ये जीवन है
पिता जी चले गए तब मैंने इन गानों के बोल सुने। मुझे यह समझ में आया कि जीवन क्या है। अच्छे बुरे सभी लोगों को एक साथ लेकर चलना है। जीवन एक संघर्ष है,-सभी से प्यार से बोलो एंव प्यार से रहो। यही जीवन का यथार्थ है। इन गानों के माध्यम से पिताजी हम सभी को यह संदेश दे गए कि, यही जीवन है।
मैं यह कहानी अपने जीवन के इस पड़ाव से, जहां मुझे यह पता नहीं था जीवन क्या है, शुरू करता हूँ। मेरे पिता डाॅक्टर जे.के. शर्मा बच्चों के डाॅक्टर थे । जिनकी आजमगढ़ के मशहूर डाॅक्टरों में गिनती होती थी। पूर्वांचल में मस्तिष्क ज्वर के बहुत मरीज होते हैं , जिनका पिता जी
शत-प्रतिशत इलाज कर देते थे।
आप अपनी दवा खुद से कीजिए
जीवन निकल पड़ा था , लेकिन अचानक पिता जी को शुगर हो गया, वह भी टाइप-1 जो बहुत ही कम लोगों को होता है। इसमें वह अक्सर हाइपो-लाइसीमिया में चले जाते थे। कोई भी डाॅक्टर उनकी दवाओं को सेट नहीं कर पा रहा था। यहां तक की पुणे के भी डाॅक्टर सेट नहीं कर पाए। पुणे के एक मशहूर डाॅक्टर ने कहा आप अपनी दवा खुद से कीजिए। पिताजी ने मेडिकल साइन्स की किताब खरीदी और अपनी दवाओं को सेट किया। छह वर्ष के लम्बे अंतराल को जिया।
घटना अंतिम क्षणों की है , जब उनका हार्ट फेल्योर होने लगा था। हम चार भाइयों ने उन्हें एसजीपीजीआई में भर्ती कराया। भरती के समय उनके परम मिश्र डाॅक्टर टी.एन ढोल, जो कि वहीं पर माइक्रोबायलोजी के हेड थे, ने भर्ती की सारी प्रक्रिया पूरी कराई। उसी दौरान मेरे एक संबंधी भी वहाँ पहुंचे और उन्होंने पिता जी को देखा और बोले- ‘‘अरे! यह तो ठीक लग रहे हैं।’’ लेकिन जब रिपोर्ट आई तब पिता जी का हार्ट केवल दस प्रतिशत ही वर्क कर रहा था। वे अपनी मृत्यु के बारे में जानते थे परन्तु उन्होंने अपने आप को टूटने नहीं दिया ताकि उनके बच्चे कमजोर न पड़ जाएं।
मशीन क्या बोलेगी? दस दिन बस मेरे पास हैं
हाॅस्पिटल में पिता जी के परम मित्र डाॅक्टर टी.एन. ढोल ने रिपोर्ट देखी। उन्होंने मुझे अपने केबिन में बुलाया और पहला वाक्य था वसीयत एआईसी और चेकबुल पर पिता के सिग्नेचर हैं या लेने बाकी हैं? मैं और मेरा छोटा भाई परीक्षित उस समय उनके सामने बैठे उनका चेहरा देखने लगे। हमारे पास शब्द नहीं थे कुछ बोलने के लिए। बड़े उदास मन से हम दोनों नीचे वार्ड में पिता जी के सामने पहुंचे। उन्होंने हमसे पूछा, ‘‘ रिपोर्ट लाए?’’ फिर वह बोले ‘‘ अरे! यह मशीन क्या बोलेगी? मैं बोलता हूं दस दिन बस मेरे पास हैं।’’
आश्चर्यचकित एवं दुखी मन से मैंने अपने छोटे भाई की तरफ देखा। कुछ समय पहले ही ढोल अंकल ने कहा था कि ‘‘दस दिन हैं तुम लोगों के पास।’’माँ रो रही थीं। पिताजी ने कहा ‘‘डरो मत चार बेटे हैं तुम्हारे पास।’’
जीवन की अंतिम बेला में भी काम के प्रति समर्पण
एक तरफ पिता जी का जीवन समाप्त हो रहा था, दूसरी तरफ वह अपने काम के प्रति समर्पित थे। एक नर्स उनकी सेवा में लगी थी, उसका एक छोटा बच्चा था जो कि अपनी पुरानी बीमारी से परेशान था। पिता जी ने अपनी दवा लिखी और बोले ‘‘ यह दवा दस दिन देना,’’आपका बेटा एकदम सही हो जायेगा।’’
दस दिन बाद पिता जी का देहान्त हो गया। उस नर्स का फोन उसी समय आया और उसने कहा ‘‘डाॅक्टर साहब से बात कराइये।”
मेरा बेटा बहुत अच्छा हो गया, “अब क्या करना है?” लेकिन जब उसने सुना कि पिता जी का देहान्त हो गया। वह रोने लगी। बाद में जिन्हें भी पता चला वे काफी दुखी हुए, इससे यह दिखाई पड़ रहा था कि उनका अपने काम एवं मरीज के प्रति कितना प्रेम था।
तीन गाने
एसजीपीजीआई लखनऊ में भर्ती होने के दौरान वे तीन गाने गुनगुनाया करते थे। तीनों गानों की सूची यह है;
1. यह जीवन है इसी जीवन का यही है रंग रूप...।
2. गाड़ी बुला रही है सीटी बजा रही है..।
3. एक दिन बिक जायेगा माटी के मोल जग में रह जायेंगे प्यारे तेरे बोल..।
जब पिता जी चले गए तब मैंने इन गानों के बोल सुने। मुझे यह समझ में आया कि जीवन क्या है। अच्छे बुरे सभी लोगों को एक साथ लेकर चलना है। जीवन एक संघर्ष है,-सभी से प्यार से बोलो एंव प्यार से रहो। यही जीवन का यथार्थ है। इन गानों के माध्यम से पिताजी हम सभी को यह संदेश दे गए कि, यही जीवन है।