Global Tiger Forum: हर तरफ़ सिकुड़ता स्पेस, डरा रहा बाघों की संख्या का तेजी से बढ़ना

Global Tiger Forum: बाघों की वाकई हमें फिक्र है तो भारत में इनकी लिमिट 4 हजार तय कर दी जानी चाहिए। इनका तर्क वाजिब है। भारत में 53 टाइगर रिजर्व हैं। आप किसी सीमित क्षेत्र में बाघों को ठूंस-ठूंस कर नहीं भर सकते।

Update:2023-06-15 10:38 IST
Global Tiger Forum (Pic: Social Media)

Global Tiger Forum: ग्लोबल टाइगर फोरम जैसे विशेषज्ञों की चिंता है कि जिस रफ्तार से बाघ बढ़ रहे हैं उससे कहीं इनकी स्थिति नीलगाय जैसी न हो जाये। जिसे न मारा जाए न झेला जाए। बाघों की वाकई हमें फिक्र है तो भारत में इनकी लिमिट 4 हजार तय कर दी जानी चाहिए। इनका तर्क वाजिब है। भारत में 53 टाइगर रिजर्व हैं। आप किसी सीमित क्षेत्र में बाघों को ठूंस-ठूंस कर नहीं भर सकते।

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200 साल पहले भारत में शायद 50 हजार बाघ थे। इनकी संख्या घटते-घटते 2006 में 1411 रह गई। लेकिन अब इनकी तादाद 3167 हो चुकी है। आगे बढ़ती जानी है। बाघों की बढ़ती आबादी से ज्यादातर लोग खुश हैं कि हमने विलुप्त होने की कगार पर पहुंच चुके बाघों को बचा लिया है। लेकिन कुछ लोग चिंतित भी हैं। ग्लोबल टाइगर फोरम जैसे विशेषज्ञों की चिंता है कि जिस रफ्तार से बाघ बढ़ रहे हैं उससे कहीं इनकी स्थिति नीलगाय जैसी न हो जाये। जिसे न मारा जाए न झेला जाए। बाघों की वाकई हमें फिक्र है तो भारत में इनकी लिमिट 4 हजार तय कर दी जानी चाहिए। इनका तर्क वाजिब है। भारत में 53 टाइगर रिजर्व हैं। उन सबकी एक कैपेसिटी है। हर बाघ की अपनी निजी टेरिटरी होती है। उसे जगह चाहिए।

आप किसी सीमित क्षेत्र में बाघों को ठूंस-ठूंस कर नहीं भर सकते। बाघ को जितनी जगह चाहिए अगर उतनी नहीं मिली तो अंजाम बुरे होते हैं। बाघ को शिकार नहीं मिलेगा तो वह जंगल से बाहर निकलेगा और शिकार ढूंढेगा। ऐसा अब बहुत होने भी लगा है। बाघ हो या तेंदुआ, इंसानी बस्तियों में जाने को मजबूर हो गए हैं। अभ्यारण्य में जगह कम पड़ने लगी है। बाघ हों या तेंदुए, शामत उन्हीं की है। वन सर्वेक्षण के निष्कर्षों को साझा करते हुए केंद्रीय मंत्री ने बताया कि देश का कुल वन और वृक्षों से बना क्षेत्र 80.9 मिलियन हेक्टेयर है। जो कुल भौगोलिक क्षेत्र का 24.62 प्रतिशत है। मध्यम घने जंगलों या प्राकृतिक वन में 1582 वर्ग किलोमीटर की गिरावट आई है। झाड़ी क्षेत्र में 5320 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि हुई है। जो इस क्षेत्रों वनों के पूर्ण क्षरण को दर्शाती है।

ठीक यही शामत इंसानों की है। इंसानों के अभ्यारण्य यानी उनके शहर ठसाठस भरे हुए हैं। मुंबई, दिल्ली, बंगलुरू, चेन्नई, कोलकाता से लेकर लखनऊ, इंदौर, गुवाहाटी, पटना .... कोई भी नाम ले लीजिए। बाघ को जिस तरह शिकार चाहिए, वैसे ही इंसानों को बिजली, पानी, ट्रांसपोर्ट, सफाई, व्यवस्था चाहिए। लेकिन गाँव कस्बों से लगातार लोगों द्वारा शहरी ‘‘अभ्यारण्य‘‘ में आगमन से सब चीजें शॉर्ट सप्लाई में हो गईं हैं। इंतजाम बहुत कम पड़ गए हैं। बेसिक जरूरतों को पूरा करना ही संघर्ष बन गया है।

बेंगलुरु में करीब एक करोड़ जनसंख्या है और क्षेत्रफल के हिसाब से प्रति वर्ग किलोमीटर में 12,000 लोग रहते हैं। हैदराबाद में 10,477, अहमदाबाद में 11000, चेन्नई में 17000, कोलकाता में 22000, पुणे में 9400। 631 वर्ग किलोमीटर वाले लखनऊ में प्रति वर्ग किलोमीटर में 8100 लोग रहते हैं। यूं ही शहर ठसाठस भरे हैं। ठीक उसी तरह जैसे किसी ट्रेन के जनरल डिब्बे में ठूंसठूंस कर लोग भरे होते हैं। जगह लिमिटेड है पर टिकट अनलिमिटेड उपलब्ध हैं। आते जाओ, ठूंसते जाओ।

मुंबई का उदाहरण लेते हैं। यहां पिछले 30 वर्षों में लगभग 80 लाख लोग बढ़कर 2 करोड़ की आबादी हो गए हैं और 2035 तक और 70 लाख और लोग जुड़ जाएंगे। बाकी बड़े शहरों की तरह मुंबई में रहने की जगह, ट्रांसपोर्ट, पानी, कूड़ा निपटान, वगैरह जैसे बुनियादी इंफ्रास्ट्रक्चर में आबादी की तुलना में बहुत पीछे हैं। आलम यह है कि इस मेगासिटी में लगभग 40 प्रतिशत लोग झुग्गी-झोपड़ियों में रहते हैं।
अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी के अनुसार 2040 तक, 27 करोड़ और लोग भारतीय शहरों में रहने लगेंगे। लखनऊ हो या पटना या फिर बेंगलुरु, सभी शहरों में ग्राउंड वाटर लेवल लगातार नीचे जा रहा है। प्रदूषण स्तर बढ़ता जा रहा है। वेस्टमैनेजमेंट दुरुस्त हो ही नहीं पा रहा। मकान कम पड़ते जा रहे हैं। ट्रैफिक बढ़ता ही जा रहा है। जितने फ्लाईओवर बनाओ, कम पड़ जाते हैं।

दरअसल, जितना इंफ्रास्ट्रक्चर जोड़ा जाता है, जनसंख्या उससे कहीं आगे भाग जाती है। ऐसा भी नहीं कि शहरी लोग ज्यादा बच्चे पैदा कर रहे हैं। बल्कि शहरी जनसंख्या बढ़ती जा रही है। कस्बों गांवों से लगातार आने वालों की वजह है। शहर कस्बे सरीखे हो चले हैं। कोई करे तो करे भी क्या। गांव कस्बे वाले करें तो करें क्या? दाना पानी कमाने के लिए, पढ़ने, इलाज कराने के लिए निकलना मजबूरी है। जो चला गया वह फिर कस्बे या गाँव में लौट कर बसने से रहा। यही वजह है कि जो इक्का दुक्का लौट कर गांव में कुछ बड़ा करते हैं वो सेलिब्रेटी की तरह खबर बन जाते हैं।

शहर में जगह सीमित है सो आसपास के गांवों को समेट कर शहर का विस्तार कर दिया जाता है। कल के पड़ोस वाले गांव शहर का तमगा पा लेते हैं और उसी पानी, बिजली, सड़क ट्रैफिक, गंदगी जैसी दिक्कतों से जूझने लगते हैं। जो कभी खुली हवा में सांस लेते थे, वो बीसियों मंजिलों की बिल्डिंग में कबूतरखाने नुमा अपार्टमेंट्स में सिमट जाते हैं। जमीन से सैकड़ों फुट ऊपर भी हवा तंग करती है और नीचे उतरने पर धूल धुआं और गुबार फेफड़े जकड़ लेते हैं। मजबूरी है कि हम शहर में हैं।

विश्व बैंक की 2015 की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत का शहरीकरण अघोषित व अस्त व्यस्त हैं। शहरी विस्तार कुल आबादी का 53.3 प्रतिशत है। हालाँकि जनगणना के आँकड़े इसे 31.2 फीसदी बताते हैं। जनसंख्या घनत्व चार सौ व्यक्ति वर्ग किलोमीटर से कम नहीं होना चाहिये। विश्व बैंक के आँकड़ों के मुताबिक दुनिया की 54 फीसदी से अधिक आबादी शहरों में निवास करती हैं। जो सकल घरेलू उत्पाद में 80 फीसदी का योगदान करती हैं। वैश्विक ऊर्जा के दो तिहाई हिस्से का उपयोग करती हैं तथा सत्तर फीसदी ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए भी जिम्मेदार है। पर हर शहरों के बहुत से इलाकों में चार सौ व्यक्ति वाले जनसंख्या घनत्व के पैमाने कब के पीछे छूट चुके हैं। अब अगर बाघों या अन्य किसी भी जानवरों को बचाने का सवाल हो या फिर इंसान को तो हमें उन्हें उनके जीने के लिए स्पेस तो देनी ही पड़ेगी। जानवरों के लिहाज से यह स्पेस पूरी तरह चुक गई है। आदमियों के मामले में स्पेस निरंतर सिकुड़ रही है। भारत का क्षेत्रफल 23,87,263 वर्ग किलोमीटर है। जनसंख्या 140 करोड़ के आसपास मानते हैं। इस लिहाज से हर आदमी को रहने के लिए केवल .0023 वर्ग किलोमीटर की जगह ही मिल पायेगी।
( लेखक पत्रकार हैं। दैनिक पूर्वोदय से साभार।)

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