पश्चिमी विद्वान माइकल जॉन ने कहा था कि जब लोगों का स्वयं पर अख्तियार होता है, किसी और का नहीं, तो उनकी विवेकहीनता, अन्याय और अंदेशों पर अपना स्पष्ट फैसला देना ही चाहिए। आज जब जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) परिसर में आयोजित कार्यक्रम ‘अगेंस्ट द जुडीशियल किलिंग ऑफ अफजल गुरु एंड मकबूल भट्ट’ में संसद हमले के आतंकी अफजल गुरु को शहीद बताया जा रहा हो, ‘कश्मीर की आजादी और भारत की बर्बादी’, ‘अफजल हम शर्मिंदा है तेरे कातिल जिंदा हैं’, ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे-इंशाअल्लाह, इंशाअल्लाह' और ‘भारत की बर्बादी तक, कश्मीर की आजादी तक जंग रहेगी-जंग रहेगी’ आदि नारे लगाए गये हों, तब इस पूरे वाकये को सिर्फ विचारधारा के टकराव के तौर पर नहीं देखा जा सकता।
किसी परिसर की शुचिता, स्वायत्ता अथवा छात्रों के आक्रोश के तौर पर नहीं लिया जा सकता। जो लोग इस पूरे वाकये को महज इस नज़रिए देख रहे हैं, उन्हें मुंह खोलने से पहले यह जवाब तो देना होगा कि क्या किसी परिसर में देशद्रोही नारे लगने चाहिए ? और अगर लगे हैं, तो क्या उसकी पड़ताल नहीं होनी चाहिए? क्या कुछ आदमी कानून के ऊपर भी होने चाहिए ? देशद्रोह के नारे लगने के बाद पुलिस को हाथ पर हाथ धरकर बैठे रहना चाहिए ? अगर जवाब हां है तो सवाल यह भी उठता है कि अभिव्यक्ति की कथित आजादी और कथित अभिव्यक्ति की आजादी को किस हद तक जाना चाहिए। जब इसका विश्लेषण होता है, तब वामपंथी और समर्थक बुद्धिजीवियों की जमात इस पूरी लड़ाई को सहिष्णुता-असहिष्णुता की तरफ ढ़केलते हुए विचारधारा के टकराव पर रोक देते हैं।
अगर अफजल को शहीद बताया जाय, भारत के टुकड़े करने की बात की जाए और इसे अभिव्यक्ति की आजादी बताया जाए तो फिर वैलेंटाइन डे पर प्रेम के प्रकटीकरण के खिलाफ कुछ सिरफिरे युवा आवाज और डंडे उठाते हों और कोई जात-जमात एक दूसरे को लानत भेजती हो तो उसे अभिव्यक्ति की आजादी से जोड़कर क्यों नहीं देखा जाना चाहिए ?
जबसे मोबाइल के मार्फत सोशल मीडिया लोगों के पास पहुंचा है तबसे अभिव्यक्ति की आजादी के संवैधानिक मायने सचमुच कमजोर हुए है। लेकिन देश का अग्रणी संस्थान होने का दावा करने वाले परिसर में हुए देश विरोधी आयोजन के मद्देनजर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अभिप्राय का इस्तेमाल नहीं हो सकता। वामपंथ और कांग्रेस भले ही इसे
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जोड़कर सियासी रोटी सेकने का काम कर रही हो पर इन सियासी कोशिशों के बीच यह देखना बड़ा ही अनिवार्य हो जाता है कि जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े हैं।
वह पार्टी जिसने 1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान चीन की जगह भारत को आक्रांता बताने पर अपने मार्क्सवादी साथियों से अलग राह पकड़ ली थी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी बन गई थी। बावजूद इसके इस विचारधारा के वाहक कन्हैया कुमार की उपस्थिति में हुए इस आयोजन में देश विरोधी नारे लगते हों तो इसकी पड़ताल जरुरी हो जाती है कि आखिर इसके पीछे कौन सी शक्ति काम कर रही है ?
यही नहीं, भारत में राष्ट्रवाद, सभ्यता, संस्कृति और समाज के मौलिक मूल्यों का वाहक मूलतः मध्यम और निम्न वर्ग है। कन्हैयाकुमार की मां मीना बिहार के बेगूसराय में 3500 रुपए मासिक पर आंगनबाड़ी में काम करती हैं। भाई मणिकांत गांव पर किसी तरह गुजर-बसर करते हैं। पिता सात साल से लकवाग्रस्त हैं। साफ है कि कन्हैया कुमार इसी किसी वर्ग से आते हैं। जेएनयू परिसर में पढ़ने और पढ़ाने वालों ने परिसर की पहचान ही ऐसी बनाई है कि जो धारा के विपरीत चलता हो, लेकिन धारा के विपरीत चलने की इस पहचान में इतनी गलतियां हुई हैं कि उनसे भी अब तक कोई सबक नहीं लिया गया।
यहां के लोगों ने नेल्सन मंडेला को विश्वासघाती बताया था, सरदार पटेल को क्लीव बताकर हैदराबाद और तेलंगाना राज्य में अत्याचार के लिए जिम्मेदार ठहराया था। वेदांत सम्मेलन में बाबा रामदेव को यहां बोलने नहीं दिया गया, महिषासुर दिवस भी इसी परिसर में मनाया गया और मैकाले के प्रति आभार भी इसी परिसर में जताया गया। उस मैकाले के प्रति आभार जताया गया कि जिसने ब्रिटिश संसद में भेजे अपने मिनिट्स में लिखा था कि मैं भारत के हर कोने में गया मुझे एक भी भिखारी नहीं मिला एक भी चोर नहीं, ऐसे लोग जिनकी क्षमता अनंत है उनकी रीढ़ तब तक नहीं टूटेगी जब तक उनकी प्राचीन ज्ञान, शिक्षा व्यवस्था और उनकी संस्कृति पर आघात नहीं किया जाएगा।
यही वजह है कि मैं अब अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था को लागू करने की पेशकश कर रहा हूं जिससे भारतीयों में हीनभावना, अपनी संस्कृति और अपने अस्तित्व से ही घृणा हो जाय। इसी मिनिट्स में मैकाले ने सिर्फ संस्कृत ही नहीं अरबी भाषा का जमकर उपहास किया था। हिंदू और मुस्लिम दोनों शिक्षा पद्धति को जमकर कोसा था। इसी परिसर में जब देश में बीफ को लेकर बहस छिड़ी थी तो बीफ दावत को आयोजन बनाकर बहुसंख्यक आबादी के भावनाओं की परवाह किए बिना इसे अभिव्यक्ति की आजादी से जोड़ा गया।
छत्तीसगढ़ में 76 सीआरपीएफ के जवानों की हत्या पर खुशी मनाई गई। अफजल की फांसी पर यहां विरोध दिवस मनाया गया था। आतंकी मकबूल बट्ट की मौत सजा के खिलाफ यहां सालाना शोक-सभा होती है। अपने पचास साल पूरे करने वाले इस विश्वविद्यालय पर सरकार की इऩायत आईआईटी और आईआईएम से अधिक हैं। आंकडे बताते हैं 16 आईआईटी मिलाकर सरकार के 2337 करोड़ रुपए सालाना खर्च होते हैं, जबकि जेएनयू में सालाना 200 करोड़ से ज्यादा की धनराशि खर्च की जाती है।
धनराशि का जिक्र महज इसलिए जरुरी है क्योंकि यह किसी मनमोहन सिंह या किसी नरेंद्र मोदी का पैसा नहीं है। यह देश के उन करोड़ों करदाताओँ का पैसा होता है, जो अपनी गाढ़ी कमाई को देश की बेहतरी के सपने के साथ सरकार के खजाने में जमा करते हैं। ऐसे में अपनी जेब ढ़ीली करने वाले करदाताओं को यह उम्मीद तो होनी ही चाहिए कि उनके पैसे से पढ़े-लिखे लोग लोकतंत्र की रक्षा करें। अपना लोकतंत्र गढें नहीं। ऐसे लोग अभिवयक्ति की स्वतंत्रता को उस हद तक ही कुबुल करें, जो दूसरे लोगों के दर्द का सबब न बने। कांग्रेस वैचारिक रुप से अब वामपंथियों पर निर्भर है। इन दिनों जब उसके पास विपक्ष का भी तमगा नहीं है, तब उसकी निर्भरता और बढ़ जाती है। इसी निर्भरता का ही तकाजा है कि राहुल गांधी जेएनयू परिसर में उपस्थित होते समय यह भूल गए कि उनके ही नाना पंडित जवाहरलाल नेहरु ने अपने शासनकाल में सोलहवां संविधान संशोधन करते हुए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संदर्भ में भारत की संप्रभुता और अखंडता को जोड़ा था।
जो नारे अफजल गुरु के लिए लगते हों, कश्मीर की अलगाववादी रैलियों में लगते हो, हाफिज सईद जिन्हें हवा देता हो, उसे निःसंदेह नेहरु के इसी चश्मे से देखा जाना चाहिए। यही नहीं, अगर कांग्रेस और वामपंथी दल राजद्रोह के मामले को लेकर स्यापा पीट रहे हैं, तो उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि वर्ष 2014 में 512 मामले राज्य के खिलाफ अपराध के तहत दर्ज हुए। इनमें 47आईपीसी की धारा 124 ए के तहत थे।
राजद्रोह के सबसे अधिक मामले केरल, असम, कर्नाटक और झारखंड में दर्ज किए गए। इन सभी राज्यों में इस दौरान कांग्रेस या कांग्रेस समर्थित दल की सरकार थी। अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब यह नहीं होता कि उसकी मर्यादा ही न हो। मर्यादा की यह लक्ष्मण रेखा समाज और संविधान दोनों ने तय कर रखी है। शास्त्रार्थ हमारी संस्कृति का हिस्सा है। हमारी जीवन पद्धति, समाज और राष्ट्र का निर्माण ही खंडन-मंडन की शास्त्रीय परंपरा से हुआ है। अगर मर्यादा को दूसरे देशों के परिपेक्ष में देखा जाय तो दो नजीरें पर्याप्त हैं।
दुनिया के लब्ध प्रतिष्ठित हावर्ड विश्वविद्यालय के हावर्ड स्क्वायर पर प्रायः विभिन्न देशों के छात्र अपने देश से जुड़े आयोजन करते रहते हैं। इनमें कई बार जिन देशो में छात्रों के उत्पीड़न हुए रहते हैं उस बाबत भी धरना-प्रदर्शन होता है। पर कभी भी किसी आयोजन में अमरीका मुर्दाबाद और उस देश के मुर्दाबाद के नारे नहीं लगते हैं। दूसरा वाकया पाकिस्तान का है, जहां भारतीय खिलाड़ी विराट कोहली के एक प्रशंसक ने उसके प्रदर्शन से खुश होकर अपनी छत पर भारत का झंडा फहरा दिया। पाकिस्तान की सरकार उसके खिलाफ इस कदर खड़ी हो गयी मानो वह तख्ता पलट कर रहा था। उसे दस साल तक की जेल हो सकती है। लेकिन दोनों नज़ीरों से हमारा बुद्धिवादी और वामपंथी तबका कोई सबक लेने को तैयार नहीं है। वह अमरीका और पाकिस्तान की इन घटनाओं से भारत की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की लक्ष्मण रेखा खुद भी खींचने को तैयार नहीं है। वह विरोध के लिए विरोध का कायल है।
बिहार चुनाव थे तो पूरे देश में सहिष्णुता बनाम असहिष्णुता की आंधी इस कदर चली कि लगा कुछ ऐसा हो गया जो आजतक भारत में नहीं हुआ। अब जब पुद्दुचेरी, असम, बंगाल, तमिलनाडु और केरल में चुनाव होने हैं, तब इस नए मुद्दे को हवा दी जा रही है। परिसर को सियासत की प्रयोगशाला बनाया जा रहा है। छात्रसंघो का दलीय हित में राजनैतिक विस्तार किया जा रहा है। यह परिसर के लिए, छात्र राजनीति के लिए, देश और समाज के लिए शुभ नहीं है। ऐसे गैर शुभ समय में माइकल जान सवाल का जवाब कांग्रेस, वामपंथ और निरंतर हो रहे ऐसे आयोजनों के पक्ष में खड़े छात्रों, अध्यापकों, बुद्धिजीवियों सबके लिए देना जरुरी हो गया है।