बताएं मन कहां है, क्या आपको पता है ये इतनी बड़ी बात बदल जाएगा जीवन
चन्द्रमा लग्नेश, चतुर्थ एवं एकादश भाव में जब पीड़ित होते हैं तो आत्मा पीड़ित होती है जो मानसिक विकार के रूप में प्रकट होता है। यदि मन पीड़ित होती है मनोविकार बढ़ता है तो विवेक, तन, मन, धन, विद्या, यश सब नष्ट हो जाता है।
प. रामकृष्ण वाजपेयी
हम अपने आराध्य की साधना में कहते हैं, मन तेरा मंदिर आँखे दिया बाती, होंठो की हैं थालियाँ, बोल फूल पाती...रोम-रोम जीभा तेरा नाम पुकारती. आरती ओ मैया आरती....ओ शेरावाली ऐ मां तेरी आरती..., कहा यह भी जाता है कि प्राणी अपने प्रभु से पूछे किस विधी पाऊँ तोहे, प्रभु कहे तु मन को पा ले, पा जयेगा मोहे, तोरा मन दर्पण कहलाये - तोरा मन दर्पण कहलाये, भले बुरे सारे कर्मों को, देखे और दिखाये, तोरा मन दर्पण कहलाये - तोरा मन दर्पण कहलाये।
कहने का आशय यह है कि मन मंदिर भी है। दर्पण भी है। मन मुस्कराता और शर्माता भी है। मन हार गया तो हार, जीत गया तो जीत। मतलब ये कि मन मजबूत है तो आप सर्वशक्तिमान हैं और कमजोर है तो आप से निरीह कोई नहीं। मन की ताकत के आगे शारीरिक बल का कोई महत्व नहीं। मन अगर भ्रष्ट या अविवेकी हो जाए तो व्यक्ति का चरित्र लांछित हो जाता है। मन रोगी व कमजोर हो तो वह जीवन के सभी सुख समाप्त हो जाते हैं। मन से अपराधी व आतंकवादी बन सकता है। और मन से ही धर्म रक्षक सरल सह्रदय बन सकता है।
आखिर मन है कहां
आखिर मन रहता कहां है डाक्टर मन को मस्तिष्क से जोड़ते हैं। लेकिन मेडिकल रिपोर्ट में सबकुछ सही आने पर कहा जाता है उसका स्वभाव ही ऐसा है। अब स्वभाव कहां रहता है। मन और स्वभाव में ज्यादा अंतर नहीं है। जब कोई कहता है मेरी मर्जी तो क्या सिर्फ उसका दिमाग बोल रहा होता है। इसका वर्गीकरण करना कठिन है।
मन को आत्मा कहा जा सकता है। आप कहेंगे आत्मा तो अजर अमर है वह बीमार कैसे पड़ती है तो जब तक आत्मा को शरीर के सहारे की जरूरत होती है। वह पिंजरे में बंद होती है तब तक वह शरीर जो कुछ खाता पीता है उसका उस पर भी असर आता है।
यदि व्यक्ति कहता है कि मै आत्मा और परमात्मा दोनो को मानता हूं। तो ये उसका मन है। लेकिन वह जिस प्रकार का ईंधन रूपी भोजन अपने शरीर को देता है। समाज को देता है उसका असर उसकी आत्मा पर भी पड़ता है। जिस तरह शरीर पर सर्दी गर्मी धूप बरसात का असर पड़ता है ठीक उसी तरह आत्मा भी छोटे बड़े ग्रहों से प्रभावित होती है।
अरुण ग्रह का क्या रोल है पता है आपको
उदाहरण के लिए यूरेनस सौर मंडल में सूर्य से सातवां ग्रह है। व्यास के आधार पर यह सौर मण्डल का तीसरा बड़ा और द्रव्यमान के आधार पर चौथा बड़ा ग्रह है। द्रव्यमान में यह पृथ्वी से १४.५ गुना अधिक भारी और अकार में पृथ्वी से ६३ गुना अधिक बड़ा है। औसत रूप में देखा जाए तो पृथ्वी से बहुत कम घना है - क्योंकि पृथ्वी पर पत्थर और अन्य भारी पदार्थ अधिक प्रतिशत में हैं जबकि अरुण पर गैस अधिक है। इसीलिए पृथ्वी से तिरेसठ गुना बड़ा अकार रखने के बाद भी यह पृथ्वी से केवल साढ़े चौदह गुना भारी है।
हालांकि अरुण को बिना दूरबीन के आँख से भी देखा जा सकता है, यह इतना दूर है और इतनी माध्यम रोशनी का प्रतीत होता है के प्राचीन विद्वानों और ज्योतिषियों ने कभी भी इसे ग्रह का दर्जा नहीं दिया और इसे एक दूर टिमटिमाता तारा ही समझा। कुंडली बांचते समय भी विद्वान इसका जिक्र नहीं करते। इसका कारण यह है कि युरेनस प्रत्येक ८४ पृथ्वी वर्षों में सूर्य का एक चक्कर लगाता है। इसकी सूर्य से औसत दूरी लगभग ३ अरब कि॰मी॰ (२० ख.ई.) है।
वरुण ग्रह का खेल क्या है
इसी तरह वरुण यानी नेपच्यून वरुण, नॅप्टयून या नॅप्चयून हमारे सौर मण्डल में सूर्य से आठवाँ ग्रह है। व्यास के आधार पर यह सौर मण्डल का चौथा बड़ा और द्रव्यमान के आधार पर तीसरा बड़ा ग्रह है। वरुण का द्रव्यमान पृथ्वी से १७ गुना अधिक है और अपने पड़ौसी ग्रह अरुण (युरेनस) से थोड़ा अधिक है। खगोलीय इकाई के हिसाब से वरुण की कक्षा सूरज से ३०.१ ख॰ई॰ की औसत दूरी पर है, यानि वरुण पृथ्वी के मुक़ाबले में सूरज से लगभग तीस गुना अधिक दूर है। वरुण को सूरज की एक पूरी परिक्रमा करने में १६४.७९ वर्ष लगते हैं, यानि एक वरुण वर्ष १६४.७९ पृथ्वी वर्षों के बराबर है।
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अब चूंकि अरुण की एक दशा 84 साल में और वरुण की एक दशा 165 साल में पूरी होती है इसलिए ज्योतिषी ये मान लेते हैं कि पृथ्वी से बहुत अधिक दूरी पर होने के कारण मानव मन पर इनका प्रभाव अन्य ग्रहों की अपेक्षा सबसे बहुत कम होता है। लेकिन कुछ न कुछ प्रभाव तो होता ही है। इसी तरह अनय ग्रहों का प्रभाव होता है चूंकि चंद्रमा पृथ्वी के सबसे अधिक करीब है इसलिए मन यानी आत्मा पर इसका प्रभाव सबसे अधिक होता है।
मानसिक विकार बढ़ता है तो विवेक, तन, मन, धन सब नष्ट हो जाता है
चन्द्रमा लग्नेश, चतुर्थ एवं एकादश भाव में जब पीड़ित होते हैं तो आत्मा पीड़ित होती है जो मानसिक विकार के रूप में प्रकट होता है। यदि मन पीड़ित होती है मनोविकार बढ़ता है तो विवेक, तन, मन, धन, विद्या, यश सब नष्ट हो जाता है।
ज्योतिष में भावों के आधार पर कारकत्व प्रथम भाव से मन, चतुर्थ भाव से सुख, एकादश भाव से लाभ विचार होता है लेकिन तीनों भावों से मन का संयोग होता है। ग्रहों में चंद्र, गुरु, शुक्र का विचार होता है। चंद्रमा का विशेष कारकत्व सर्दी, बुखार, जल संबंधी रोग, पाण्डु रोग, मानसिक रोग, देवियों द्वारा होने वाली बाधाएं पीड़ित चंद्रमा प्रदान करता है। वैसे चंद्र शीतल ग्रह है और इसका देवता जल है। यह सतो गुणी तथा जल तत्व युक्त ग्रह है। चंद्रमा को प्राण भी माना गया है।
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चंद्रमा रात्रि में बलवान होता है व अपने द्वारा शीतलता पहुंचाने में सक्षम होता है। यह 211 दिन में ही राशि परिवर्तन कर लेता है अन्य ग्रह यह क्षमता नहीं रखते। लेकिन चंद्रमा दूसरे ग्रहों के दबाव में जल्दी आता है और अपना प्रभाव खो देता है।
ऐसे हो जाता है मतिभ्रम रोग और तनाव
लग्न में राहु का प्रभाव हो तो मानसिक रोग होता है। सिंह चंद्र लग्न में हो तो मतिभ्रम योग होता है। लग्न में चंद्रमा हो तो तनाव होता है। यदि लग्नेश अष्टम भाव में हो तो मतिभ्रम होता है। लग्न में पाप ग्रह हो तो तनाव होता है। लग्नेश मंगल के साथ हो तो मानसिक मनाव होता है। यदि लग्नेश षष्ठ, अष्टम, द्वादश भाव से किसी प्रकार का संबंध रखता हो तो तनावग्रस्त कर देता है।
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षष्ठ अष्टम, द्वादश भाव में लग्नेश युक्त केतु बैठा हो तो मतिभ्रम होता है। यदि लग्नेश के साथ सूर्य हो और वह अस्त हो तो मानसिक रोग होता है। यदि लग्नेश शत्रु क्षेत्री हो तो तनावयुक्त होता है। यदि लग्नेश अस्त नीच का निर्बल पीड़ित हो तो अवश्य ही तनाव को बढ़ाता है।
इसी तरह यदि वक्री गुरु लग्न में या चंद्र के साथ बैठा हो तो मानसिक तनाव होता है। राहु से युक्त गुरु कहीं बैठ जाय तो तनाव पैदा करता है। चतुर्थ भाव जो सुख, मानसिक शांति, हृदय, पारिवारिक समृद्धि और भूमि मकानादि का प्रतीक है। अत: इस भाव से भी मानसिक तनाव हो सकता है।