अटलजी, जॉर्ज, बहुगुणा हारे क्यों ?
ऐसे विजयी इतिहास पुरुष थे चेन्दुलपटल जंगा रेड्डि। प्रारंभ में वे मात्र एक जिला स्तरीय पार्टी भाजपाई कार्यकर्ता थे। उस वर्ष (1984 : आठवीं लोकसभा) भाजपा केवल दो ही सीटें जीत पायी थी।
K Vikram Rao: समय के थपेड़े दिग्गज को भी अतीत की परतों में दफन कर देते हैं। इतिहास निर्मम होता है। पीवी नरसिम्हा राव ऐसे प्रारब्ध से बच गये थे। मगर सिर्फ आधे अधूरे। इन्दिरा गांधी की हत्या (31 अक्टूबर 1984) से उपजी हमदर्दी की लहर में उनकी कांग्रेस पार्टी ने दिग्गजों को आठवीं लोकसभा (1984) में पराजित कर दिया था। मगर पीवी नरसिम्हा अकेले कांग्रेसी थे जो प्रधानमंत्री की कुर्बानी के बावजूद शिकस्त खा गये थे। उन्हें हराया गया था।
ऐसे विजयी इतिहास पुरुष थे चेन्दुलपटल जंगा रेड्डि। प्रारंभ में वे मात्र एक जिला स्तरीय पार्टी भाजपाई कार्यकर्ता थे। उस वर्ष (1984 : आठवीं लोकसभा) भाजपा केवल दो ही सीटें जीत पायी थी। एक थी जंगा रेड्डि की, दूसरी अकोला (महाराष्ट्र) से श्री एके पटेल की। अटल बिहारी वाजपेयी, हेमवती नन्दन बहुगुणा, जॉर्ज फर्नांडिस आदि हार गये थे। नाम करने वालेजंगा रेड्डि तब 44 वर्ष के युवा थे, मगर स्थानीय थे, तेलंगाना तक ही सीमित थे। उनके गत सप्ताह (5 फरवरी 2022) निधन से इतिहास का एक अमिट पृष्ठ तीन दशकों बाद स्मृति पटल पर अनायास दिख गया। उनसे जुड़ी, कम ज्ञात मगर दिशासूचक घटना काफी कुछ कह देती है। खासकर आज के चुनावी मौसम के दौरान।
तेलुगु गोप्पतनमु (गौरव) के हित में तेलुगु देशम पुरोधा एन.टी. रामाराव के समर्थन के कारण नरसिंह राव नान्द्याल संसदीय क्षेत्र सातवीं लोकसभा (1980) से जितने मतों से विजयी हुए वह भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक अपराजेय कीर्तिमान है। लेकिन शीघ्र उनसे मोहभंग होते ही एनटी रामाराव ने फिर रणभेरी बजायी।
अगली राज्य विधानसभा निर्वाचन में नरसिम्हा राव के लोकसभाई क्षेत्र की विधान सभा की सारी सीटें कांग्रेस ने गवां दीं। रामाराव को लगा उन्होंने प्रायश्चित कर लिया। ग्यारहवीं लोकसभा चुनाव में उनका प्रण था कि राष्ट्रीय भूल दुरुस्त हो जाये। नरसिम्हा राव को संसदीय मतदान में हराना है।
उसी दौर की एक बात है। इन्दिरा गांधी की हत्या तब हो चुकी थी। राजीव के पक्ष में आंधी थी। जिसकी कुछ माह तक चर्चा हुई, फिर आई गयी सी हो गयी। ''टाइम्स आफ इण्डिया'' के हैदराबाद संवाददाता के रूप में (1984 में) मैंने एक रपट भेजी भी थी और वह घटना आठवीं लोकसभा (1984) में बड़ी कारगर होती, अगर हो जाती तो, मगर घटी ही नहीं।
बस इतिहास का अगर-मगर बनकर वह बात रह गयी। संदर्भ महत्वपूर्ण इसलिए था कि आठवीं लोकसभा में विपक्ष के लगभग सारे कर्णधार धूल चाट गये थे। इन्दिरा गांधी के बलिदान के नाम राजीव गांधी को जितनी सीटें मिलीं वह उनके नाना या अम्मा को भी नहीं मिली थी। कुल 542 में 415 सीटें जीती थीं राजीव ने। जवाहरलाल नेहरू का अधिकतम रहा था 371 सीटें 1957 में, और इन्दिरा गांधी का ''गरीबी हटाओ'' के नारे में 342 रहा 1971 में तथा 353 रहा 1980 में।
तब प्याज के बढ़ते दाम वोट उनको दो जो सरकार चला सकें' का नारा दिया गया था। खुद इमर्जेंसी के बाद 1977 में जनता पार्टी 295 सीटें ही हासिल कर पायी थी। एनटी रामाराव 1984 के लोकसभा चुनाव के समय मुख्यमंत्री थे। वे डेढ़ वर्ष का कार्यकाल पूरा कर चुके थे। उन्हीं दिनों एक सप्ताह भर इन्दिरा गांधी का शव भी प्रदेश के घर-घर में दूरदर्शन के पर्दे पर दिखाया जा रहा था। आमजन की सहानुभूति राजीव गांधी के साथ थी मगर आंध्र प्रदेश के एनटी रामाराव का करिश्मा बना रहा। कांग्रेस जिस राज्य से 42 में से 41 सीटें जीतती रही थी, केवल छह संसदीय सीटें ही जीत पायी। न राजीव के प्रति हमदर्दी और न इन्दिरा गांधी का नाम कांग्रेस मतदाताओं को रिझा सका।
उसी दौर में यह वाकया हुआ था। राजीव गांधी के सलाहकारों ने एक बड़ी गोपनीय तौर पर शकुनीवाला पासा फेंका। विपक्ष के जितने दिग्गज थे उन्हें राजनीतिक रूप से पराभूत करने का, अर्थात् वोटों से पराजित करने का। अमिताभ बच्चन, माधवराव सिन्धिया आदि लोगों का ऐन वक्त पर बदले हुए लोकसभा क्षेत्रों से नामांकन दाखिल कराया गया।
विपक्ष क्लीव ही नहीं, नगण्य भी हो गया
परिणाम में सभी लोकसभाओं के इतिहास में आठवीं लोकसभा की चर्चा रहेगी कि विपक्ष क्लीव ही नहीं, नगण्य भी हो गया। तभी अमूल डेयरी का विज्ञापन भी छपा था कि अमूल मक्खन के लिए 'देयर ईज नो आपोजीशन इन दि हाउस' (सदन में विरोध ही नहीं है)। ऐसा द्विअर्थी विज्ञापन एक कड़ुवा सच था।
कांग्रेस की अभूतपूर्व बढ़त को देखते हुए और गैर कांग्रेसवाद के लोहियावाद सपने को आगे बढ़ाते हुए एनटी रामाराव ने एक सुझाव दिया। तेलुगु देशम पार्टी के नेताओं को उसे मूर्त रूप देने का जिम्मा सौंपा। उन्होंने सुझाया कि भारतीय जनता पार्टी के अव्वल नम्बर के नेता अटल बिहारी वाजपेयी हनमकोण्डा (वारंगल) से, लोकदल के हेमवती नन्दन बहुगुणा, मेदक से और जनता पार्टी के जार्ज फर्नांडिस कर्नूल से लोकसभा का चुनाव लड़ें। तेलुगु देशम उनका समर्थन करेगी।
मगर होना कुछ और ही था। आखिरी वक्त पर अपनी गुना लोकसभा सीट छोड़कर माधवराव सिधिया ग्वालियर नगर से अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ लड़े। अटलजी केवल 28 प्रतिशत वोट ही प्राप्त कर सके। उधर फिल्मी सितारे अमिताभ बच्चन ने इलाहाबाद लोकसभा सीट पर 68 प्रतिशत वोट लाकर केवल 25 प्रतिशत वोट पाये, बहुगुणा को पराजित किया। बेंगलूर (उत्तर से) जार्ज फर्नांडिस 41 प्रतिशत वोट पाकर भी रेल मंत्री जाफर शरीफ के मुकाबले हार गये।
एनटी रामाराव की उपलब्धि
अब देखिये एनटी रामाराव की उपलब्धि क्या रही ? तब हनमकोण्डा से तत्कालीन गृहमंत्री पी.वी. नरसिंह राव कांग्रेस के उम्मींदवार थे। वह पिछले दोनों आम चुनावों (1977 और 1980) में इस लोकसभाई सीट को जीत चुके थे। मगर इन्दिरा के बलिदान की आंधी के बावजूद नरसिंह राव को जिले स्तर के एक भाजपाई कार्यकर्ता सी.जंगा रेड्डी ने 67 प्रतिशत वोट पाकर हराया था।
बहुगुणाजी का जब कोई भी जवाब नहीं आया तो रामाराव ने मेदक सीट पर आखिर दिन, बस नामांकन के कुछ मिनट पूर्व एक मामूली से तेलुगु देशम कार्यकर्ता पी. माणिक रेड्डी को टिकट दिया। उसने 48.6 प्रतिशत वोट पाकर केन्द्रीय पेट्रोलियम, कानून, विदेश मंत्री और बाद में केरल के राज्यपाल रहे पी. शिवशंकर को पराजित किया।
कर्नूल से लड़े पूर्व मुख्यमंत्री, केन्द्रीय मंत्री और पार्टी अनुशासन समिति के अध्यक्ष के विजय भास्कर रेड्डी जो 1977 और 1980 में 75 प्रतिशत वोट पाकर जीते थे, उन्हें 1984 में तेलुगु देशम पार्टी के अनजाने प्रत्याशी अय्यप्पा रेड्डी ने 49.9 प्रतिशत वोट पाकर हराया। जार्ज फर्नांडिस तो इस अनजाने तेलुगु देशम उम्मींदवार से ज्यादा मशहूर थे। संसद के बाहर ही रह गये। रामाराव की तब आकांक्षा हुयी थी कि राष्ट्रीय मोर्चा बने जो भारत को कांग्रेस से मुक्त करा पाये।
उन्हीं के प्रयास से 1984 के प्रारम्भ में नयी दिल्ली के आंध्र भवन में गैर—कांग्रेसी नेताओं ने एक ढीले से, अनमने तौर पर मोर्चा बना। तब विश्वनाथ प्रताप सिंह, राजीव गांधी के सर्वाधिक अइन्तरंग मंत्री थे। बाद में क्या हुआ, कैसे हुआ, यह सब जाना समझा इतिहास है। मगर विधाता ने तय कर दिया था कि अटल, जॉर्ज तथा बहुगुणा लोकसभा में नहीं प्रवेश कर पायेंगे। अत: बाहर ही रह गये।
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