भारत में समलैंगिक विवाह को मान्यता पर लंबी चलेगी कानूनी लड़ाई, HC का ऐसे विवाह को मान्यता देने से इंकार
समलैंगिक विवाहों के पंजीकरण के लिए कई याचिकाओं पर दिल्ली उच्च न्यायालय में सुनवाई चल रही है। इस पर अब 17 मई को सुनवाई होनी है।
हमारे देश में समलैंगिक संबंधों को अपराध के दायरे से बाहर करने की न्यायिक व्यवस्था के बाद से ऐसे जोड़ों के विवाह के पंजीकरण और उन्हें मान्यता देने का मुद्दा पिछले दो साल से न्यायिक समीक्षा के दायरे में है।
समलैंगिक जोड़े चाहते हैं कि उनके विवाह को मौलिक अधिकार के रूप में कानूनी मान्यता प्रदान की जाए और इसके लिए हिन्दू विवाह कानून, विशेष विवाह कानून और विदेशी विवाह कानून में संशोधन के लिए उचित निर्देश दिये जाएं ताकि उनकी शादी का पंजीकरण हो सके। लेकिन केंद्र सरकार इसके लिए तैयार नहीं है। वह इस विषय पर व्यापक मंथन के बाद ही किसी नतीजे पर पहुंचना चाहती है।
समलैंगिक विवाह को मान्यता
समलैंगिक विवाहों के पंजीकरण के लिए कई याचिकाओं पर दिल्ली उच्च न्यायालय में सुनवाई चल रही है। उच्च न्यायालय के दो न्यायाधीशों की पीठ ने इस मामले में केंद्र से भी जवाब मांगा है और इस पर अब 17 मई को सुनवाई होनी है।
लेकिन, इसी बीच, इलाहाबाद उच्च न्यायालय की एकल पीठ ने समलैंगिक विवाह को मान्यता देने से इंकार करते हुए इसके लिए दायर याचिका हाल ही में खारिज कर दी है।
इस मामले में न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव की एकल पीठ ने एक युवती की मां की बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका का निस्तारण करते यह फैसला सुनाया। युवती की मां का दावा था कि दूसरी महिला ने उसकी बेटी को जबरन गैरकानूनी तरीके से बंधक बना रखा है।
बहरहाल, इस युवती को न्यायालय में पेश किया गया तो उसने न्यायाधीश को बताया कि वे दोनों वयस्क हैं और एक दूसरे से प्यार करते हैं तथा उसने दूसरी युवती के साथ स्वेच्छा से समलैंगिक विवाह कर लिया है।
इस विवाह को मान्यता देने की गुहार लगाते हुए उन्होंने कहा कि उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने छह सितंबर, 2018 को नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत सरकार प्रकरण में समलैंगिक जोड़ों को स्वेच्छा से साथ रहने की अनुमति प्रदान कर ही है। यही नहीं, शीर्ष अदालत ने अपने फैसले में स्पष्ट कहा है कि कि एलजीबीटीक्यू समुदाय के सदस्यों को भी संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों के तहत गरिमा के साथ जीने का हक है।
समलैंगिक यौन रिश्तों को अपराध के दायरे से बाहर रखने के फैसले के बाद उठने वाले मुद्दों की ओर भी केंद्र ने शीर्ष अदालत का ध्यान आकर्षित किया था। लेकिन बाद में उनसे समलैंगिक रिश्तों से उठने वाले मुद्दे न्यायालय के विवेक पर छोड़ दिये थे।
संविधान पीठ की इस व्यवस्था के साथ ही आशंका व्यक्त की जा रही थी कि निकट भविष्य में समलैंगिक जीवन गुजार रहे जोड़ों की शादी, उनके द्वारा बच्चे गोद लेने की कवायद, ऐसे जोड़ों में उत्तराधिकारी का मुद्दा, घरेलू हिंसा और संबंध विच्छेद होने की स्थिति में गुजारा भत्ता जैसे मुद्दे भी उठेंगे तो उनका क्या होगा क्योंकि इनका संबंध दूसरे कानूनों से है।
दो वयस्कों के बीच स्वेच्छा से समलैंगिक यौनाचार को अपराध के दायरे से बाहर करने के फैसले के बाद वैसा ही हुआ जिसकी आशंका व्यक्त की जा रही थी। समलैंगिक विवाह करने वाले कम से कम आठ जोड़ों ने अपनी शादी के पंजीकरण की समस्या को लेकर दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिकाएं दायर कर रखी हैं। इन याचिकाओं में उठाये गए सवालों का समाधान खोजना निश्चित ही न्यायपालिका के एक चुनौतीपूर्ण काम है।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने हालांकि, ऐसे विवाह को मान्यता देने से इंकार इस पर फिलहाल विराम लगा दिया है। लेकिन अभी दिल्ली उच्च न्यायालय की व्यवस्था का इंतजार है।
दूसरी ओर, दिल्ली उच्च न्यायालय ने समलैंगिक विवाहों को मान्यता देने के सवाल पर विभिन्न याचिकाओं पर केंद्र से जवाब मांगा था। केन्द्र सरकार ने शुरू में उच्च न्यायालय से कहा था कि भारत में कानून समलैंगिक विवाह की अनुमति नहीं देता है। भारतीय कानून व्यवस्था में सिर्फ जैविक पुरुष और जैविक महिला के बीच ही विवाह हो सकता है।
केन्द्र सरकार ने अपने हलफनामे में यह भी कहा था कि भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के तहत समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर किये जाने के बावजूद समलैंगिक विवाह का मौलिक अधिकार नहीं है।
गैर सरकारी संगठन सेवा न्याय उत्थान फाउंडेशन ने इस मामले में हस्तक्षेप की अनुमति मांगी है। इस संगठन का कहना है कि हिन्दू विवाह कानून के अंतर्गत समलैंगिक विवाहों को अनुमति नहीं दी जानी चाहिए क्योंकि ऐसा करना हिन्दू समाज के धार्मिक अधिकारों में पंथनिरपेक्ष शासन का हस्तक्षेप होगा।
चूंकि इस समय देश में विभिन्न धर्मों के कानूनों में समलैंगिक जोड़ों के विवाह का कोई प्रावधान नहीं है, इसलिए ऐसे विवादों का समाधान खोजने की जिम्मेदारी भी न्यायपालिका पर ही आ गई है।
दो महिलाओं के विवाह के मामले में सुनवाई के दौरान उत्तर प्रदेश सरकार ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि भारत वर्ष भारतीय संस्कृति, धर्म और भारतीय विधि के अनुसार चलता है। हमारे यहां विवाह को एक पवित्र संस्कार माना गया है जबकि दूसरे देशों में यह एक अनुबंध होता है।
हिन्दू विवाह अधिनियम में भी एक विवाह के लिए एक पुरुष और एक स्त्री की बात कही गयी है। स्त्री पुरुष के अभाव में भारतीय परिवेश में यह विवाह स्वीकार नहीं किया जा सकता है। यहां तक कि मुस्लिम, बौद्ध, सिख और जैन धर्म आदि में भी समलैंगिक विवाह मान्य नहीं है।
उच्च न्यायालय ने अपने चार पेज के फैसले में सारे तथ्यों के आलोक में कहा कि समलैंगिक विवाह को मान्यता नहीं दी जा सकती और उसने बंदी प्रत्यक्षीकरण का निस्तारण कर दिया।
समलैंगिक विवाह की मान्यता, इनका पंजीकरण और इससे संबंधित दूसरे सवाल बहुत ही संवेदनशील हैं और अंतत: इनके बारे में देश की सर्वोच्च न्यायपालिका को ही देर सवेर अपनी सुविचारित व्यवस्था देनी होगी।