता पार्टी के बेहद सख्त सांगठनिक मशीन और महंगे चुनावी अभियान के बावजूद भी 213 सीटों पर विजय हासिल करना, बंगाल में ममता दीदी की उपस्थिति को बल देता है और देश में विपक्ष के सूक्ष्म ही सही लेकिन एक नए विकल्प को भी दिखाता है। भले ही बंगाल में बीजेपी की हार सबसे बड़ी चर्चा का विषय हो, लेकिन इन पांच राज्यों में सबसे बड़ी हारी हुई पार्टी 'कांग्रेस' है। पांचों राज्यों की कुल 822 विधानसभा सीटों में से कांग्रेस महज 70 सीटें जीत सकी है। यह जीती हुई सीटें कुल सीटों का महज 8.51% है। पश्चिम बंगाल में 0/292, तमिलनाडु में 18/234, पुडुचेरी में 2/30, असम में 29/126 और केरल में 21/140 सीटें ही काँग्रेस को मिलीं हैं।
कहीं भी कांग्रेस अपनी सरकार नहीं बना रही है। तमिलनाडु में वह सरकार में तो रहेगी लेकिन ना के बराबर। असम और केरल ऐसे दो राज्य रहें थे जहां कांग्रेस ने अपनी पूरी ताकत लगा रखी थी। खुद राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने कमान सम्भाला था। लेकिन इन राज्यों में भी इतना खराब प्रदर्शन इनके अभियान पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। हाँ यहां कोई कह सकता है कि बंगाल में भी तो मोदी-शाह ने भी पूरी ताकत लगा रखी थी फिर भी हार गए, लेकिन यहां समझना होगा कि बीजेपी बंगाल में पिछले दो चुनावों में 0 से 77 पहुंच गई जबकि कांग्रेस अपने मजबूत रहे राज्यों में सिकुड़ती जा रही है। कभी बंगाल में राजनीति का केंद्र रही कांग्रेस आज चर्चा से गायब है। हार को स्वीकारने के बजाय अभी भी बंगाल में बीजेपी के हार का जश्न ज्यादा है। इस बुरे प्रदर्शन के लिए जो जरूरी बुनियादी सवाल होने चाहिए थे, वह चुप हैं। असल में कांग्रेस के इस बुरे प्रदर्शन के पीछे कुछ बड़ी वजहें हैं जिन्हें वर्तमान में संगठन स्वीकारना नहीं चाहता है।
पहला कारण "प्रभावहीन राष्ट्रीय नेतृत्व" है। वर्तमान में पार्टी अस्वस्थ चल रहीं सोनिया गांधी के रूप में एक अंतरिम राष्ट्रीय अध्यक्ष के जरिए चल रही है। 2019 लोकसभा चुनाव की हार के बाद से ही पार्टी के पास अभी तक एक पूर्णकालिक अध्यक्ष नहीं है। वर्तमान में पार्टी का राष्ट्रीय नेतृत्व भी दो खेमों में बटा हुआ है। जी-23 नाम के कांग्रेस नेताओं का एक समूह लंबे समय से पार्टी के बुनियादी ढांचे में परिवर्तन की आवाज उठा रहा है। इसे अब बगावती खेमा भी कहा जाने लगा है। एक दूसरा खेमा है जो गांधी परिवार के नजदीक रहकर पार्टी की चुनावी रणनीति तैयार कर रहा है। महत्वपूर्ण बात यह है कि इन दोनों ही खेमों में जमीन पर चुनाव लड़ कर जीतने वाले कुछ चंद नेता ही मौजूद है। जिले स्तर के नेताओं की तो बात दूर है, राज्य स्तर के पदाधिकारी भी अपने राष्ट्रीय नेता से मिलकर अपनी बात रखने के लिए संघर्ष करते हैं। स्थानीय कार्यकर्ता और राष्ट्रीय नेता के बीच में एक बड़ा खालीपन दिखता है, जबकि स्थानीय नेता चुनावी अभियान के संदर्भ में सबसे सटीक जानकारी दे सकते हैं। कांग्रेस के वर्तमान दोनों ही प्रमुख नेताओं की सबसे बड़ी चुनौती इनके इर्द-गिर्द कुछ चुनिंदा नेताओं की फौज है जो पार्टी की सही स्थिति की जानकारी पहुंचने नहीं देता है। यह समूह पार्टी की मलाई भी खाता है और राष्ट्रीय नेतृत्व से जमीनी कार्यकर्ताओं की पहुंच में और दूरी पैदा करता है। लेकिन सवाल ये भी है कि शीर्ष नेतृत्व साल में कितनी बार अपने जिला स्तर के कार्यकर्ताओं की खबर लेता है?
कांग्रेस की इस निराशाजनक प्रदर्शन का दूसरा कारण "अग्रिम हार स्वीकारना" है। शायद कांग्रेस भारतीय राजनीति में पहली पार्टी बनती जा रही है जो बहुत से राज्यों में चुनाव लड़ने से पहले ही हार स्वीकार लेती है। उदाहरण के लिए इस बार पार्टी बंगाल में पहले ही मैदान छोड़ चुकी थी। पार्टी का राष्ट्रीय नेतृत्व शरू से ही बंगाल चुनाव से दूर था। चुनाव की पूरी जिम्मेदारी अधीर रंजन चौधरी को सौंप दी गई थी। शुरुआती दो चरणों में तो पार्टी के शीर्ष राष्ट्रीय नेताओं ने बंगाल में एक सभा तक नहीं की थी। यह कांग्रेस के भरोसे पर लड़ रहे तमाम प्रत्याशियों और कार्यकर्ताओं के लिए किसी धोखे से कम नहीं है। प्रत्याशी और कार्यकर्ता अपने नेता की उम्मीद पर भी चुनाव लड़ते हैं, लेकिन कांग्रेस का यह रवैया उनके उम्मीदों को तोड़ रहा है। अगर यही हालात बने रहें तो आने वाले दिनों में कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ने वाले लोग नहीं मिलेंगे। बंगाल में कभी लगा ही नहीं कि कांग्रेस चुनाव भी लड़ रही है। यही कारण है कि पार्टी 0 पर सिमट गई। जबकि पिछले बार कांग्रेस ने 44 सीटें जीती थी। ऐसा ही समर्पण दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान भी देखने को मिला था। जब आप मजबूती से चुनाव लड़ते हैं तो हार और जीत के मध्य संगठन तैयार होता है। मजबूती से चुनाव लड़ने पर बूथ कार्यकर्ता तैयार होते हैं। भारत की सबसे पुरानी पार्टी के पास आज एक बड़ी संख्या में बूथों पर कार्यकर्ता मौजूद नहीं है।
तीसरा कारण "क्षेत्रीय दलों के भरोसे" चुनाव लड़ना है। वर्तमान में कांग्रेस बहुतायत राज्यों में किसी क्षेत्रीय दल की पीठ पर सवार होकर सत्ता में वापसी करना चाहती है। लेकिन ऐसा करने के प्रयास में पार्टी लगातार राज्य में अपनी उपस्थिति क्षेत्रीय दल के समक्ष खोती जा रही है। उदाहरण के लिए तमिलनाडु में ही कांग्रेस सरकार में तो होगी लेकिन उसके पास महज 18 विधायक होंगे। बिहार में आज कांग्रेस अपने खुद के बूते चुनाव नहीं लड़ सकती है। महाराष्ट्र में भी कांग्रेस का यही हाल होता जा रहा है। उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस के पास अकेले लड़ कर बहुत कुछ हासिल करने को नहीं दिखाई पड़ता है। पश्चिम बंगाल में भी कांग्रेस अकेले चुनाव लड़ने की स्थिति में नहीं है। असम में भी कॉन्ग्रेस गठबंधन के सहारे है। केरल में भी पार्टी गठबंधन में ही चुनाव लड़ती है। झारखंड में भी पार्टी झामुमो के पीछे लड़ती है। राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और पंजाब ही ऐसे कुछ चुनिंदा राज्य हैं जहां अभी पार्टी अकेले लड़ पाने में सक्षम है। यहां एक कारण क्षेत्रीय दलों का उभार भी नहीं है। लेकिन जहां भी क्षेत्रीय दल मजबूत हैं वहां कांग्रेस उनके पीछे खड़ी होकर लड़ती है। वह लगभग हर राज्य में नंबर दो के रूप में गठबंधन कर रही है। गठबंधन राजनीति का सबसे कमजोर पहलू यह है कि जिन सीटों पर आप चुनाव नहीं लड़ पाते हैं, वहां आपका संगठन कमजोर होने लगता है।
कांग्रेस की हार का चौथा "क्षेत्रीय क्षत्रपों" का ना होना भी है। पार्टी के पास क्षेत्रीय स्तर पर प्रभावी चेहरों की कमी है। अधिकतर राज्यों में क्षेत्रीय स्तर पर ऐसे प्रभावी चेहरे नहीं है जो अपने आधार पर कुछ प्रतिशत वोट पार्टी की तरफ ला सकें। जैसे कि भाजपा के पास मध्यप्रदेश में शिवराज, राजस्थान में वसुंधरा राजे, उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ, महाराष्ट्र में देवेंद्र फडणवीस, कर्नाटक में येदुरप्पा आदि हैं। भाजपा हर राज्य में अपने कुछ क्षेत्रीय चेहरों को लगातार मजबूत करती रहती है। इसके ठीक विपरीत कांग्रेस राज्यों में उम्मीद बन रहे चेहरों को कमजोर करने का कार्य कर रही है। उदाहरण के लिए मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस की उम्मीद थे, लेकिन पार्टी उन्हें नहीं बचा सकी। यही हाल राजस्थान में होता दिख रहा है। सचिन पायलट भविष्य तो है लेकिन राज्य में उनको उतनी जगह बनाने नहीं दिया जा रहा है। ऐसा ही कुछ असम में भी देखने को मिला था, जब हेमंत विश्वा शर्मा को पार्टी ने जाने दिया। आज हेमंत असम में बीजेपी से मुख्यमंत्री है। वर्तमान ही नहीं बल्कि अगर राज्यों में क्षेत्रीय दलों के उभार को भी देखें तो पाते हैं कि वर्तमान के कई क्षेत्रीय दल कांग्रेस के असंतुष्ट नेताओं की ही देन है। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, आंध्र प्रदेश में जगनमोहन रेड्डी या फिर महाराष्ट्र में शरद पवार हो, यह सभी नेता एक वक्त में कांग्रेस के मजबूत क्षेत्रीय चेहरे हुआ करते थे।
कांग्रेस पार्टी की इस बड़ी हार का पांचवां कारण "वैचारिक अस्पष्टता" है। पार्टी यह तय ही नहीं कर पाती है कि वह किस वैचारिक लड़ाई को लड़ रही है। हाल ही में पार्टी केरल में वामदल के खिलाफ लड़ रही थी और पश्चिम बंगाल में वाम दल से गठबंधन कर लड़ रही थी। पार्टी के नेता राहुल गांधी की राजनीति अभी भी अपरिपक्व नजर आती है। वह दुनिया के चुनिंदा बड़े अर्थशास्त्रियों के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था पर संवाद तो करते हैं लेकिन यह भूल जाते हैं कि इसका असर देश के 90 फ़ीसदी से अधिक आबादी पर नहीं पड़ रहा है। वह पूंजीवाद पर हमला इस तरीके से कर रहे हैं कि ऐसा लगता है कि वह इस व्यवस्था के खिलाफ लड़ रहे हैं। लेकिन उन्हें यह तथ्य स्वीकार करना होगा कि इस देश का एक बहुत बड़ा तबका वर्तमान पूंजीवाद को स्वीकार कर चुका है और वह इसके विरोध में नहीं बल्कि इसमें सुधार की बात को पसंद करेगा। वर्तमान अर्थव्यवस्था में आप पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ मुखर होकर बहुत बड़ी राजनीतिक जमीन नहीं तैयार कर सकते हैं। अगर पूंजीवाद का विरोध राजनीतिक जमीन की बुनियाद है तो फिर इस देश में वाम विचारधारा का तेजी से विलुप्त होना सबसे बड़ा विरोधाभास है। कांग्रेस और राहुल गांधी को समझना होगा कि प्रधानमंत्री के वर्तमान पूंजीवादी विकास मॉडल की काट इसका विरोध नहीं बल्कि एक वैकल्पिक पूँजीवादी माडल ही हो सकता है। एक ऐसा माडल जो लोगों को आर्थिक शक्तियों के केंद्रीयकरण से निकालकर उनकी भागीदारी सुनिश्चत करने की बात रखता हो। कांग्रेस और राहुल गांधी की वर्तमान रणनीति इन्हें खुले अर्थव्यवस्था में आर्थिक सुधारों के एक बड़े विरोधी के रूप में पेश कर रही है। इन्हें ध्यान रखना होगा कि वर्तमान में जिस नई पीढ़ी के मतों से सत्ता का निर्धारण हो रहा है, वह रोजगार के मामलों में सबसे अधिक लाभान्वित इसी पूंजीवादी व्यवस्था से हो रही है। भारत का फैलता मिडिल क्लास भी पूंजीवाद के खिलाफ नहीं हो सकता है।
कांग्रेस को चाहिए कि समय रहते दल में जरूरी सुधारों को लागू करें, नहीं तो जनता राज्यों में विकल्प के रूप में क्षेत्रीय दलों को चुनती रहेगी और केंद्र में एक निरंकुशता बनी रहेगी। कांग्रेस को यह कड़वा सच स्वीकारना होगा कि वह अपने वर्तमान नीति और नियम से भाजपा का मुकाबला नहीं कर सकती है। राज्यों में क्षेत्रीय दलों की पीठ की सवारी आने वाले दिनों में संगठन को और कमजोर करेगा। कोई भी सहयोगी क्षेत्रीय दल अपने राज्य में गठबंधन साथी को अपने से ज्यादा मजबूत नहीं होने देना चाहता है। राष्ट्रीय नेतृत्व को जितना जल्दी हो सके अपना सेनापति चुन लेना चाहिए क्योंकि बिना सेनापति के सेना युद्ध नहीं जीत सकती।