स्वामी दयानन्द सरस्वतीः राष्ट्रक्रांति के उन्नायक

स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म 12 फरवरी सन् 1824 में काठियावाड़ क्षेत्र (जिला राजकोट), गुजरात में टंकरा नामक स्थान पर हुआ था। उनके पिता कृष्णजी लालजी तिवारी एक कर-कलेक्टर होने के साथ ब्राह्मण परिवार के एक अमीर, समृद्ध और प्रभावशाली व्यक्ति थे।

Update: 2021-02-12 09:04 GMT
महापुरुषों की कीर्ति किसी एक युग तक सीमित नहीं रहती। उनका लोकहितकारी चिन्तन त्रैकालिक, सार्वभैमिक एवं सार्वदेशिक होता है और युग-युगों तक समाज का पथदर्शन करता है।

ललित गर्ग

महापुरुषों की कीर्ति किसी एक युग तक सीमित नहीं रहती। उनका लोकहितकारी चिन्तन त्रैकालिक, सार्वभैमिक एवं सार्वदेशिक होता है और युग-युगों तक समाज का पथदर्शन करता है। स्वामी दयानंद सरस्वती हमारे समाज एवं राष्ट्र के ऐसे ही एक प्रकाश स्तंभ हैं, जिन्होंने न केवल धर्मक्रांति की बल्कि राष्ट्रक्रांति के भी वे प्रेरक बने। वे उन महान संतों-महापुरुषों में अग्रणी हैं जिन्होंने देश में प्रचलित अंधविश्वास, रूढ़िवादिता, विभिन्न प्रकार के आडंबरों व सभी अमानवीय आचरणों का विरोध किया। वे आधुनिक भारत के महान् चिन्तक, समाज सुधारक, क्रांतिकारी धर्मगुरु व देशभक्त थे। हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता देने तथा हिंदू धर्म के उत्थान व इसके स्वाभिमान को जगाने हेतु स्वामीजी के महत्वपूर्ण योगदान के लिए भारतीय जनमानस सदैव उनका ऋणी रहेगा।

स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म 12 फरवरी सन् 1824 में काठियावाड़ क्षेत्र (जिला राजकोट), गुजरात में टंकरा नामक स्थान पर हुआ था। उनके पिता कृष्णजी लालजी तिवारी एक कर-कलेक्टर होने के साथ ब्राह्मण परिवार के एक अमीर, समृद्ध और प्रभावशाली व्यक्ति थे। दयानंद सरस्वती का असली नाम मूलशंकर था और उनका प्रारम्भिक जीवन बहुत आराम से बीता। आगे चलकर एक पण्डित-मनीषी बनने के लिए वे संस्कृत, वेद, शास्त्रों व अन्य धार्मिक पुस्तकों के अध्ययन में लग गए।

महर्षि दयानन्द के हृदय में आदर्शवाद की उच्च भावना, यथार्थवादी मार्ग अपनाने की सहज प्रवृत्ति, मातृभूमि को नई दिशा देने का अदम्य उत्साह, धार्मिक-सामाजिक-आर्थिक व राजनैतिक दृष्टि से युगानुकूल चिन्तन करने की तीव्र इच्छा तथा भारतीय जनता में गौरवमय अतीत के प्रति निष्ठा जगाने की भावना थी। उन्होंने किसी के विरोध तथा निन्दा की परवाह किये बिना हिन्दू समाज का कायाकल्प करना अपना ध्येय बना लिया था।

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स्वामी दयानंद सरस्वती ने 1875 में गिरगांव मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना की। आर्यसमाज के नियम और सिद्धांत प्राणिमात्र के कल्याण के लिए है, संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना। उन्होंने वेदों की सत्ता को सदा सर्वोपरि माना। स्वामीजी ने कर्म सिद्धान्त, पुनर्जन्म, ब्रह्मचर्य तथा संन्यास को अपने दर्शन के चार स्तम्भ बनाया। उन्होंने ही सबसे पहले 1876 में स्वराज्य का नारा दिया जिसे बाद में लोकमान्य तिलक ने आगे बढ़ाया।

सत्यार्थ प्रकाश के लेखन में उन्होंने भक्ति-ज्ञान के अतिरिक्त समाज के नैतिक उत्थान एवं समाज-सुधार पर भी जोर दिया उन्होंने समाज की कपट वृत्ति, दंभ, क्रूरता, अनाचार, आडम्बर, एवं महिला अत्याचार की भत्र्सना करने में संकोच नहीं किया। उन्होंने धर्म के क्षेत्र में व्याप्त अंधविश्वास, कुरीतियों एवं ढकोसलों का विरोध किया और धर्म के वास्तविक स्वरूप को स्थापित किया। उनके जीवन में ऐसी बहुत सी घटनाएं हुईं, जिन्होंने उन्हें हिन्दू धर्म की पारम्परिक मान्यताओं और ईश्वर से जुड़ी भ्रान्त धारणाओं को बदलने के लिये विवश किया।

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अपनी छोटी बहन और चाचा की हैजे के कारण हुई मृत्यु से वे जीवन-मरण के अर्थ पर गहराई से सोचने लगे और वे 1846 में सत्य की खोज में निकल पड़े। गुरु विरजानन्द के पास पहुंचे। गुरुवर ने उन्हें पाणिनी व्याकरण, पातंजलि-योगसूत्र तथा वेद-वेदांग का अध्ययन कराया। गुरु दक्षिणा में उन्होंने मांगा- विद्या को सफल कर दिखाओ, परोपकार करो, सत्य शास्त्रों का उद्धार करो, मत-मतांतरों की अविद्या को मिटाओ, वेद के प्रकाश से इस अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करो, वैदिक धर्म का आलोक सर्वत्र विकीर्ण करो। यही तुम्हारी गुरुदक्षिणा है।

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ईसाई और मुस्लिम धर्मग्रन्थों का भली-भांति अध्ययन-मन्थन किया था। उन्होंने ईसाइयत और इस्लाम के विरूद्ध मोर्चा खोला, सनातनधर्मी हिंदुओं के खिलाफ संघर्ष किया। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने न केवल धर्मक्रांति की बल्कि परतंत्रता में जकड़े देश को आजादी दिलाने के लिये राष्ट्रक्रांति का बिगुल भी बजा दिया। सन् 1857 की क्रान्ति की सम्पूर्ण योजना भी स्वामीजी के नेतृत्व में ही तैयार की गई थी और वही उसके प्रमुख सूत्रधार भी थे।

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स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज के माध्यम से समाज-सुधार के अनेक कार्य किए। छुआछूत, सती प्रथा, बाल विवाह, नर बलि, धार्मिक संकीर्णता तथा अन्धविश्वासों के विरुद्ध उन्होंने जमकर प्रचार किया और विधवा विवाह, धार्मिक उदारता तथा आपसी भाईचारे का उन्होंने समर्थन किया। उनके विराट व्यक्तित्व को किसी उपमा से उपमित करना उनके व्यक्तित्व को ससीम बनाना होगा।

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