पहली बार बजट का मुंह उद्योगपतियों से हटकर किसान और गांव की ओर गया

Update: 2016-02-29 13:34 GMT

Yogesh Mishra

वैश्वीकरण के बाद बाजार की शक्तियां समाज का संचालन करने लगी हैं। बाजार की शक्तियों की पैठ साठ करोड़ उन ग्रामीणों तक नहीं पहुंच पाती क्योंकि उनकी आमदनी इतनी कम है कि वे बाजारी शक्तियों के हितों का पोषण नहीं कर सकते। अरुण जेटली के तीसरे बजट ने वैश्वीकरण के इस दौर में इस मिथ को तोड़ने की कोशिश शुरू कर दी है। यही वजह है कि बजट का मुंह उस किसान और गांव की ओर किया गया है जिसे भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ कहा जता है। इस सच से शायद सब लोग वाकिफ होंगे कि शहरों में उपभोक्ता वस्तुओँ का बाजार संतृप्त हो गया है।

शहरी बाजार को वैश्विक शक्तियों में पल भल में सीधे प्रभावित कर लेती हैं लेकिन 16.8 करोड़ ग्रामीण परिवारों में से 12 करोड़ लोगों के पास तक कम्प्यूटर नहीं पहुंच पाया है उन्हें बाजार तंत्र उतनी आसानी से प्रभावित नहीं करेगा इस सच्चाई को आगे बढाने के लिए ही ग्रामीण विकास पर 2.87 लाख करोड़ और खेती-बाड़ी पर 35984 करोड़ रुपए की धनराशि आवंटित की गयी है।

यही नहीं कि वित्त मंत्री के बजट के पांच उपंगों में पहला खेती और किसानी से ही जुड़ा हुआ था। यह धनराशि बीते पांच वर्षों की तुलना में 228 फीसदी अधिक है ।यही नहीं हर ग्राम पंचायत को 80 लाख रुपए अधिक और शहरी निकाय को तकरीबन 21 करोड़ रुपए दिए जाने का खाका खींचा गया है जो यह संदेश देता है कि बजट की दिशा गांव की ओर है उसका लक्ष्य गांव में रहने वाले लोगों के हाथ आर्थिक तौर पर मजबूत करना है।

किसानों की आमदनी पांच साल में दोगुना करने का लक्ष्य भी यह साबित करता है कि सरकार किसानों की क्रय शक्ति का इजाफा करना चाहती है। वर्ष 2014 की एनएसएसओ रिपोर्ट यह बताती है कि किसान परिवार की आमदनी 6 हजार रुपए है जिसमें 3078 रुपए ही उसे खेती से हासिल होते है। 58 फीसदी किसान अपनी मासिक आमदनी बढ़ाने के लिए गैर कृषि कार्यों पर निर्भर रहते हैं।

एक औसत किसान को सब्सिडी के मद में सालाना महज 1000 रुपए मिलते हैं जबकि अमेरिका में यह राशि औसतन ढाई लाख मासिक की है। इस सच्चाई से वाकिफ होने के बाद ही मोदी सरकार ने यह तय किया होगा कि अर्थव्यवस्था में 14-15 फीसदी योगदान देने और 60 फीसदी आबादी की निर्भरता वाले इस क्षेत्र को तरजीह नहीं दी गयी तो भारतीय अर्थव्यवस्था के सामने खड़ी होने वाली चुनौतियों से निपटना आसान नहीं होगा।

हालांकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की निरंतर कम होती कीमतों ने 350 बिलियन डालर का विदेशी मुद्रा भंडार खड़ा कर दिया है। इसने महंगाई की दर पर ब्रेक लगाई है तभी तो यह आंकडा 5.4 फीसदी ही ठहरा। जबकि पिछली सरकार के कार्यकाल में यह आंकडा 10 फीसदी या उसके आसपास घूमता रहा।

राष्ट्रीय ग्राम स्वराज योजना, स्वच्छता के लिए गांव को तरजीह,1 मई 2018 तक हर गांव में उजाला पहुंचा देने का संकल्प, सिंचाई के लिए इस साल 20 हजार करोड़ रुपये का आवंटन और पांच साल में 86500 करोड़ का प्रावधान, पांच लाख नए तालाबों और 10 लाख कम्पोस्ट गड्ढ़ों की खुदाई के लक्ष्य यह बताते हैं कि गांव की जिंदगी की दुश्वारियां दूर करने की ओर तेजी से हाथ बढा रहा है।

मनरेगा के तहत इसके लिए 38500 करोड़ रुपए आवंटित किए है। एक आदमी की जरुरत पढाई, दवाई कमाई होती है जबकि इलाकाई विकास के लिए बिजली, सड़क, उद्योग चाहिए होता है। खेती के लिए बीज, खाद, पानी चाहिए इस बजट में खेती के इन तीनों कम्पोनेंट पर खास गौर फरमाया गया है। यही वजह है कि 5 लाख एकड़ में जैविक खेती, हाल फिलहाल 46 फीसदी जमीन तक सिंचाई की उपलब्ध सुविधा का विस्तार कर 28.5 लाख हेक्टेयर भूमि को सिंचित किए जाने, और देश के 14 करोड़ जोतों को मृदा स्वास्थ्य स्कीम में शामिल करना का लक्ष्य रखा गया है।

स्टार्ट अप के लिए कर में छूट जेनरिक दवाओं के लिए देश भर में खुलने वाले 3000 स्टोर और देश के हर जिले में नेशनल डायलसिस सर्विस के तहत डायलसिस शुरू करने की योजना का आगाज है। इसके सात ही 62 नए नवोदय स्कूल खोलने और उच्चशिक्षा के लिए 1000 करोड़ की वित्तीय एजेंसी बनाकर शिक्षा के स्तर सुधारने की बड़ी कोशिश की है।

विकास के लिए बिजली, सड़क, उद्योग चाहिए होता है यही वजह है कि सोशल सेक्टर के लिए 1.52 लाख करोड़ रुपए का आवंटन,स्‍टैंडअप इंडिया स्‍कीम में 500 करोड़ रुपए का आवंटन,एमएसएमई मंत्रालय में नेशनल एससी, एसटी हब बनाकर, एससी, एसटी और वुमेन आंत्रप्रेन्‍योर्स के लिए 500 करोड़ रुपए का आवंटन का प्रस्‍ताव, श्‍यामा प्रसाद मुखर्जी अर्बन मिशन के तहत 300 अर्बन क्‍लस्‍टर बनाने का प्रस्ताव, स्किल डेवपलमेंट स्‍कीम के लिए 1700 करोड़ रुपए का आवंटन कर देशभर में 1500 मल्‍टी स्किल ट्रेनिंग इंस्‍टीट्यूट खोलने का प्रस्ताव,50 हजार किमी स्‍टेट हाइवे को नेशनल हाइवे में बदलाने की योजना और 10 हजार किमी नए नेशनल हाइवे जोड़ने का प्रावधान किया गया है।

इतना ही नहीं इस बजट के जरिए देश के इंफ्रास्ट्रक्चर यानी आधारभूत ढांचे के लिए 2.21 लाख करोड़ रुपए का कुल खर्च का प्रावधान है, सड़क सेक्टर के लिए कुल इन्‍वेस्‍टमेंट 97,000 करोड़ रुपए का होगा। इतना ही नहीं सड़क और रेलवे का कुल खर्च मिला लिया जाय तो यह 2.18 लाख करोड़ रुपए का है। इसमें सड़क और हाइवे के लिए 55000 करोड़ रुपए का आवंटन कर दिया गया है। 160 नए रिजनल एयरपोर्ट विकसित करने की तैयारी कर सरकार ने साबित कर दिया कि उसकी नज़र आसमान पर भी है।

इस बजट की सबसे खास बात यह कि इसका वित्तीय घाटा कुल 3.5 प्रतिशत ही है यानी आम आदमी के विकास में ज्यादा पैसे लग सकेंगे। आम आदमी खेती और विकास इन तीनों के लिए न्यूनतम ही नहीं अधिकतम अनिवार्य सुविधाओं से बजट ने कहीं मुंह नहीं मोड़ा है। लेकिन सबको खुश कर पाने की स्थिति में जरुर यह बजट ख़ड़ा नहीं दिखता। यही वजह है कि आयकर की सीमा में बदलाव चाहने वालों को निराशा हाथ लगी है। पर करीय संरचना में बजट ने काफी समरुपता हासिल करने की ठोस पहल की है।

तभी तो पिछली सरकार के 13 सेस खत्म करके सिर्फ कृषि कल्याण के लिए आधा फीसदी सेस आयद किया गया है। यह करना भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विकास का संकेत है। कालाधन निकालने की योजना, एक करोड़ से ज्यादा के आमदनी वालों के कर संरचना में तीन फीसदा का इजाफा और एसयूवी कारों पर 4 फीसदी टैक्स की बढोत्तरी, 10 लाख से ऊपर की गाड़ियां को महंगे करना यह संदेश देता है कि सरकार आर्थिक असमानता की खाई को कम करने के लिए संकल्पित है। तभी तो एक ओर वह विलासिता के साधनों पर कर लगा रही है तो दूसरी ओर पांच साल में आमदनी दोगुना करने का प्रावधान भी तैयार कर रही है।

कोयले पर 400 रुपए प्रति टन क्लीन एनर्जी सेस, डीजल गाडियों को महंगा करना, बीपीएल के पास रसोई गैस पहुंचाने के प्रावधान दिखाते हैं कि सरकार को पर्यावरण की चिंता से सिर्फ वैश्विक समिट तक ही नहीं रहती। वित्तमंत्री अरुण जेटली एक ओर पुरातन परंपराओ को जीवित करने के लिए आर्थिक संसाधन उपलब्ध करा रहे है, तो वहीं आधुनिक उपभोक्ता सामग्रियों के अनावश्यक उपभोग पर लगाम लगाने की कोशिश करता दिखते है।

यही वहज है कि वह उद्योग को भी रियायते देते है पर अर्थव्यवस्था का रुख गांव, किसान और खेती की ओर करने में गुरेज नहीं करते हैं। यह इसलिए भी जरूरी था क्योंकि उद्योग और सेवा क्षेत्र पर निर्भर रहने वालों की संख्या 40 फीसदी से कम है। भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में एम एस स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने का संकल्प जताया था। जिसमें खेती किसानी के लिए तमाम सुविधाओं की जरुरत बताई गयी थी।

यही नहीं सातवें वेतन आयोग की संस्तुतियों को लागू करने, नए कर्मचारियों को तीन साल तक सरकार की तरफ से पीएफ देने तथा सेना के लिए वन रैंक वन पेंशन सरकार पर कई हजार करोड़ का बोझ बढाएगा। अभी तक एक कर्मचारी का न्यूनतम वेतन 18000 रुपए है। सरकार की कोशिश गांव के आदमी की औसत न्यूनतम आमदनी जो करीब 1000-1500 रुपए मासिक की है के अंतर को इस बजट के माध्यम से कम करने की है।

ग्रामीण इलाको में 67 करोड़ लोगों में ज्यादातर प्रतिदिन 33 रुपए से कम पर जीवन यापन करते हैं। किसानों की ऋणग्रस्तता निरंतर बढ रही है जबकि बैंकों के एक लाख अस्सी हजार करोड़ रुपये नान पर्फार्मिंग एसेट (एनपीए) बन गए। इनका 95 फीसदी हिस्सा कारपोरेट घराने है । हालांकि सरकार ने बैंको के सुधार के लिए 25000 करोड़ रुपए दिए हैं। सरकार का यह कदम इस मुद्दे पर फौरी राहत जरुर दें पर इस प्रवृति को बढावा देते है।

जेटली का बजट अर्थ तंत्र को एक नए आसन में खड़ा करता है। जिसमें रीढ समझे जाने वाली खेती को ताकत देने की कोशिश दिखती है गांव में बसने वाली 60 फीसदी आबादी को सहूलियत देते हुए उनके हाथ मजबूत करने का मंसूबा प्रकट होता है।

एक समय जब सियासत जातियों के खेमे में बंट गयी। हर राजनैतिक दल के पास हर जाति के अपने अपने नेता हो गये। जब तक उसकी जाति का नेता मुख्यमंत्री नहीं हो जाता हो तब तक जातीय स्वाभिमान का सवाल पूरा होता नहीं दिखता हो। जातीय मुख्यमंत्री हो जाने पर शेष जातियों में उपेक्षा का भाव जागृत हो गया हो तब के खेती किसानों की बात कर अर्थतंत्र से राजनीति के समीकरण सिद्ध कर लेने की महारत अरुण जेटली ने कर दिखाई है। लंबे समय से सभी नेताओं और पार्टियों के एजेंडे में किसान रहा है, किसी के एजेंडे में भूमि अधिग्रहण के लिए रहा है तो कोई किसानों की आत्महत्या के सवाल को अपना एजेंडा बनाता रहा है.।

कोई किसान नेता बनकर जातीय राजनीति चमकाने में कामयाब रहा है। पर किसी ने भी वोट बैंक और भूमि बैंक के रुप में उनका इस्तेमाल राजनैतिक उद्श्यों के अलावा कुछ नहीं किया है। नरेंद्र मोदी सरकार ने इस बजट ने न केवल अर्थतंत्र को एक नई दिशा दी है बल्कि पुरातन-आधुनिकतम दोनों अर्थव्यवस्थाओं को बजट से खाद पानी दिया है। उन्होंने गांव गरीब, किसान, खेती का ख्याल रखकर यह बता दिया है कि भले ही जड़ों से जुड़े रहने की उनकी और उनके राजनैतिक दल की पारंपरिक प्रतिबद्धता अर्थव्यवस्था में कैसे परिलक्षित होती है।

राजनीति और अर्थतंत्र का सफल प्रयोग इस बजट में एक ऐसे फार्मूले के रुप मे दिखता है जिसमें नेपथ्य की सियासत पर अर्थतंत्र हावी है और अर्थतंत्र की उपस्थिति दूरगामी सियासत का मार्ग खोलती नजर आ रही है।

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