कोरोनाः थोड़ी राहत, पूरी क्यों नहीं ?

पहले अस्पताल में कमरे के 25 हजार रु. रोज लगते थे, अब 8 से 10 हजार लगेंगे। पहले सघन चिकित्सा के 24-25 हजार रु. रोज लगते थे, अब 13 से 15 हजार रोज लगेंगे। सांस-यंत्र के पहले 44 से 54 हजार रु. रोज लगते थे, अब 15 से 18 हजार रोज लगेंगे।

Update:2020-06-21 17:38 IST
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डॉ. वेदप्रताप वैदिक

नई दिल्ली: यह अच्छी बात है कि सरकार ने दिल्ली में कोरोना-मरीज़ों के इलाज की दरें घटा दी हैं। पिछले कई लेखों में मैं इसका आग्रह करता रहा हूं लेकिन पिछले तीन महीनों में अस्पतालों ने जो लूटपाट मचाई है, वह गजब की है। मरीजों से ढाई-तीन गुना पैसा वसूल किया गया। उनमें से कुछ बच गए, कुछ चल बसे लेकिन सब लुट गए।

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मजदूर गांवों से वापस नहीं लौट रहे

10-10 और 15-15 लाख अग्रिम धरा लिये गए। जिनको कोरोना नहीं था, उन्हें भी सघन चिकित्सा (आईसीयू) या सांस-यंत्र (वेंटिलेटर) पर धर लिया गया। हमारी सरकारों ने लोगों को मौत से पहले ही डरा रखा था, अब लोग मंहगे इलाज से भी डर गए। इसीलिए दुकानदार दुकानें नहीं खोल रहे हैं, खरीददार बाजारों में नहीं जा रहे हैं और हमारे मजदूर गांवों से वापस नहीं लौट रहे हैं। अब गृहमंत्री अमित शाह ने ठीक पहल की और एक कमेटी ने सारे मामले की जांच-पड़ताल करके इलाज की नई दरें घोषित की हैं। पता नहीं, इन दरों का निजी अस्पताल कहां तक पालन करेंगे ? अब कोरोना की जांच 4500 रु. की बजाय 2400 में होगी।

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मरीजों को झेलनी पड़ रही परेशानी

पहले अस्पताल में कमरे के 25 हजार रु. रोज लगते थे, अब 8 से 10 हजार लगेंगे। पहले सघन चिकित्सा के 24-25 हजार रु. रोज लगते थे, अब 13 से 15 हजार रोज लगेंगे। सांस-यंत्र के पहले 44 से 54 हजार रु. रोज लगते थे, अब 15 से 18 हजार रोज लगेंगे। दूसरे शब्दों में यदि किसी मरीज को अस्पताल में 10 से 12 दिन भी रहना पड़े तो उसका खर्च हजारों में नहीं, लाखों में होगा ? देश के 100 करोड़ से ज्यादा लोग तो इतना मंहगा इलाज करवाने की बात सोच भी नहीं सकते।

जो 25-30 करोड़ मध्यम वर्ग के मरीज़ मजबूरी में अपना इलाज करवाएंगे, वे यही कहेंगे कि मरता, क्या नहीं करता ? वे अपने जीवन-भर की कमाई इस इलाज में खपा देंगे, कुछ परिवार कर्ज में डूब जाएंगे और कुछ को अपनी जमीन-जायदाद बेचनी पड़ेगी। इसमें शक नहीं कि सरकार द्वारा बांधी गई दरों से उन्हें कुछ राहत जरुर मिलेगी लेकिन यह राहत सिर्फ दिल्लीवालों के लिए ही क्यों है ? ये दरें पूरे देश के अस्पतालों पर लागू क्यों नहीं की जातीं ? छोटे कस्बों और शहरों में तो इन्हें काफी कम किया जा सकता है।

चुनौती को करना चाहिए स्वीकार

भारत के अपने घरेलू नुस्खों और मामूली इलाज से ठीक होनेवालों की रफ्तार बहुत तेज है। इन लाखों लोगों पर तो नाम-मात्र का खर्च होता है लेकिन गंभीर रुप से बीमार होनेवालों की संख्या कितनी है ? सब मिलाकर कुछ हजार ! क्या इन लोगों के इलाज की जिम्मेदारी केंद्र और राज्यों की सरकारें मिलकर नहीं ले सकतीं ? यह ठीक है कि इस व्यवस्था में भ्रष्टाचार के मामले भी सामने आएंगे लेकिन एक लोक-कल्याणकारी राज्य को इस संकट-काल में लोक-सेवा की इस चुनौती को स्वीकार करना ही चाहिए। www.drvaidik.in

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