एक प्रवासी का संकल्प - ये श्राप नहीं हैं भगवान के

लेकिन वहीँ लोगों ने पूरे लॉकडाउन में क्या किया , कैसे उन्होंने इतने दिन भूंख और प्यास में काटे, मजूदरों के इसी दर्द और मज़बूरी को अपनी कविता के माध्यम से ओमप्रकाश मिश्रा जी ने सबको बताने कि कोशिश की है।

Update:2020-06-12 12:09 IST

प्रयागराज: कोरोना वायरस के बढ़ते प्रकोप के कारण सभी लोगों को हर रोज़ नई नई मुश्किलों का सामना करना पढ़ रहा था । इस महामारी में कई मजदूर व गरीब लोग ऐसे भी थे जो सही समय में अपने घर नहीं पहुँच पाएं थे। केंद्र सरकार ने अब देश में अनलॉक का पहला चरण लागू किया है जिसकी वजह से कई प्रवासी मजदूर अपने घर को लौट आएं है । लेकिन वहीँ लोगों ने पूरे लॉकडाउन में क्या किया , कैसे उन्होंने इतने दिन भूंख और प्यास में काटे, मजूदरों के इसी दर्द और मज़बूरी को अपनी कविता के माध्यम से ओमप्रकाश मिश्रा जी ने सबको बताने कि कोशिश की है।

‘‘एक प्रवासी का संकल्प‘‘

ओम प्रकाश मिश्र

पूर्व रेल अधिकारी व पूर्व प्राध्यापक, अर्थशास्त्र,

इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज

उ0प्र0 पिन 211015

बाढ़, सूखा, महामारी

तूफान व दुर्भिक्ष

त्रासदियों की चपेट

श्राप नहीं हैं भगवान के।।

चौथी बड़ी लड़ाई निश्चिततः लड़ी जायगी

पत्थरों से

तीसरी बड़ी लड़ाई की चर्चा ही है

भयावह।।

सृष्टि से आज तक,

मनु व श्रद्धा से,

आदम व हौवा से,

सारी मानवजाति

ढूढ़ रही है ठौर,

जंगलों /दरिया के किनारे

समतल मैदानों में,

गुफाओं में, समुद्र के किनारे,

अट्टालिकाओं में, झुग्गियों में

ढूढ़ रहे है आशियाना

अनवरत।।

बुद्ध परेशान थे,

मौत, बुढ़ापे व बीमारी से,

हम परेशान हैं

प्रकृति उजाड़ने में

उसका पूर्ण विध्वंस करने में।।

आकाश से पाताल तक,

धरती से समुन्दर तक,

ढूढ़ रहे हैं

खाद्य पदार्थ, रत्न और अस्त्र,

कोई तपस्या नहीं करनी

जो करना है वह ईष्र्या, दम्भ के हथियार से

शैतान को जिन्दा करने में,

मजबूत करने मेें,

आदमी का शैतान

सर पर चढ़कर चिल्लाता है,

और सो रहा है आदमी,

पहले गाँव के गाँव भागे,

शहर की ओर

झुग्गियों में बसे

महामारी से भागे

फिर गाँव की ओर।।

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बाढ़ व सूखे में

हेलीकाप्टरों से गिरती रोटियाँ,

राहत सामग्री के पैकेट

तोड़ते पत्थरों वाली बेटी

‘‘प्रवासी‘‘ का तमगा

घर-बेघर-अनजानी

डाॅक्टर कभी मरीज को देखता है

कभी उसकी नाड़ी।।

स्वयम तिन्दु की लकड़ी बनकर

हव्य बनता ही होगा

राम और युधिष्ठिर को विजय दिलाने

घन घोर अन्धकार में

जलाना ही होगा

छोटा सा दीपक।।

रक्तबीज कोराना,

नवीन राक्षस नहीं हैं,

यह बदलता है रूप

प्राचीन राक्षसों के वंशजों की तरह।।

‘कुर्ला‘ से जौनपुर का आदमी

जिसका नामकरण अब ‘‘प्रवासी‘‘ है

पहले ‘खोली‘ में रहता था,

कुछ पहले पूना चला गया था,

भारी पगड़ी लेकर,

कारखाना जाने का सफर,

कुछ घंटे और बढ़ा गया,

फर्क सिर्फ था कि

पहले पाँच घंटे दुनिया से दूर था।

और अब मात्र ढ़ाई घंटे।।

‘अंधेरी‘ के उसके रिश्तेदार

रिश्ता तलाशने जाते थे-

बनारस-जौनपुर और सुल्तानपुर

अब सारे भागे जा रहे

‘प्रवासी‘ का ठप्पा लेकर।।

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पहले भी वह, लोकल ट्रेन का,

खुला दरवाजा था,

आज भी है।

कहते हैं, पत्थर तोड़कर,

पहाड़ काटकर रास्ते बनते है

निराला के राम की,

पूजा शक्ति की, ‘केवल जलती मशाल‘

तिमिर पार करना ही होगा

होगी निश्चिततः जय।।

जब फूलों से तितली डरेगी नहीं,

चिड़िया फिर दाने चुनेगी,

चिड़िमारों का खौफ नहीं होगा,

लालच का शैतान

जा चुका होगा कब्र में।।

सूरज वही है,

हम वंशज है तपस्वियों के,

भले कलियुग का चैथा चरण हो,

हम जीतेगें,

हम पूजक रहे हैं प्रकृति के,

धरती माता के।।

‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्‘‘

और लोक शक्ति भाव

हमारी विजय यात्रा बढ़ायेगा

निर्विघ्न।।

ओम प्रकाश मिश्र

पूर्व रेल अधिकारी व पूर्व प्राध्यापक, अर्थशास्त्र,

इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज

उ0प्र0 पिन 211015

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