यह पेट्रोल में आग लगाने का वक्त नहीं
देश में यह पहली बार है जब डीजल पेट्रोल से महंगा बिक रहा है। ऐसा कभी नहीं हुआ जब पेट्रोल और डीजल की कीमत में औसतन 10 रुपये का फासला नहीं रहा हो।
रतिभान त्रिपाठी
देश में पेट्रोल और डीजल के दाम पिछले उन्नीस दिनों में चौदह बार बढ़े हैं। दाम जिस तेजी से बढ़े हैं, उससे महंगाई बढ़ने से कोई रोक नहीं सकता है। सरकार इस बाबत कुछ बोल नहीं रही। वह अपना खजाना भरने में लगी है। विपक्ष कागजी घोड़े दौड़ाकर ही महज फर्ज अदायगी कर रहा है। कोरोना जैसी आपदा को अवसर में बदलने की बात पर जोर देने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस मामले से अनभिज्ञ नहीं हैं।
लेकिन इस बेतहाशा बढ़ोतरी पर कोई उपाय न किया जाना कहीं से उचित प्रतीत नहीं होता। कोरोना की भयावहता के बीच इस ताजा संकट ने लोगों को भीतर ही भीतर हिला दिया है। जनता मुखर हो रही है लेकिन फिलहाल लाचार है। लोकतंत्र में जनहित का ध्यान रखने वाली सरकारों की जिम्मेदारी है कि वह प्राथमिकता पर ऐसे मसलों का समाधान तलाशें। मोदी सरकार को भी यह करना ही चाहिए।
देश के इतिहास में पहली बार डीजल पेट्रोल से महंगा
देश में यह पहली बार है जब डीजल पेट्रोल से महंगा बिक रहा है। ऐसा कभी नहीं हुआ जब पेट्रोल और डीजल की कीमत में औसतन 10 रुपये का फासला नहीं रहा हो। लेकिन अभी ऐसा क्या चमत्कार हुआ कि डीजल को पेट्रोल से महंगा कर दिया गया। यह बात देशवासियों की समझ से परे है। जबकि किसानों की आमदनी दोगुनी करने का वादा करने वाली मौजूदा केंद्र सरकार इन हालात में अपना वचन कैसे निभा पाएगी? जबकि यह बात सबको पता है कि किसान डीजल के बहुत बड़े उपभोक्ता हैं।
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ट्यूबवेलों के संचालन से लेकर ट्रैक्टरों से खेतों की जोताई और फिर फसलों की कटाई मड़ाई में डीजल का ही इस्तेमाल होता है। औद्योगिक उत्पादन से लेकर माल भाड़ा और यात्री बसों के लिए भी डीजल ही इस्तेमाल होता है। जब इसकी कीमत इस तरह से आसमान छू रही है तब हर सामान का महंगा होना लाजिमी है। तो यह कहना गलत न होगा महंगाई दस्तक दे रही है और सरकार चुपचाप बैठी दिख रही है।
कच्चे तेल की कीमतें अभी भी 1 साल पहले के मुकाबले आधी
असल बात तो यह है कि जब कच्चे तेल की कीमतें नरम थीं, तब सरकार ने टैक्स में भारी बढ़त कर इनकी कीमत बढ़ा दी। इससे पेट्रोलियम कंपनियों को कोई फायदा नहीं हुआ है। अब जब कच्चे तेल की लागत एक महीने में लगभग दोगुना हो गईं तो पेट्रोलियम कंपनियां अपना फायदा बनाए रखने के लिए इनकी कीमतें लगातार बढ़ा रही हैं। जब कच्चे तेल की कीमत 34-35 डॉलर से ऊपर पहुंच गई तब बढ़ती चुनौती के मद्देनजर पेट्रोलियम उत्पादों के दाम बढ़ाने पड़े। कंपनियां यही दावा कर रही हैं क्योंकि पेट्रोलियम उत्पाद तो बाजार के हवाले हैं। लेकिन यहां जान लेना जरूरी है कि कच्चे तेल की कीमतें अब भी एक साल पहले की तुलना में आधी हैं।
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इसलिए दाम बढ़ाने पर सवाल उठें तो क्यों न उठें। पिछले पांच साल में सरकार का पेट्रोलियम से राजस्व बढ़कर दोगुना से ज्यादा हो गया है। 2019-20 में कच्चे तेल की औसत कीमत 60.47 डॉलर प्रति बैरल थी। इस अवधि में सरकार ने पेट्रोलियम पदार्थों पर एक्साइज ड्यूटी से 2.23 लाख करोड़ रुपये का राजस्व कमाया जो कि वर्ष 2014-15 के 99,000 करोड़ के दोगुने से भी ज्यादा राजस्व है। लॉकडाउन की वजह से सरकार का खजाना खाली हो गया है। इसका मतलब यह नहीं कि वह पेट्रोल-डीजल से ही सारा लाभ कमा ले। इसके लिए और माध्यमों का भी सहारा लिया जा सकता है।
यह सही है कि कोरोना काल में जीएसटी और डायरेक्ट टैक्स कलेक्शन में भारी गिरावट आई है। अप्रैल में सेंट्रल जीएसटी कलेक्शन 6,000 करोड़ रुपये का ही हुआ है जबकि बीते साल इसी अवधि में सीजीएसटी कलेक्शन 47,000 करोड़ रुपये का था। जानकारों की मानें तो सरकार पेट्रोलियम से ज्यादा से राजस्व हासिल कर लेना चाहती है। जब सरकार ने एक्साइज ड्यूटी बढ़ाई तो कच्चे तेल की कीमतें काफी निचले स्तर पर थीं और पेट्रोलियम कंपनियों को कुछ मुनाफा हो रहा था। कच्चे तेल की कीमत में गिरावट को राजस्व बढ़ाने का मौका देखा जा रहा है।
सरकार जनता के घावों में लगा रही आग
कच्चे तेल की कीमत में गिरावट से सरकार को बहुत फायदा हुआ है। बीते 1 जनवरी से 4 मई तक कच्चे तेल की लागत में 70 फीसदी की गिरावट होने के बावजूद पेट्रोल और डीजल की कीमतों में महज 10 फीसद की गिरावट आई थी। सवाल यह भी है कि पिछले साल जब कच्चे तेल की कीमत अधिक थी और डीजल पेट्रोल की कीमतें बढ़ रही थीं तो चुनावी फायदे के लिए सरकार में बैठे लोगों ने कंपनियों को कीमत बढ़ाने से रोक दिया था।
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और अब जब कच्चे तेल की कीमतें बहुत पिछले साल के मुकाबले आधे पर है तो कंपनियों को क्यों नहीं रोका जा रहा है। सरकार ने डीजल पर छह साल में 820 फीसद शुल्क बढ़ा दिया। सरकार भले ही यह कहे कि कुछ शुल्क बढ़ाने को संसद से मंजूरी ली गई है फिर भी जनहित के मुद्दे पर वह असंवेदनशील नहीं हो सकती है। जब देश की जनता महामारी और बेरोजगारी से जूझ रही हो, ऐसे में यह वक्त उसके घावों पर मरहम लगाने का है। पेट्रोल डीजल में आग लगाने का वक्त नहीं है।
निष्क्रिय विपक्ष
यह ध्यान रखना होगा कि चुनाव फिर होंगे। मुद्दे फिर उछलेंगे, नेता फिर जनता के बीच वोट के लिए जाएंगे तो क्या जनता इस मुद्दे को भुला बैठेगी? सरकार में बैठे लोग शायद यही मानकर चल रहे हैं, तभी उन्हें डीजल पेट्रोल की आसमान छूती कीमतों के प्रति चिंता नहीं है। लेकिन असल समस्या विपक्ष की तरफ से है। कांग्रेस इस मसले को सिर्फ बयानबाजी के विरोध तक ही सीमित रखे हुए है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री मोदी को चिट्ठी लिखकर वापस करने की मांग की है। सोनिया गांधी ने अपनी चिट्ठी में कहा है कि कोरोना वायरस के संकट से जूझ रहे देश के लिए यह फैसला असंवेदनशील है।
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सरकार लोगों को फायदा पहुंचाने का कोई काम नहीं कर रही है। लेकिन सवाल यह भी है कि जिम्मेदार विपक्ष की जनता की पीड़ा को सिर्फ चिट्ठीबाजी और बयानों तक ही सीमित रखना चाहिए। जनता को लेकर सड़क पर मुखर विरोध नहीं करना चाहिए। शायद कांग्रेस की दुर्दशा की वजह भी यही बनती जा रही है कि वह जनहित के मुद्दों को आंदोजन बनाने से न केवल हिचकती है, वरन बचती है। देश के चारों ओर से आती आवाजें भी कांग्रेस में चेतना नहीं पैदा कर पा रही हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)