बाल यौन शोषण: एक गंभीर अपराध, सरकार चलाए जागरूकता अभियान
आंकड़ों की माने तो 2019 में बाल यौन हिंसा के 24,000 मामले दर्ज किए गए ।समय समय पर शीर्ष न्यायालय द्वारा बढ़ते हुए अपराध की देखते हुए कई अहम फैसले लिए गए है ताकि ऐसे अपराधों से निपटा जा सके और बच्चों की सुरक्षा की जा सके ताकि उन्हें यौन हिंसा जैसे यातनाओं न गुजरना पड़े।
बाल यौन शोषण विश्व भर में एक गंभीर अपराध माना जाता है। ऐसे अपराधों से निपटने के लिए जरूरत है कि ठोस और कारगर कदम उठाए जाएं। हाल में बम्बई कोर्ट के नागपुर बेंच ने बाल यौन शोषण संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत दर्ज एक मामले में निचली अदालत के तीन साल के कारावास के फैसले को खारिज करते हुए दोषी को एक साल की सज़ा भारतीय दंड संहिता के धारा 354 के अंतर्गत देते हुए बरी कर दिया।
सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को खारिज करते हुए "खतरनाक नज़ीर " माना और दोषी को फिर से दो सप्ताह के भीतर बुलाने का आदेश दिया।इस फैसले में नागपुर बेंच के न्यायाधीश ने पॉस्को अधिनियम में यौन हिंसा की व्याख्या बड़े ही संकीर्ण दृष्टि से करते हुए कहा"बलात्कार में स्किन टू स्किन होना आवश्यक है।ऐसा नही होने पर बलात्कार नहीं माना जा सकता।अदालतों के ऐसे संवेदनहीन फैसले अपराधियों के मनोबल को मजबूत बनाने में मदद कर सकते हैं।
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आंकड़ों की माने तो 2019 में बाल यौन हिंसा के 24,000 मामले दर्ज किए गए ।समय समय पर शीर्ष न्यायालय द्वारा बढ़ते हुए अपराध की देखते हुए कई अहम फैसले लिए गए है ताकि ऐसे अपराधों से निपटा जा सके और बच्चों की सुरक्षा की जा सके ताकि उन्हें यौन हिंसा जैसे यातनाओं न गुजरना पड़े। 2018 में बच्चों के साथ यौन बर्बता के बढ़ते मामलों को देखते हुए 12 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के साथ यौन हिंसा करने पर दोषी को मृत्युदंड का प्रावधान कर दिया गया है।
2012 में द प्रटेक्टन ऑफ चाइल्ड फ्रॉम सेक्सुअल ऑफन्स एक्ट 2012 लाया गया।इस अधिनियम में बच्चों के साथ किये कुकृत्य के अनुसार सज़ा के प्रावधान किए गए।तीन साल से लेकर मृत्युदंड के प्रावधान अपराध की गम्भीरता के अनुसार दिया गया।विशेष अदालत बनाने की व्यवस्था की गई।ऐसे मामलों की त्वरित सुनवाई के प्रावधान किए गए ।
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बात प्रशिक्षित अभियोजन और जांच अधिकारियों की गई हैं।लेकिन 9 साल बाद भी ऐसे मामलों के बढ़ते आंकड़े बताते है कि ज़मीनी स्तर पर अभी बहुत से सुधार की जरूरत है।न्यायपालिका व्यवस्था में भी सुधार की जरूरत है।अदालतों में लंबित मामलों के कारण ऐसे मामलों के पीड़ित का विश्वास न्याय के प्रति कम होता जाता है।प्रशासनिक व्यवस्था में भी बाल यौन हिंसा जैसे गम्भीर मामलों के प्रति संवेदनशील होंने की आवश्यकता है।
पीड़ित बच्चों की शिकायत पर सक्षम अधिकारी जांच करे ताकि बच्चों में शिकायत दर्ज कराने की हिम्मत आ सके।अलख आलोक श्रीवास्तव बनाम भारत संघ केस में सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिए कि सभी राज्यों के हाई कोर्ट में तीन न्यायधीशों की कमिटी बनाई जाए ताकि बाल यौन हिंसा के मामलों में निगरानी रखी जाए साथ ही स्पेशल टास्क फोर्स ऐसे मामलों की जांच के लिए बनाई जाए।उन्नाव कांड में अपराध के वीभत्स रूप को देख सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिए कि 60 दिनों के भीतर केंद्र सरकार पॉस्को अदालतें बनवाएं। 9 मार्च 2020 में कुछ नियम लागू किये गए।
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बाल यौन हिंसा को लेकर केंद्र सरकार जागरूकता अभियान चलाए।
बस अड्डों, रेलवे स्टेशन, हवाई अड्डे, सार्वजनिक स्थानों पर बच्चों और उनके परिजनों को जागरूक किया जाए।
संस्थान में समय समय पर यानी स्कूल ,कॉलेज ,जगहों पर जागरूक करने के लिए प्रयोगशाला लगाए जाएं।
शिकायत को गुप्त रखा जाए और सुरक्षा दी जाए ताकि बच्चे बिना डरे और दबाव के शिकायत कर सके।
पीड़ित बच्चों की मासिक रिपोर्ट चाइल्ड वेल्फर कमिटी द्वारा तैयार की जाए।
अंतरिम मुआवजा 30 दिनों के भीतर सूचना मिलते ही दिए जाएं।
2018 में बलात्कार पीड़ितों के लिए मुआवजे का स्कीम लाया गया है।जिसमे बालात्कार जैसे गम्भीर अपराध के बाद पीड़ित के पुनर्वास के लिए मुआवजे का प्रावधान किया गया है ।जिसमे मुआवजे की राशि 4से 7 लाख तय की गई है वही गैंग रेप जैसे अपराध में 5 लाख और पीड़ित की मृत्यु होने पर 10 लाख की योजना तय की गई है।
निपुण सक्सेना केस में सुप्रीम कॉर्ट ने पीड़ित के निजता के अधिकार की सुरक्षा करने का निर्देश देते हुए कहाँ ऐसे मामलों में एफ आई आर सार्वजनिक न किया जाए। जांच के साक्ष्य सील बंद कर अदालत में पेश किए जाए। पीड़ित की पहचान न छापा जाए। ऐसे करने वालों को आई पी सी की धारा 228अ के तहत अपराधी माना जायेगा।
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शीर्ष अदालत ने अपने फैसले में ऐसे मामलों से निपटने के लिए कई अहम फैसले दिए ताकि ऐसे गम्भीर अपराध को रोका जा सके और बच्चों की सुरक्षा की जा सके।जरूरत यह है कि तीन स्तर पर सुधार हो ।न्यायालय ऐसे मामलों में तय समय- सीमा में मामले निपटाने में ठोस और कारगर कदम उठाए। जांच एजेंसियों में मामले की जांच को लेकर संवेदना हो और सामाजिक दायित्व हो कि बच्चों से जुड़े अपराधी को शरण और संरक्षण न दिया जाए।तभी आंकड़े घटेंगे और कानून की मूल भावना कायम रह पाएगी।
(नंदिता झा, लेखक दिल्ली हाईकोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता है)