हमारे महापुरुषों से खेलें मत, सम्मान करें
शायद हरियाणा के मुख्यमंत्री मोहन लाल खट्टर व उनके मूढ नौकरशाहों को यह न पता हो कि बादशाह खान कौन हैं? भारत के जंगे आज़ादी में उनका क्या योगदान था?
योगेश मिश्र
हरियाणा के मुट्ठी भर भाजपाई नेता, राज्य के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर के कार्यालय के मूढ़ नौकरशाह , हरियाणा सरकार के सेहत महकमे के लापरवाह अधिकारीगण ये सब के सब एक जघन्य भारतद्रोह के दोषी हैं। हालाँकि इनकी राष्ट्र घातक हरकत को फरीदाबाद के जागरुक नागरिकों ने विफल कर दिया। सरकारी अमले की साज़िश थी कि सात दशक पहले बने भारतरत्न बादशाह खां अस्पताल का नाम बदलकर अटल बिहारी वाजपेयी के नाम कर दिया जाये।
भारतरत्न बादशाह खां को शायद नहीं जानते हरियाणा के मुख्यमंत्री मोहन लाल खट्टर
शायद हरियाणा के मुख्यमंत्री मोहन लाल खट्टर व उनके मूढ नौकरशाहों को यह न पता हो कि बादशाह खान कौन हैं? भारत के जंगे आज़ादी में उनका क्या योगदान था? यह भले न पता हो पर यह जानना सबके लिए ज़रूरी है कि उन्हें भारत सरकार ने भारत रत्न से नवाज़ा है। वह यह महत्वपूर्ण सम्मान पाने वाले पाकिस्तान के इकलौते शख़्स है। पर ऐसी अज्ञानता के बाद इन सबको सीमांत गांधी के बारे में बताना अनिवार्य हो जाता है।
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एक समय उनका लक्ष्य संयुक्त, स्वतन्त्र और धर्मनिरपेक्ष भारत था। इसके लिये उन्होने 1930 में खुदाई खिदमतगारकी स्थापना की। यह संगठन "सुर्ख पोश"(या लाल कुर्ती दल ) के नाम से भी जाने जाता है। इस सामाजिक संगठन का कार्य शीघ्र ही राजनीतिक कार्य में परिवर्तित हो गया। खान साहब का कहना है,"प्रत्येक खुदाई खिदमतगार की यही प्रतिज्ञा होती है कि हम खुदा के बंदे हैं, दौलत या मौत की हमें कदर नहीं है। हमारे नेता सदा आगे बढ़ते चलते है। मौत को गले लगाने के लिये हम तैयार है।"
खान अब्दुल गफ्फार खान ने लड़ी भारतीय आजादी के लिए लड़ाइयाँ
खान अब्दुल गफ्फार खान का जन्म आज के पाकिस्तान के पेशावर में हुआ था। उनके परदादा आबेदुल्ला खान सत्यवादी पर लड़ाकू स्वभाव के थे। पठानी कबीलों और भारतीय आजादी के लिए उन्होंने बड़ी बड़ी लड़ाइयाँ लड़ी थी। आजादी की लड़ाई के लिए उन्हें प्राणदंड दिया गया था।
आजादी की लड़ाई का सबक अब्दुल गफ्फार खान ने अपने दादा से सीखा था। शुरुआती शिक्षा के लिए मिशनरी स्कूल भेजे गये।मिशनरी स्कूल की पढ़ाई समाप्त करने के पश्चात वह अलीगढ़ गये। जहां वह देशसेवा में लग गए।
बादशाह खान का आजादी के लिए आह्वाहन
पेशावर में जब 1919 ई. में फौजी कानून लागू किया गया, तब वह गिरफ़्तार हुए। अंग्रेज सरकार उन पर विद्रोह का आरोप लगाकर जेल में बंद रखना चाहती थी, अत: अंग्रेजों की ओर से इस प्रकार के गवाह तैयार करने के प्रयत्न किए गए जो यह कहें कि बादशाह खान के भडक़ाने पर जनता ने तार तोड़े। किंतु कोई ऐसा व्यक्ति तैयार नहीं हुआ जो सरकार की तरफ से ये झूठी गवाही दे। फिर भी इस झूठे आरोप में उन्हें छह मास की सजा दी गई।
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1930 ई. में सत्याग्रह करने पर वह पुन: जेल भेजे गए। उनका तबादला आज के गुजरात जेल में कर दिया गया। जेल में उन्होंने सिख गुरुओं के ग्रंथ पढ़े। गीता का अध्ययन किया। गांधी इरविन समझौते के बाद खान साहब छोड़े गए।
आंदोलन के सिलसिले में कई बार गिरफ्तार
1934 ई. में जेल से छूटने के बाद वह वर्धा में रहने लगे। उन्होंने सारे देश का दौरा किया। 1942 के अगस्त आंदोलन के सिलसिले में वे गिरफ्तार किए गए। 1947 में छूटे। वह देश के विभाजन से सहमत न थे। जीवन पर्यन्त उन्होंने स्वतंत्र पख्तूनिस्तान आंदोलन आजीवन जारी रखा।
आजादी के तुरंत बाद कुर्सी की रेस में नेहरु-पटेल ने इस अकीदतमंद देशभक्त हिन्दुस्तानी से उनकी मातृभूमि जानबूझकर छिन जाने दिया। अंग्रेजी साम्राज्यवाद के इशारे पर काम करने वाले मोहम्मद अली जिन्ना की फ़ौज तले कुचलने दिया। कांग्रेसियों ने उन्हें मुस्लिम लीगी भेडिय़ों के जबड़े में ढकेला । बापू मूक रहे।
देश के विभाजन से असहमत थे बादशाह खान
बापू अमन पसंद गुजराती थे, जिन पर जैनियों और वैष्णवों की शांति-प्रियता का पारम्परिक घना प्रभाव था। मगर पठान, जिनकी कौम छूरी चलाती हो, दुनाली जिनका खिलौना हो, लाशें बिछाना जिनकी फितरत हो, लहू वाला लाल रंग जिसको पसंद हो। ऐसा पठान अमन तथा अहिंसा का फरिश्ता था! अपनी अफगानिस्तान यात्रा पर डॉ. राम मनोहर लोहिया ने काबुल में स्वास्थ्य—लाभ कर रहे बादशाह खान को भारत आने का न्योता दिया। 1969 में दिल्ली हवाई अड्डे पर उतरते ही तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उनकी काँख में दबी पोटली थामने की कोशिश की। मगर यह सादगी—पसंद फ़कीर अपना असबाब खुद ढोता रहा।
बादशाह खान ने पूछा था "लोहिया कहाँ है?
उसमें फकत एक जोड़ी खादी का कुर्ता-पैजामा और मंजन था। बादशाह खान ने पूछा था "लोहिया कहाँ है?" जवाब मिला उनका इंतकाल हो गया। सत्तावन साल में ही? फिर पूछा, उनका कोई वारिस? बताया गया: अविवाहित थे। गांधीवादी हीरालाल लोहिया की राम मनोहर लोहिया अकेली संतान थे।
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उन्हीं दिनों सितंबर में गुजरात में आज़ादी के बाद का सबसे भीषण दंगा हुआ। एक लाख मुसलमान प्रदर्शनकारी अहमदाबाद की सड़कों पर जुलूस निकालकर नारे लगा रहे थे: "इस्लाम से जो टकराएगा, मिट्टी में मिल जायेगा।"
एक ऐसा पठान जो था अमनप्रिय, शांतिदूत बनकर आये थे अहमदाबाद
कारण था कि अलअक्सा मस्जिद की मीनार पर किसी यहूदी ने तोड़फोड़ की थी। प्रतिक्रिया में हिन्दुओं ने रौद्र रूप दिखाया। तभी बादशाह खान शांतिदूत बनकर अहमदाबाद आये थे। गुजरात में बादशाह खान की तक़रीर हुई मस्जिद में, जुमे की नमाज के बाद वह बोले,"मैं कहता था तुम्हारे सरबराह नवाब, जमीनदार और सरमायेदार हैं। सब पाकिस्तान भाग जायेंगे। मुस्लिम लीग का साथ छोड़ो। तब तुम्हारे लोग मुझे ''हिंदूबच्चा'' कहते थे। आज कहाँ हैं वे सब?" दूसरे दिन हिन्दुओं की जनसभा में जाकर उन्होंने कहा,"कितना मारोगे मुसलमानों को? चीखते हो कि उन्हें पाकिस्तान भेजो या क़ब्रिस्तान। भारत में इतनी रेलें, जहाज और बसें नहीं हैं कि बीस करोड़ को सरहद पार भेज सको। साथ रहना सीखो। गांधीजी ने यही सिखाया था।"
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उन्हीं दिनों भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस दो फाड़ होने के कगार पर थी। कांग्रेस अध्यक्ष एस. निजलिंगप्पा, मोरारजी देसाई, एस. के. पाटिल, अतुल्य घोष आदि ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पार्टी से बरतरफ कर दिया था।
भारत-पाकिस्तान को एक करने पर बोले थे- मेरी नहीं सुनी गई
बादशाह खान से के विक्रम राव नाम के एक रिपोर्टर ने सवाल पूछा, " आप तो कांग्रेस से पच्चीस साल तक जुड़े रहे, दोनों धड़ों को मिलाने की कोशिश करेंगे?" उनका गला रुंधा था। नमी आ गयी थी , आर्त स्वर में बोले, "1947 मेरी नहीं सुनी गई। सब जिन्ना की जिद के आगे झुक गये थे। मुल्क की तकसीम मान लिया। आज कौन मेरी सुनेगा?"कांग्रेस "वैसी नहीं रही जो बापू के वक्त थी । आज तो सियासतदां ख़ुदगर्जी से भर गये हैं।" उन्हें यह बात सालती रही कि दुनिया को अपना कुटुंब कहने वाला हिन्दू भी फिरकापरस्त हो गया है। कट्टर मुस्लिमपरस्ती के तो वे स्वयं चालीस साल तक शिकार रहे। बादशाह खान का त्यागमय जीवन उसूलों का पर्याय है।
बादशाह खां की जगह अटल बिहारी वाजपेयी के नाम हरियाणा का अस्पताल
यह रही उन बादशाह खां की बात जिनके नाम पर बने अस्पताल का नाम खट्टर सरकार अटल बिहारी वाजपेयी के नाम करना चाहती थी। यह सच्चाई भी जानना ज़रूरी है कि मुस्लिम लीग द्वारा पाकिस्तानी पेशावर से खदेड़े गये हिन्दुओं ने फरीदाबाद के न्यू इंडस्ट्रियल टाउन में बसकर अपने चन्दे से इस अस्पताल का निर्माण कराया । उसका नाम अपने रक्षक व नायक सीमांत सीमांत गांधी खान अब्दुल गफ्फार खां पर रखा। उद्घाटन जवाहर लाल नेहरू ने 5 जून, 1951 को किया था। नेहरू ही बादशाह खान व उनके लोगों को " जिन्ना के भेडिय़ों" के मुँह में धकेलने वालों में थे।
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हैरतअंगेज़ यह है कि यह नामांतरण न हो यह बुद्धि सरकारी नुमाइंदों को नहीं आई। बल्कि इस लोकाभियान के प्रमुख भाटिया समाज के मोहन सिंह , केवल राम, बसंत खट्टर आदि रहे। इन सब की आयु 80 के करीब है। ये सब हिन्दू शरणार्थियों के पुरोधा हैं। फरीदाबाद के नागरिकों तथा कुछ मीडियाजन , जिसमें सौरभ दुग्गल का नाम ले सकते हैं, के अभियान के फलस्वरूप नामान्तरण का यह प्रस्ताव टालना पड़ा। पर प्रधानमंत्री कार्यालय से भी जागने और ऐसे सवालों पर कदम उठाने की अपेक्षा है।
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ।)
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