अयोध्या की माखन मिसिरी पाने की यह कोशिश तो नहीं !

राहुल गांधी की यह टिप्पणी गौरतलब है कि "उनके परिवार का प्रधानमंत्री होता तो बाबरी मस्जिद बरकरार रहती।" यह इल्जाम नरसिंह राव सरकार पर था।

Update:2020-08-01 12:32 IST

रतिभान त्रिपाठी

लखनऊ। अयोध्या में श्रीराम मंदिर की राजनीति गरमाई हुई है। हालात का बदलने का करिश्मा बार-बार कर दिखाने वाले नरेंद्र मोदी के 5 अगस्त को मंदिर की नींव की ईंट रखने आना है। हिमालय से हिंद महासागर तक और कच्छ से नीलगिरि तक हलचल है। विरोधी सकते में हैं और समर्थक अभिभूत। इन हालात में यश की माखन मिसिरी भरी टोकरी के लिए कूटनीतिक खींचतान भी कम नहीं। कोई महसूस करे या नहीं लेकिन इन हालात में अल्पसंख्यक राजनीति की नाव पर सवार क्षेत्रीय पार्टियां तो परेशानी में हैं ही, कांग्रेस सर्वाधिक कसमसाहट में है। इन हालात में आगे के चुनावी भवसागर अपनी कश्ती के सहारे कैसे पार कर पाएंगे, सारी कवायद इसी की है।

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याद आये नरसिंह राव

कहा जाता है कि यश किसे मिलेगा और अपयश का भागीदार कौन , यह वक्त और हालात तय करते हैं। राजनीति में न कोई अच्छा होता है, न खराब। वह तो जरूरतें हैं जो तय करती हैं कि कौन भला को मंदा..। यह अब साफ दिखने लगा है। नेहरू-गांधी परिवार के जिन वंशजों को पामुलापति वेंकट नरसिंह राव यानी पीवी नरसिंह राव फूटी आंखों नहीं सुहाते थे, वही अब उन्हें अच्छे लगने लगे हैं।

उन्हें कांग्रेस को डुबोने और पार्टी से देश के अल्पसंख्यक समुदाय यानी खासतौर पर मुसलमानों का वोट खिसकाने का आरोपी मान रखा था, अब मौका आया तो मां-बेटे उनके कार्यकाल की अर्थव्यवस्था की तारीफों के पुल बांधने लगे। पिछले कुछ दिनों के उनके बयान यह संकेत दे रहे हैं कि कांग्रेस अब नरसिंह राव सरकार की बैसाखी के सहारे तो मोदी की आर्थिक नीतियों पर चोट करना चाहती ही है, अयोध्या में बनने जा रहे मंदिर का राजनीतिक माखन भी अपनी ओर खींचने की फिराक में है।

राहुल गाँधी ने की थी ये टिप्पणी

1996 के बाद से लेकर अब तक में यह पहला अवसर है जब कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी और पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने राव की सरकार की आर्थिक नीतियों की प्रशंसा की है। माध्यम भले ही सरदार मनमोहन सिंह को बनाया गया लेकिन प्रशंसा राव सरकार की हुई। संदर्भ को देश की मौजूदा आर्थिक नीतियों से जोड़कर हेय बताने की कोशिश की गई। जब नरसिंह राव की सरकार बनी थी तब देश दिवालिया होने के कगार पर था। सरकार बनते ही नरसिंह राव ने संकट से उबारने के लिए तेजी से काम शुरू किया था। उस समय मनमोहन सिंह वित्त मंत्री थे।

बहरहाल, 6 दिसंबर 1992 को जब अयोध्या में विवादित ढांचा गिराया गया, तब केंद्र में नरसिंह राव की सरकार थी और उन्होंने अपना धर्म निरपेक्ष चेहरा बरकरार रखने के लिए यूपी की कल्याण सिंह सरकार की बलि ले ली थी। बावजूद इसके नेहरू-गांधी परिवार ने उन्हें अछूत ही माना। राहुल गांधी की यह टिप्पणी गौरतलब है कि "उनके परिवार का प्रधानमंत्री होता तो बाबरी मस्जिद बरकरार रहती।" यह इल्जाम नरसिंह राव सरकार पर था।

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जय श्रीराम हो गया काम

इससे पहले जब मिली जुली सरकारों के दौर में मंदिर आंदोलन हुआ तो मुलायम सिंह यादव की सरकार में मंदिर आंदोलनकारियों पर गोलियां भी चलवाई गयीं थीं। भाजपा के तत्कालीन नेता लालकृष्ण आडवाणी ने इसके लिए व्यापक जनांदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई थी। विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल, दुर्गा वाहिनी आदि संगठनों ने राष्ट्रव्यापी आंदोलन खड़ा किया और ‘बच्चा बच्चा राम का जन्म भूमि के काम का’ जैसा नारा लोगों की जुबान पर चढ़ा था। जब ढांचा जमींदाज हो गया तब यह नारा उछला था कि "जय श्रीराम हो गया काम।"

ढांचा ध्वस्त होने पर प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने फौरन यूपी में राष्ट्रपति शासन लगाने का फैसला लिया। इसके बाद सब कुछ दुरस्त कर दिया गया। लेकिन मुस्लिम समुदाय ने अयोध्या की घटना के लिए राव सरकार को दोषी माना। सोनिया गांधी राजनीति में थीं नहीं लेकिन उनके विश्वस्त सिपहसालार राव पर इल्जाम लगाते रहे कि इनकी वजह से ही देश के मुसलमान कांग्रेस से नाराज हुए हैं, खासतौर पर उत्तर प्रदेश के मुसलमान। इसमें दो राय नहीं कि बाबरी कांड की वजह से ही उत्तर प्रदेश के मुसलमानों ने कांग्रेस को वोट देना बंद कर दिया।

अकेले नरेंद्र मोदी या भाजपा ही क्यों मंदिर का श्रेय लूटे

कालांतर में राजनीतिक धारा दूसरी दिशा में मुड़ चली। नरेंद्र मोदी ने कई बार यह करिश्मा दिखा दिया कि मुसलमान वोटों के बगैर भी देश या राज्यों में पूर्ण ही नहीं प्रचंड बहुमत की सरकारें बन सकती हैं सो ऐसे में तो कांग्रेस समेत दूसरी पार्टियों को उन वोटरों को अपने पाले में लाने की जुगत भी तलाशनी पड़ रही है। उन नरसिंह राव का प्रशस्ति गायन शायद उसी रणनीति का एक हिस्सा है, जिन्हें दिल्ली के राजघाट में समाधि के लिए दो गज जमीन भी नहीं दी गई।

कांग्रेस के कर्णधार संभवत: यह सोचने पर विवश हो गए हैं कि अकेले नरेंद्र मोदी या भाजपा ही क्यों मंदिर का श्रेय लूटे। इसमें तो कांग्रेस का भी योगदान है। आखिर नरसिंह राव कांग्रेस के ही तो नेता थे। कांग्रेस और उसके शीर्ष नेता कुछ मजबूरियों के चलते यह बात खुलकर तो कह नहीं सकते, इसलिए नीतियों के बहाने 24 साल बाद राव सरकार की पीठ थपथपा रहे हैं। इसमें दो राय नहीं कि धर्म निरपेक्षता का चेहरा लिए हुए भी अगर नरसिंह राव हिंदूवादी भावना के नहीं रहे होते तो उनकी सरकार के कार्यकाल में भी अयोध्या में परिंदा पर नहीं मार पाता।

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मंदिर निर्माण में अहम भूमिका

नरसिंहराव को करीब से जानने वाले कहते हैं कि वास्तव में मंदिर निर्माण में उनकी अहम भूमिका रही है। इसलिए अयोध्या में गिरने के बाद तब तक पुलिस बल सख्त नहीं हुआ, जब तक मंदिर की नींव में ईंटें रख नहीं गईं। बहरहाल, अयोध्या आंदोलन के लिए किसने कराया किया है, इसके हिसाब-किताब का भी वक़्त आ चुका है।

राजनीतिक दल के रूप में एक भारतीय जनता पार्टी ही है जो ताल ठोक कर यह दावा कर सकती है कि श्रीराम मंदिर के लिए उसने कितनी मेहनत की है और उसके राजनीतिक एजेंडे में भी मंदिर निर्माण शामिल रहा है। बाकी पार्टियों ने तो मुस्लिम समाज के वोट बचाए रखने की कोशिश में केवल ओट से शिकार किया है।

श्रेय लेने की होड़ में सभी राजनीतिक दल

मंदिर निर्माण पर अदालत के फैसले को ही मानने की बात सब करते रहे हैं लेकिन भारतीय जनता पार्टी इससे इतर यह बात अलग से कहती रही कि हम श्रीराम मंदिर हमारे एजेंडे में है और हम इसे किसी भी कीमत पर बनवाएंगे क्योंकि यह समूचे भारत की आस्था का विषय है। अब जब प्रधानमंत्री मोदी मंदिर की नींव की ईंट रखने आ रहे हैं तो श्रेय लेने की होड़ में सभी राजनीतिक दल कुछ न कुछ कहने की फिराक में हैं।

बहुजन समाज पार्टी के नेता तो मंदिर की जगह शौचालय निर्माण की बात कहते नहीं अघाते थे तो धर्म निरपेक्षता की छतरी ओढ़े समाजवादी पार्टी के नेता ऐसा कुछ कह पाने की हैसियत में नहीं लगते, इसलिए कि वहां जब लाशों के ढेर लगे थे, तब समाजवादी सरकार ही थी। हां, कांग्रेस की सरकार जरूर केंद्र में थी लेकिन एक तबके के वोटों की राजनीति में वह भी खुलकर नहीं बोल पा रहा और संभवतः इसीलिए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और निवर्तमान अध्यक्ष राहुल गांधी को तत्कालीन कांग्रेसी प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव माने लगे हैं।

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