ऋतुपर्ण दवे
विकासशील देशों में कृषि के विकास के लिए जरूरी ‘खाद्य एवं कृषि संगठन’ (एफएओ) की स्थापना ७३ वर्ष पहले कनाडा में की गई थी जो बदलती तकनीक जैसे कृषि, पर्यावरण, पोषक तत्व और खाद्य सुरक्षा के बारे में जानकारी देता है। इसके परिप्रेक्ष्य में भारत में आज कृषि, पोषक तत्व और खाद्य सुरक्षा की स्थिति क्या है ये ग्लोबल हंगर इंडेक्स के आंकड़े ही बयां करने को काफी हैं।
अब इसे विडंबना कहें या दुर्भाग्य कि ‘ग्लोबल हंगर इंडेक्स’ यानी जीएचआई में भारत इस बार और नीचे गिरकर 103वें रैंक पर आ पहुंचा है। दुर्भाग्य इसलिए भी कि इस सूची में कुल 119 देश ही हैं। यकीनन साल दर साल रैंकिंग में आई गिरावट चिंताजनक है। राजनीति से इतर यह राजनीति का मुद्दा जरूर बन गया है, क्योंकि 2014 में मौजूदा सरकार के सत्ता सम्हालते समय जहां यह 55वें रैंक पर था, वहीं 2015 में 80वें, 2016 में 97वें और पिछले साल 100वें और इस बार तीन सीढिय़ां और लुढक़ गया।
ग्लोबल हंगर इंडेक्स में दुनिया के विभिन्न देशों में खानपान की स्थिति का जो वर्णन होता है जो कि वैश्विक, क्षेत्रीय तथा राष्ट्रीय स्तर पर भुखमरी का आकलन है। बेशक भूख अब भी दुनिया में एक बड़ी समस्या है और इसमें कोई झिझक नहीं कि भारत में दशा बदतर है। हम चाहे तरक्की और विज्ञान की कितनी भी बात कर लें, लेकिन भूख के आंकड़े हमें चौंकाते भी हैं और सोचने को मजबूर कर देते हैं। केवल उपलब्ध आंकड़ों का ही विश्लेषण करें तो स्थिति की भयावहता और भी परेशान कर देती है।
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दुनिया भर में जहां करीब 50 लाख बच्चे कुपोषण के चलते जान गंवाते हैं, वहीं गरीब देशों में 40 प्रतिशत बच्चे कमजोर शरीर और दिमाग के साथ बड़े होते हैं। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट बताती है कि दुनिया में 85 करोड़ 30 लाख लोग भुखमरी का शिकार हैं। अकेले भारत में भूखे लोगों की तादाद लगभग 20 करोड़ से ज्यादा है, जबकि संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन यानी एफएओ की एक रिपोर्ट बताती है कि रोजाना भारतीय जनता 244 करोड़ रुपए (पूरे साल में करीब 89060 करोड़ रुपए) का भोजन बर्बाद कर देती है। इतनी रकम से 20 करोड़ से कहीं ज्यादा पेट भरे जा सकते हैं, लेकिन इसके लिए न सामाजिक चेतना जगाई जा रही है और न ही कोई सरकारी कार्यक्रम या योजना है।
इसका मतलब यह हुआ कि भारत की आबादी का लगभग पांचवां हिस्सा कहीं न कहीं हर दिन भूखा सोने मजबूर है, जिससे हर वर्ष लाखों जान चली जाती हैं।
‘ग्लोबल हंगर इंडेक्स’ के आंकड़ों को सच मानें तो रोजाना 3000 बच्चे भूख से मर जाते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि भूखे लोगों की करीब 23 प्रतिशत आबादी अकेले भारत में है, यानी हालात अमूमन उत्तर कोरिया जैसे ही हैं। शायद यही कारण है कि भारत में पांच साल से कम उम्र के 38 प्रतिशत बच्चे सही पोषण के अभाव में जीने को मजबूर हैं और इसके चलते उनके मानसिक और शारीरिक विकास, पढ़ाई लिखाई और बौद्धिक स्तर पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
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भूख के आंकड़ों के हिसाब से भारत की स्थिति नेपाल और बांग्लादेश जैसे पड़ोसियों से भी बदतर है। इस बार बेलारूस जहां शीर्ष पर है, वहीं पड़ोसी चीन 25वें, श्रीलंका 67वें और म्यांमार 68वें बांग्लादेश 86वें और नेपाल 72वें रैंक पर है। तसल्ली के लिए कह सकते हैं कि पाकिस्तान हमसे नीचे 106वें पायदान पर है।
तस्वीर का दूसरा पहलू बेहद हैरान करता है, क्योंकि यह आंकड़े तब आए हैं जब भारत गरीबी और भूखमरी को दूर कर विकासशील से विकसित देशों की कतार में शामिल होने के खातिर जोर-शोर से कोशिश कर रहा है। एक ओर सरकार का दावा है कि तमाम योजनाएं चलाई जा रही हैं, नीतियां बना रही हैं और उसी अनुरूप विकास कार्य किए जा रहे हैं।
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स्वराज अभियान की याचिका पर 2016 में सर्वोच्च न्यायालय ने भूख और अन्न सुरक्षा के मामले में केंद्र और राज्य सरकारों की बेरुखी को लेकर कम से कम 5 बार आदेशए निर्देश दिए। यह तक कहा कि संसद के बनाए ऐसे कानूनों का क्या उपयोग जिसे राज्य और केंद्र की सरकारें लागू ही न करें! इशारा कहीं न कहीं नेशनल फूड सिक्योरिटी एक्ट 2013 के प्रति सरकारी बेरुखी की ओर था।
तस्वीर का तीसरा पहलू और भी चौंकाने वाला है, जिसमें संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम का ‘2018 बहुआयामी वैश्विक गरीबी सूचकांक’ बताता है कि बीते एक दशक यानी वर्ष 2005-06 से 2015-16 के बीच भारत में 27 करोड़ लोग गरीबी रेखा से बाहर निकल गए हैं। इसी पर संयुक्त राष्ट्र महासभा के 73वें अधिवेशन में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने गरीबी दूर करने के लिए भारत की तारीफों के पुल भी बांधे थे तथा लाखों लोगों को गरीबी रेखा से बाहर निकालने के उन्होंने सरकार की पीठ थपथपाई थी।
वहीं चंद दिनों बाद आए ‘ग्लोबल हंगर इंडेक्स’ ने सभी के दावों और आंकड़ों पर सवालिया निशान खड़े कर दिए हैं या यूं कहें कि वे एक-दूसरे का मुंह चिढ़ा रहे हैं।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)