डोकलाम पर संषय: नया रूप लेता भारत-चीन विवाद..........

Update:2018-01-27 16:46 IST

प्रमोद भार्गव

डोकलाम में भारत-चीन विवाद नया रूप लेता दिखाई दे रहा है। उपग्रह के जरिए मिले चित्रों से पता चला है कि चीन ने विवादित सीमा क्षेत्र डोकलाम में घुसकर सात नए हेलीपैड बना लिए हैं। बड़ी मात्रा में हथियार, टैंकों और सडक़ निर्माण की सामग्री व उपकरण भी दिख रहे हैं। बीते साल जुलाई-अगस्त में चीनी सैनिकों की इसी तरह की गतिविधियां जारी रहने के साथ भारत और चीन का विवाद 73 दिन के बाद बमुश्किल 28 अगस्त 2017 को टला था। टलने की बजाय विवाद सुलझ गया होता तो इसकी पुनरावृत्ति नहीं होती।

हालांकि मूल विवाद चीन और भूटान के बीच है, लेकिन सामरिक और रणनीतिक महत्व के चलते भारत इस विवाद से अलग नहीं रह सकता है। यह विवाद इसलिए गहराता दिख रहा है, क्योंकि वहां शुरू हुई निर्माण गतिविधियों को लेकर चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता लूकांग ने कहा है कि ‘वहां जो निर्माण कार्य चल रहे हैं, वे वैध हैं। चीन अपने सैनिकों तथा क्षेत्र में रह रहे अपने लोगों के लिए बुनियादी ढांचे का निर्माण कर रहा है, जो जायज है।’ साफ है, डोकलाम की स्थिति स्पट नहीं है। हालांकि भारतीय सैनिकों की भी विवादित क्षेत्र में मौजूदगी है।

डोकलाम क्षेत्र को चीन ने चीनी नाम डोगलांग दिया है, जिससे यह क्षेत्र उसकी विरासत का हिस्सा लगे। इस क्षेत्र को लेकर चीन और भूटान के बीच कई दशकों से विवाद जारी है। चीन इस पर अपना मालिकाना हक जताता है, जबकि वास्तव में यह भूटान के स्वामित्व का क्षेत्र है। चीन सडक़ के बहाने इस क्षेत्र में स्थाई घुसपैठ की कोशिश में है। जबकि भूटान इसे अपनी संप्रभुता पर हमला मानता है। दरअसल चीन अर्से से इस कवायद में लगा है कि चुंबा घाटी जो कि भूटान और सिक्किम के ठीक मघ्य में सिलीगुड़ी की ओर 15 किलोमीटर की चौड़ाई के साथ बढ़ती है, उसका एक बड़ा हिस्सा सडक़ निर्माण के बहाने हथिया ले।

चीन ने इस मकसद की पूर्ति के लिए भूटान को यह लालच भी दिया था, कि वह डोकलाम पठार का 269 वर्ग किलोमीटर भू-क्षेत्र चीन को दे दे और उसके बदले में भूटान के उत्तर पश्चिम इलाके में लगभग 500 वर्ग किलोमीटर भूमि ले ले। लेकिन 2001 में जब यह प्रस्ताव चीन ने भूटान को दिया था, तभी वहां के शासक जिग्मे सिग्ये वांगचुक ने भूटान की राट्रीय विधानसभा में यह स्पष्ट कर दिया था कि भूटान को इस तरह का कोई प्रस्ताव मंजूर नहीं है। छोटे से देश की इस दृढ़ता से चीन आहत है। इसलिए घायल सांप की तरह वह अपनी फुंकार से भारत और भूटान को डस लेने की हरकत करता रहता है।

भारत और भूटान के बीच 1950 में हुई संधि के मुताबिक भारतीय सेना की एक टुकड़ी भूटान की सेना को प्रशिक्षण देने के लिए भूटान में हमेशा तैनात रहती है। इसी कारण जब चीन भूटान और सिक्किम सीमा के त्रिकोण पर सडक़ निर्माण के कार्य को आगे बढ़ाने का काम करता है, तो भूटान इसे अपनी भौगोलिक अखंडता एवं संप्रभुता में हस्तक्षेप मानकर आपात्ति जताने लगता है। लिहाजा संधि के अनुसार भारतीय सेना का दखल अनिवार्य हो जाता है।

मई 1976 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की कुशल कूटनीति के चलते सिक्किम भारत का हिस्सा बना था। सिक्किम ही एकमात्र ऐसा राज्य है, जिसकी चीन के साथ सीमा निर्धारित है। यह सीमा 1898 में चीन से हुई संधि के आधार पर सुनिश्चित की गई थी। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने चीन और ब्रिटिश भारत के बीच हुई संधि को 1959 में एक पत्र के जरिए स्वीकार लिया था। इस समय चीन में प्रधानमंत्री झोऊ एन लाई थे। इसके बाद भारत में लंबे समय तक कांग्रेस की सरकारें रहीं, जो नेहरू के पत्र की स्वीकरता को द्विपक्षीय संधि की तरह ढोती रही हैं। अब राजग की सरकार है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं, जो अब कांग्रेस के ऐसे आश्वासनों को मानने को कतई तैयार नहीं हैं, जो वस्तुस्थिति को टालने वाले हों।

हालांकि 1998 में चीन और भूटान सीमा-संधि के अनुसार दोनों देश यह शर्त मानने को बाध्य हैं, जिसमें 1959 की स्थिति बहाल रखनी है। बावजूद चीन इस स्थिति को सडक़ के बहाने बदलने को आतुर तो है ही, युद्घ के हालात भी उत्पन्न कर रहा है। डोकलाम ऐसा क्षेत्र है, जहां आबादी का घनत्व न्यूनतम है। पिछले एक दशक से यहांं पूरी तरह शांति कायम थी, लेकिन पड़ोसियों से हरकत की प्रवृत्ति रखने के आदी चीन ने सैनिकों की तैनाती व सडक़ निर्माण का उपक्रम कर इस क्षेत्र में अशांति ला दी है।

अमेरिकी रक्षा मंत्रालय की जून-2016 में आई रिपोर्ट ने भारत को सचेत किया था कि चीन भारत से सटी हुई सीमाओं पर अपनी सैन्य शक्ति और सामरिक आवागमन के संसाधन बढ़ा रहा है। अमेरिका की इस रिपोर्ट को भारत ने तत्काल गंभीरता से लेकर आपत्ति जताई होती तो शायद मौजूदा हालात निर्मित नहीं होते।

भारत और चीन के बीच अक्साई चिन को लेकर करीब 4000 किमी और सिक्किम को लेकर 220 किमी सीमाई विवाद है। तिब्बत और अरुणाचल में भी सीमाई हस्तक्षेप कर चीन विवाद खड़ा करता रहता है। 2015 में उत्तरी लद्दाख की भारतीय सीमा में घुसकर चीन के सैनिकों ने अपने तंबू गाढक़र सैन्य अभ्यास शुरू कर दिया था। तब दोनों देशों के सैन्य अधिकारियों के बीच पांच दिन तक चली वार्ता के बाद चीनी सेना वापस लौटी थी। चीन ब्रह्मपुत्र नदी पर बांध बनाकर पानी का विवाद भी खड़ा करता रहता है।

दरअसल चीन विस्तारवादी तथा वर्चस्ववादी राष्ट्र की मानसिकता रखता है। इसी के चलते उसकी दक्षिण चीन सागर पर एकाधिकार को लेकर वियतनाम, फिलीपिंस, ताइवान और दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के साथ ठनी हुई है। यह मामला अंतरराष्ट्रीय पंचायत में भी लंबित है। बावजूद चीन अपने अडिय़ल रवैये से बाज नहीं आता है। दरअसल उसकी मंशा दूसरे देशों के प्राकृतिक संसाधन हड़पना है। इसीलिए आज उत्तर कोरिया और पाकिस्तान को छोड़ ऐसा कोई अन्य देश नहीं है, जिसे चीन अपना पक्का दोस्त मानता हो।

लिहाजा चीन को यह समझना जरूरी है कि अब अंतरराष्ट्रीय स्थितियां 1962 जैसी नहीं हैं और न ही भारत उन दिनों जैसी लाचार स्थिति में है। अब वह एक परमाणु शक्ति संपन्न देश है और नरेंद्र मोदी ने अनेक देशों से नए मजबूत राजनयिक संबंध बनाए हैं। बावजूद इस मोर्चे पर राजनयिक सक्रियता की और जरूरत है। मोदी यूरोप, अमेरिका और इजराइल के साथ एक नया गठबंधन बनाने की कवायद में हैं। चीन से जापान की नारजगी जगजाहिर है, लिहाजा जापान भी यदि इस गठजोड़ का हिस्सा बन जाता है तो चीन को दिन में तारे दिखने लग जाएंगे। पिछले साल भारत, जापान और अमेरिका की सेनाओं का बंगाल की खाड़ी में साझा मालाबार अभ्यास इसी रणनीति का हिस्सा था। इस युद्घाभ्यास में तीनों देशों के श्रेठतम जंगी बेड़े शामिल थे। चीन से फिलहाल दक्षिण-पश्चिम एशिया के भी कई देश खुश नहीं हैं। गोया, भारत इनसे अच्छे संबंध विकसित करके चीन की कुटिल रणनीतिक जवाब दे सकता है।

ताजा विवाद दावोस में होने वाले विश्व आर्थिक सम्मेलन से ठीक पहले उठा है। इससे पहले ब्रिक्स सम्मेलन के समय डोकलाम विवाद तनाम का कारण बना था। दरअसल चीन की यह हमेशा कुटिल मंशा रही है, कि वह पड़ोसी राष्ट्रों के समक्ष राजनीतिक व सामरिक संकट पैदा कर विश्व मंच पर अपनी बात को महत्व दे सके। इधर इजराइली प्रधानमंत्री बैंजामिन नेतन्याहू के भारत दौरे और सामरिक समझौतों ने भी चीन को परेशान किया हुआ है। हालांकि मौजूदा समस्या का समाधान न तो युद्घ में है और न ही लगातार राट्रीय संप्रभुता का झण्डा बुलंद किए रहने में है, सो दोनों देशों के बीच संतुलन और शांति बनी रहती है तो यह एशिया ही नहीं समूची दुनिया के लिए बेहतर स्थिति होगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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