इंसेफेलाइटिस की राजनीति और राजनीति में इंसेफेलाइटिस

Update:2017-08-13 23:01 IST
इंसेफेलाइटिस की राजनीति और राजनीति में इंसेफेलाइटिस

संजय तिवारी

लखनऊ: यह बात 1991 की है। उस वर्ष पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर मंडल में नवकी बीमारी ने कोहराम मचा रखा था। डॉक्टरों को समझ में नहीं आ रहा था कि यह आपदा कहां से आ गई।

इस बीमारी के बारे में उस समय किसी को कोई खास जानकारी नहीं थी। इससे पहले बिहार में कालाजार नामक रोग अपना संक्रमण फैला चुका था और उस पर वहां के प्रसिद्ध चिकित्सक और बाद में बीजेपी सांसद बने डॉ. सीपी ठाकुर ने खुद के प्रयास से काबू पा लिया था। लेकिन पूर्वांचल में फैली नवकी बीमारी किसी की समझ में नहीं आ रही थी।

सरकार व चिकित्सा शिक्षा विभाग ने नहीं दिया ध्यान

उसी समय गोरखपुर में कार्यरत एक संस्था गोरखपुर एनवायरनमेंटल एक्शन ग्रुप ने इस बारे में कुछ काम करने का मन बनाया। संस्था के संचालक डॉ. शीराज अख्तर वजीह ने अपने एक सहयोगी पत्रकार संजय तिवारी के साथ बाबा राघवदास मेडिकल कॉलेज गोरखपुर के बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. केपी कुशवाहा और डॉ. डीके श्रीवास्तव से मुलाकात की। इस मुलाकात में सबसे बड़ी समस्या इंसफेलाइटिस जैसे रोग को लेकर किसी प्रकार की शोध सामग्री की अनुपलब्धता सामने आई। डॉ. कुशवाहा का कहना था कि जिस नवकी बीमारी से बच्चों की लगातार मौत हो रही हैं वह वस्तुत: जापानी इंसफेलाइटिस है, लेकिन इसके बारे में शोध और बचाव का कोई चिकित्सकीय विकल्प अभी तक सामने नहीं आया है। कुशवाहा ने ही बताया था कि इसकी पहली रिपोर्ट 1977 -78 में इसी बाबा राघवदास मेडिकल कॉलेज में की गई थी, लेकिन इस पर सरकार अथवा चिकित्सा शिक्षा विभाग ने कोई ध्यान नहीं दिया। उसी समय डॉ. कुशवाहा ने यह प्रस्ताव रखा कि इस भयानक बीमारी को लेकर उन्होंने व्यक्तिगत स्तर पर प्रयास करके कुछ शोध कराए हैं। इस बैठक में एक प्रस्ताव यह भी आया कि इस बीमारी को जागरुकता फैलाकर रोका जा सकता है।

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जागरूकता के लिए हिन्दी में मुहैया कराई जानकारी

इसके बाद डॉ . शीराज ने उत्तर प्रदेश वालंट्री हेल्थ एसोसिएशन के वाराणसी केंद्र से संपर्क किया, तो केंद्र के तत्कालीन प्रमुख प्रकाश सोलोमन ने इस गंभीर मुद्दे पर हर प्रकार की मदद का भरोसा दिलाया। उसके बाद गोरखपुर एनवायरनमेंटल एक्शन ग्रुप यानी जीईएजी ने डॉ. कुशवाहा से मिलकर यह तय किया कि सबसे पहले इस नवकी बीमारी यानी जापानी इंसफेलाइटिस के बारे में जागरूकता फैलाने का प्रयास शुरू किया जाए। इसके लिए सबसे आवश्यक था कि जन भाषा में इस बीमारी के बारे में साहित्य उपलब्ध हो। यह कार्य करने के लिए खुद जीईएजी ने बीड़ा उठाया और डा. कुशवाहा से मिले। सभी शोधों का हिन्दी में अनुवाद कराया। जीईएजी ने ही इस बीमारी के वाहक और संक्रामक यानी मच्छर और सूअर से होते हुए मनुष्य तक के संक्रमण को रेखांकित किया और इसके पोस्टर तैयार कराए गए।

दिलकुमारी भंडारी ने गंभीरता से लिया

इसी बीच यह तय किया गया कि पूर्वांचल का कोई सांसद यदि इतने गंभीर रोग के बारे में लोकसभा में सवाल उठाए तो इसकी तरफ सरकार का ध्यान जायेगा और बच्चों की मौत को रोका जा सकेगा। इसी क्रम में पूर्वांचल के तमाम सांसदों से भी संपर्क किया गया, लेकिन किसी को यह मामला न तो गंभीर लगा और न ही इस योग्य कि वे लोकसभा में इस पर सवाल उठाते। इसी दौरान दिल्ली में एक कार्यक्रम में यूपीवीएचए, जीईएजी के संचालकों और कुछ सांसदों की मुलाकात हुई। इस मुलाकात में जब पूर्वांचल में फैल रहे इस रोग के बारे में बात की गई तो सिक्किम के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरबहादुर भंडारी की धर्मपत्नी श्रीमती दिलकुमारी भंडारी ने इसे बहुत गंभीरता से लिया। दिलकुमारी भंडारी उस समय दसवीं लोकसभा की सांसद थीं। उन्होंने जीईएजी के पूरे प्रपत्र को लोकसभा के पटल पर रखा और पहली बार यह मुद्दा केंद्र सरकार के संज्ञान में आया।

मामले में खूब चले आरोप-प्रत्यारोपों के तीर

इसके बाद तो इस पूरे मामले में राजनीति, बयानबाजी और आरोप-प्रत्यारोपों का दौर शुरू हो गया। इंसेफेलाइटिस की पूरी लड़ाई उस समय यूपी वीएचए ही लड़ रही थी। इसी बीच जब कल्याण सिंह के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश में सरकार बनी तो उसमें सूर्यप्रताप शाही स्वास्थ्य मंत्री बनाए गए। शाही चूंकि पूर्वांचल के थे इसलिए उनसे लोगों को यह उम्मीद जगी कि वह इस मामले में कुछ करेंगे। उस समय तक टीकाकरण का विकल्प सामने आ चुका था और कसौली स्थित एक कंपनी से उत्तर प्रदेश सरकार ने टीकों की आपूर्ति के लिए अनुबंध भी कर लिया था। शाही का दुर्भाग्य यह था कि जिस साल वह स्वास्थ्य मंत्री बने उसी साल बाबा राघवदास मेडिकल कॉलेज में इंसेफेलाइटिस से बच्चों की मौतों का सिलसिला तेज हो गया। वैसे भी यह बीमारी पहले एक साल के अंतराल पर अपने भीषण रूप में आती थी। उस समय जब बाबा राघवदास मेडिकल कॉलेज में बच्चों के मरने का क्रम बहुत तेज हुआ और बिस्तर से लेकर दवाइयों तक के लिए हाहाकार मच गया तब केंद्र और प्रदेश दोनों जगह की सरकारों को राजनीतिक चिंता हुर्ई। तत्कालीन केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री माखनलाल फोतेदार से लेकर उत्तर प्रदेश के अनेक मंत्रियों तक ने बाबा राघवदास मेडिकल कॉलेज में डेरा जमाया और वादे पर वादे किए गए। इसी बीच टीकाकरण में सरकार के झूठ को लेकर यूपीवीएचए के प्रकाश सोलोमन और सूर्यप्रताप शाही के बीच काफी विवाद हुआ।

पीछे छूट गए जागरूकता फैलाने वाले लोग

अब यह सिलसिला बन गया। बाबा राघवदास मेडिकल कॉलेज में पूर्वांचल के नेताओं के लिए और चिकित्सकों, दवा कंपनियों और डीलरों का अद्भुत खेल शुरू हो गया। गोरखपुर में केंद्र सरकार की पहल पर एक लैब गोरखपुर महानगर के सूरजकुण्ड मोहल्ले में स्थापित किया गया और कुछ ही समय बाद उसे बन्द भी कर दिया गया। समय के साथ राजनीति पर राजनीति होती रही। न तो इंसेफेलाइटिस पर काबू पाया जा सका और न ही बच्चों की मौतों का सिलसिला थमा। जिस बीमारी को लेकर पूर्वांचल का कोई सांसद वर्ष 1991 तक लोकसभा में सवाल उठाने को तैयार नहीं था वही बीमारी गोरखपुर और पूर्वांचल में राजनीति करने वालों के लिए एक मुद्दा बन गई। जिन लोगों ने इस बीमारी को लेकर जागरूकता की पहल की थी वे बहुत पीछे छूट गए। इस बीमारी पर गोरखपुर से लेकर डबलूएचओ तक हंगामा खड़ा करने वाले डॉ. केपी कुशवाहा अब मेडिकल कॉलेज से रिटायर होकर उसी शहर में अपना नर्सिंग होम चलाते हैं। यह बीमारी आज भी पूर्वांचल के लिए भयावह बनी हुई है और हर साल न जाने कितनों की जान इस बीमारी की वजह से जा रही है।

 

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