Kalyan Singh Untold Story: मुख्यमंत्री रहते रोए थे राम मंदिर आंदोलन के नायक कल्याण सिंह, ये थी वजह
Kalyan Singh Untold Story: सीएम कार्यालय से फोन आया। उधर से मुख्यमन्त्री कल्याण सिंह बोले- ''योगेश जी! आपका शत शत वंदन। अभिनंदन। आप बहुत अच्छा लिखते हैं। मैंने आपको आज पढ़ा। पढ़ कर मैं बहुत रोया।"
Kalyan Singh Untold Story: बात तब की है। जब मैं राष्ट्रीय सहारा लखनऊ में तैनात था। हमारे एक दोस्त अजय शंकर पांडेय जी तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह जी के साथ तैनात थे। वह उस समय पीसीएस अफ़सर थे। हालाँकि आज वह आईएएस अफ़सर हो गये हैं। इन्हें मैं अपने इलाहाबाद के पढ़ाई के दिनों से जानता था। अजय जी के परिवार को जानने की लोगों के लिए वजह यह भी बनती थी कि पिताजी उनके जज रहे। इनके परिवार में अफ़सरों की संख्या बहुत थी। मैं राष्ट्रीय सहारा में फ़ीचर पेज का काम देखता था।
उन दिनों काम का भूत भी रहता था। काम करने की पूरी छूट भी हमें हासिल थी। हमारे लखनऊ में संपादक सुनील दुबे जी थे। जबकि समूह संपादक की ज़िम्मेदारी माधवकांत मिश्र जी के पास थी। इन्हें भी मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अपने दिनों के समय से जानता था। वह बड़े पत्रकार थे। विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष डॉ. जगदीश गुप्त जी की बेटी से उन्होंने विवाह किया था।
'किसानों का अधिकार' पत्र बनी परिचय का पुल
मैं लखनऊ संस्करण में रोजग़ार पर आधारित ' अवसर ' व साहित्य पर आधारित ' सृजन' पन्ना निकालता था। दोनों पन्ने हमारे बहुत लोकप्रिय भी थे। इन दोनों पन्नों के नाते अख़बार की डिमांड भी उस दिन ख़ूब हुआ करती थी, जिस दिन ये पन्ने निकलते थे। इन पन्नों के मार्फ़त युवाओं व साहित्यकारों का राष्ट्रीय सहारा से जुड़ाव बढ़ा था। अजय शंकर पांडेय जी ने हमें साहित्य पर निकलने वाले सृजन पन्ने के लिए कल्याण सिंह जी की एक कविता दी। कहा कि,"इसे मैं अपनी समीक्षा के साथ सृजन पन्ने पर प्रकाशित करूँ। उनकी कविता थी- " किसानों का अघिकार पत्र।"
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कल्याण सिंह करना चाहते थे मुलाकात
उन दिनों मैं डेस्क पर काम करता था। तब डेस्क के पत्रकार की वैसे भी कोई ख्वाहिश पत्रकारिता के ग्लैमर को इंज्वाय करने की नहीं होती थी। हालाँकि अब तो रिपोर्टर भी इससे वंचित कर दिया गया। मैंने उस कविता को अपने तबसरा के साथ प्रकाशित किया। दूसरे दिन मेरे घर पर सुबह सुबह कल्याण सिंह जी के मुख्यमंत्री कार्यालय से किसी अवधेश जी का फ़ोन आया कि कल्याण सिंह जी बात करना चाहते हैं।
सीएम कार्यालय से आए फोन पर पूछा- कौन कल्याण सिंह?
उन दिनों मैं लखनऊ के अलीगंज इलाक़े में किराये के मकान में रहता था। फ़ोन मेरी पत्नी ने उठाया । पूछा, "कौन कल्याण सिंह जी।" पत्नी द्वारा यह सवाल पूछे जाने की भी बड़ी वजह थी। एक, मैं डेस्क पर काम करता था। डेस्क के साथी का रिश्ता किसी बड़े राजनेता से हो , यह संभव नहीं था।
दूसरे, मैं जिस संस्थान में काम करता था। उनके रिश्ते कल्याण सिंह जी से उतने मधुर नहीं थे। पर यह अच्छी बात थी कि प्रबंधन की तरफ़ से क्या लिखा जाये? किसे रोका जाये? ऐसा कोई हस्तक्षेप नहीं था। लिखने के मामले में खासी स्वतंत्रता थी।
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कल्याण सिंह के फोन पर ऐसी थी प्रतिक्रिया
अवधेश जी ने मेरी पत्नी से फ़ोन पर जब कहा कि कल्याण सिंह जी बात करेंगे। तब मेरी पत्नी का जवाब था कि यदि ज़रूरी है तो मोबाइल पर बात करा दीजिये। इस मोबाइल फ़ोन की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है। मेरे डी. फ़िल की पढ़ाई के दौर में अमरेन्द्र सिंह जी मेरे गाइड थे। उनके भाई राजेंद्र सिंह जी तब यूपी में उषा मोबाइल कंपनी के सर्वे सर्वा थे। उस समय उत्तर प्रदेश पूर्वी व पश्चिमी दो भागों में मोबाइल के लिहाज़ से बटा था। उन दिनों मोबाइल फ़ोन रखना बड़ी बात थी। मोटा सा बड़ा मोबाइल हुआ करता था।
राजेंद्र जी ने हमें एक मोबाइल दे रखा था कि मैं रूतबा ग़ालिब कर लूँ। पर उसके उपयोग को लेकर बहुत हिदायतें दे रखी थी। उस समय इनकमिंग का भी आउटगोइंग के बराबर ही पैसा लगता था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पढ़ाई करने के कारण मेरे कई अफ़सर दोस्त थे। जिनसे मिलने मैं सचिवालय आया ज़ाया करता था। मेरे प्रवेश पास की व्यवस्था जिससे मिलने जाता था, उसकी होती थी।
फोन से उस ओर से आवाज आई- माननीय मुख्यमंत्री जी बात करेंगे
मेरी पत्नी ने मेरा मोबाइल नंबर अवधेश जी को नोट करा दिया। कुछ ही देर में मेरे मोबाइल की घंटी लगातार बजने लगी। उस समय मैं राजेंद्र भौनवाल जी के पास बैठा था। वह आबकारी महकमें में तैनात थे। मैं राजेंद्र जी की हिदायत के चलते बार-बार फ़ोन काट रहा था। कई बार घंटी बजने के बाद उनके कहने पर मुझे फ़ोन उठाना पड़ा। उधर से अवधेश जी आवाज़ गूंजी, "माननीय मुख्यमंत्री जी बात करेंगे।" मेरे लिए बात आश्चर्य की थी, पर राजेंद्र भौनवाल जी के लिए थोड़े प्रसन्नता की। भौनवाल जी से मेरा परिचय मेरे एक इलाहाबाद में साथी रहे आईएएस अफ़सर ने कराया था।
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कल्याण सिंह बोले- योगेश जी! बहुत अच्छा लिखते हैं आप
मोबाइल पर बात करते समय आसपास बैठा शख़्स आसानी से सुन सकता है। इसलिए हमारी व कल्याण सिंह जी की बातें भौनवाल जी सुन पा रहे थे। अवधेश जी ने फ़ोन ट्रांसफऱ किया । उधर से कल्याण सिंह जी की आवाज़ गूंजी, " योगेश जी! आपका शत शत वंदन। अभिनंदन । आप बहुत अच्छा लिखते हैं। मैंने आपको आज पढ़ा। पढ़ कर मैं बहुत रोया।" मैंने पहली बार जाना कि कोई दूर रहकर भी मुझे इतना करीब से जानता है "मैंने जवाब दिया, यदि किसी प्रजा के कर्म से राजा को रोना आये तो प्रजा दंड की अधिकारी होती है।" उनका जवाब था, "नहीं, आप बहुत अच्छा लिखते हैं। मैं आपसे दोस्ती करना चाहता हूँ।"
उन दिनों मुख्यमंत्री अपने सूचना तंत्र के लिए सूचना विभाग से भेजी मनचाही कटिंग पर निर्भर नहीं रहता था। कल्याण सिंह जी उन लोगों में से थे जो सुबह उठकर सारे अखबार पढ़ लेते थे तभी तो राष्ट्रीय सहारा के बुधवार में प्रकाशित मेरा लेख जनतंत्र को निहारती कविताएं उनके सामने से गुजरा।
किसी भी पत्रकार के लिए कल्याण सिंह जी का यह प्रस्ताव नि: संदेह बेहद प्रसन्नता प्रदान करने वाला होगा। मेरे लिए भी था।" मैंने कहा, "आपके प्रस्ताव को अस्वीकार करने का कोई सवाल ही नहीं है। किसी के लिए ही नहीं, मेरे लिए भी बेहद ख़ुशी का विषय है। पर मेरी माँ कहती है कि मैं बच्चा था तो नाग मेरे सर पर फऩ काढ़ कर बैठा था। यह बात ग़लत हो, पर मुझे बहुत ताक़त देती है। मैं आम होते हुए भी ख़ुद को ख़ास बनाये रखता हूँ। आपसे मिलने जुलने में मेरा यह ख़ासपन डाइल्यूट हो जायेगा। यह मेरी आशंका है।"
कल्याण सिंह ने मिलने बुलाया, बोले- दोस्ती करना चाहते हैंः
कल्याण सिंह जी ने हमें मुतमइन किया, "आप अंदेशा दूर कीजिये। जब आप मिलेगें तो आपको लगेगा कि आप किसी दोस्त से मिल रहे हैं।" मेरा उनसे सवाल था, " मिलने के लिए आपको मैं फ़ोन करूँगा या आप के यहाँ से कोई समय मिलेगा।" उन्होंने कहा , "मैं आप को बुलवाता हूँ।" छब्बीस जनवरी को फिर उनका फ़ोन आया कि आज वह कुछ ख़ाली हैं। शाम को मुलाक़ात होगी। पर उस दिन और उस समय मैं बस्ती में था जहां मेरे पिताजी तैनात थे। जहां से लखनऊ पहुँच पाना संभव नहीं था। मैंने दूसरे दिन मिलने की बात कही।
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दूसरे दिन 7 बजे रात का समय तय हुआ। मैं बस्ती से लौट आया। दूसरे दिन मेरा साप्ताहिक अवकाश भी था। इसलिए कोई दिक़्क़त नहीं थी। मैं स्कूटर से मुख्यमंत्री आवास पहुँचा तो गेट पर मेरे नाम से मैसेज था। सुरक्षा वालों ने स्कूटर बाहर रखने को कहा। मैं तैयार नहीं था। पर सुरक्षा में लगे एक पुलिसकर्मी ने कहा, "साहब को जाने दो। हम सबके लिए खुश होने वाली बात है कि स्कूटर वाले साहब बुलाये गये है।"
स्कूटर से मुख्यमंत्री आवास पहुंचा
मैंने पोर्टिको में स्कूटर पार्क किया। चाभी किसी आदमी ने हमसे ली। उनने स्कूटर को पोर्टिको से हटा कर किनारे खड़ा कर दिया। मैं अंदर पहुँच गया। मुझे थोड़ा इंतज़ार करना पड़ा। इस बीच अंदर से कल्याण सिंह जी निकल कर बाहर आये और पूछा, "कौन हैं योगेश मिश्र जी।" मैं सोफे से खड़ा हुआ दोनों हाथ जोडक़र अभिवादन किया। उनका जवाब था, "अरे! आपकी उम्र तो बहुत कम है।" मुझे थोड़ी देर और प्रतीक्षा करने की बात कह कर वह अंदर चले गये। हमें आधा घंटा और इंतज़ार करना पड़ा।
सीएम आवास पर एसपी आर्या व मंत्री सूर्य प्रताप शाही से मुलाकात
बाद में वह बाहर निकले तो उनके साथ अधिकारी एसपी आर्या व मंत्री सूर्य प्रताप शाही जी थे। दोनों लोगों से उन्होंने हमारा परिचय कराया। शाही जी हमारे जिले के हैं, इसलिए उन्हें हम लोग जानते थे।"
इन लोगों के जाने के बाद हम लोग रात ग्यारह बजे तक साथ रहे। उन्होंने मेरे बारे में बहुत बातें पूछीं। जानी। दूसरे रोज़ फिर सुबह बुलाया। पंचम तल के अपने सभी अफ़सरों से बड़ी गर्मजोशी से परिचय कराया। अपने उन दिनों के सूचना निदेशक अनूप पांडेय जी से मुलाक़ात करवाया। अनूप जी के ससुराल पक्ष से हमारी रिश्तेदारी निकल आई। पर हमें पहले से यह पता नहीं था। बस मेरा तो मुख्यमंत्री आवास में आना जाना बे रोक टोक शुरू हो गया।
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सीएम से मुलाकात रही जारी
कल्याण सिंह जी गाहे- बगाहे बुलाने लगे। मेरी मुलाक़ात से पहले तक वह नहीं जानते थे कि अख़बार जगत में डेस्क का आदमी भी होता है। डेस्क भी होती है। मैंने उन्हें समाचार पत्र के पूरे सिस्टम के बारे में बताया। राष्ट्रीय सहारा में मैं रिपोर्टर बनने की कोशिश में लगा रहा। पर हमें सफलता हाथ नहीं लगी। हालाँकि खबरों को लिखने की स्वतंत्रता हमें हासिल थी। हमारे पास बीट नहीं थी। पर किसी बीट की खबर कर सकता था। पर निरंतर खबर करने की छूट नहीं थी। अपना काम करने के बाद खबर करने का अवसर मिल सकता था।
डेस्क पर काम कर रहे लोगों को मान्यता प्राप्त पत्रकार का दर्जा देने की शुरु की मुहीम
मैं डेस्क पर काम करता था। उन दिनों रिपोर्टर व डेस्क के बीच रिश्ते बहुत अच्छे नहीं थे। मैं भी जब किसी अफसर के पास होता था तो हमारे साथ काम करने वाले रिपोर्टर साथियों को ही यह दिक़्क़त होती रहती थी कि मैं उनके अधिकार क्षेत्र में दख़लंदाज़ी क्यों देता हूँ। मुझमें भी ग़ुस्सा था। नतीजतन, मैंने कल्याण सिंह जी को इस बात के लिए तैयार किया कि वह डेस्क पर काम कर रहे लोगों को भी मान्यता प्राप्त पत्रकार का दर्जा दें। उन्हें भी मान्यता कार्ड मिले। मेरी इस मुहिम में किसी भी अख़बार के डेस्क के साथी का सहयोग नहीं मिला।
कल्याण सिंह सरकार में डेस्क के साथियों को मिला मान्यता प्राप्त का दर्जा
रिपोर्टर की आँखों में मैं और मेरा नियमित मूवमेंट अखरने लगा था। पर मैं भी हौसला हारने को तैयार नहीं था। जीत हुई। कल्याण सिंह जी की सरकार ने प्रदेश में हर जगह डेस्क पर काम करने वाले साथियों को मान्यता प्राप्त पत्रकार की तर्ज़ पर मान्यता देने और उन सारी सुविधाओं को देने का फ़ैसला सुना दिया। हर्ष की लहर डेस्क के साथियों में पढ़ी जा सकती थी। इसके बाद कल्याण सिंह जी से जुड़ी खबरें प्रदेश भर के सभी अख़बारों में बहुत सुंदर ढंग से डिस्प्ले होने लगीं। हालाँकि तब तक मेरी राष्ट्रीय सहारा से नौकरी जा चुकी थी। मैं इस बार भी मान्यता का कार्ड पाने से वंचित रह गया। पर मील के पत्थर का काम करने की ख़ुशी थी।
राष्ट्रीय सहारा के प्रबंधन को पत्र देकर सरकारी आवास कराया आवंटित
कल्याण सिंह जी को पता चला कि मैं किराये के मकान में रहता हूँ। तो उन्होंने तुरंत हमें मकान आवंटित करने के लिए उस समय के राज्य संपत्ति अधिकारी उमा नाथ दिवेद्वी को बुलवाया। मैंने पत्नी को बताया कि कल्याण सिंह जी मकान देना चाहते हैं पर राष्ट्रीय सहारा की नौकरी मकान लेते ही चली जायेगी। पत्नी का दो टूक जवाब था कि इस बात की क्या गारंटी है कि आप मकान न लें तो नौकरी बनी रहेगी। प्राइवेट नौकरी के बारे में बहुत नहीं सोचना चाहिए ।
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इससे पहले हमारे एक दोस्त गिरीश पांडेय जी, जो भारतीय राजस्व सेवा में तैनात थे, बटलर पैलेस में रहते थे। हम लोगों ने तय किया कि दोनों लोगों का परिवार बाराबंकी स्थित परिजात का पेड़ देखने चलें। मैं अपनी गाड़ी से उन्हें लेने आया। पत्नी ने हमसे कहा कि क्या हम लोगों को यहाँ मकान नहीं मिल सकता। हमने झिडक़ा। मैं डेस्क का पत्रकार हूँ। इतना ऊँचा नहीं सोचना चाहिए । उधर राष्ट्रीय सहारा के प्रबंधन को पत्र देकर सरकारी आवास आवंटित कराने की हमने अनुमति माँगी। अनुमति मिल भी गयी।
निराला नगर में आवंटित हुआ पहला मकान
हमें पहला मकान निराला नगर में आवंटित हुआ। वह हमें पसंद नहीं आया। फिर डालीबाग कालोनी में आवंटित हुआ। वह भी नहीं जंचा । एक दिन कल्याण सिंह जी ने मुलाक़ात में पूछा कि आप नये घर में गये हमें बताया नहीं। आपको चाय पर बुलाना चाहिए । मैंने उन्हें मकान का अपडेट बताया। वह दुखी हुए। नाराज़ हुए। राज्य संपत्ति अधिकारी को बुलवाया। मेरे लिए मकान की तलाश तेज हो गयी। हमें बटलर पैलेस में बी टाइप मकान रिक्ति की प्रत्याशा में आवंटित हुआ। पर इसमें भी समय लग रहा था। दूसरे मैं बी टाइप मकान में रहने को तैयार नहीं था। वह हमें मेरे स्तर से बहुत ऊपर का लग रहा था। ख़ैर बहुत बाद में हमें बटलर पैलेस कालोनी में ही डी टाइप मकान आवंटित हो गया।
इस बीच प्रबंधन ने मेरा तबादला गोरखपुर कर दिया। वहाँ राजन शुक्ला जी जिलाधिकारी होते थे। वह इलाहाबाद में समकालीन थे। उन्हें कल्याण सिंह जी के कार्यालय से मेरे लिए फ़ोन भी गया। गोरखपुर में भी मेरी कार्यालयी हैसियत अच्छी नहीं थी। कार्यालय में मैं कम समय देता था। गोरखपुर में गोरखनाथ मंदिर इकलौता दर्शनीय, धार्मिक व रमणीय स्थान था। उन दिनों मंदिर में अवैद्यनाथ जी से ख़ूब मिलना जुलना होता था।
गोरखपुर से इस्तीफ़ा देकर लखनऊ वापसी
मुझे बाइलाइन खबरें लिखने के लिए किसी साथी का नाम जोडऩा होता था। ख़ैर कोई डेस्क का काम था नहीं, सो मैं खबरें लिखने में जुट गया। इस बीच अमर उजाला में पत्रकारों की भर्ती का विज्ञापन निकला था। मैंने भी अप्लाई किया था। वहाँ टेस्ट हुआ। टेस्ट देने के लिए हमें मेरठ जाना था। वहाँ तब अवनीश अवस्थी जी जिलाधिकारी हुआ करते थे। मेरे लिए सर्किट हाउस में रूकने की उनने व्यवस्था की थी। वहाँ टेस्ट देकर मैं वापस गोरखपुर नौकरी ज्वाइन करने पहुँच गया। पर वहाँ मंजर बदला था। सेवा संपादक भी मेरी बात सुनने को तैयार नहीं था। हम को लगा कि वहाँ मेरे लिए कोई जगह नहीं थी। मैंने एक दिन इस्तीफ़ा दे दिया। राठ डिपो की बस से मैं लखनऊ पहुँच गया। कल्याण सिंह जी से सारी बात हुई।
कल्याण सिंह ने मेरी नौकरी के लिए हरिकृष्ण पालीवाल व डी. के. कोटिया को लगाया
उन्होंने अपने कार्यालय में तैनात हरिकृष्ण पालीवाल जी व डी. के. कोटिया जी को मेरी नौकरी के लिए लगाया। कुछ कोशिश हुई। पर इतनी शर्त थी कि हमारे लिए मंज़ूर करना संभव नहीं था। मेरा यह फ़ैसला कल्याण सिंह जी को बहुत पसंद आया। उनकी निगाह में मेरा क़द बढ़ा। ख़ैर में अमर उजाला का टेस्ट पास कर गया।
कल्याण सिंह जी से राजनीति करना नहीं, राजनीति समझना सीखा
इंटरव्यू में अतुल माहेश्वरी जी व रामेश्वर पांडेय जी बैठे थे। रामेश्वर जी के लिए यही बहुत बड़ी बात थी कि मैं कुशीनगर का रहने वाला हूँ। डी. फ़िल . अर्थशास्त्र में हूँ। मेरा चयन हो गया। कुछ ही दिनों बाद कल्याण सिंह जी की सरकार चली गयी। कल्याण सिंह जी से हमने राजनीति करना नहीं, राजनीति समझना सीखा। वह पहले राजनेता मेरी जानकारी में हैं जिन्हें उत्तर प्रदेश के हर विधानसभा व लोकसभा के सभी सीटों का न केवल जातीय गणित पता रहता था। बल्कि वह यह भी सटीक अनुमान लगा लेते थे कि कौन राजनीतिक दल किस विधान सभा या किस लोक सभा क्षेत्र में किसे उम्मीदवार बनायेगा।
कल्याण सिंह के पार्टी छोड़ने पर शुरु हुए भाजपा के बुरे दिन
यही वजह थी कि जब वह पार्टी से बाहर हो गये तब उत्तर प्रदेश में भाजपा के बुरे दिन शुरू हो गये। जब तक कल्याण सिंह जी ने भाजपा में घर वापसी नहीं कि तब तक भाजपा के दिन बहुरे नहीं। वह खुद तो ओबीसी लीडर थे। पर सभी जातियों में वह स्वीकार्य नेता थे।
राम मंदिर आंदोलन के वह नायक हैं मैंने उनके साथ कई यात्राएं की हैं। उन दिनों मैंने देखा है कि कल्याण सिंहजी जिस रास्ते से गुजर जाते थे गांव की महिलाएं उस रास्ते की मिट्टी उठाकर सिर पर लगा लेती थीं। वह राम मंदिर के लिए सरकार गवां चुके थे। हिन्दू हृदय सम्राट बन चुके थे। मैंने आज तक उन जैसा कोई दूसरा चिकित्सा मंत्री नहीं देखा, सुना।
आज भी लोग कल्याण सिंह की 1991 वाली सरकार को अब तक की सबसे बेहतर सरकार मानते हैं। कल्याण सिंह में मैंने ईमानदारी और किसी भी काम को जल्दी से जल्दी अंजाम देने की जिद देखी थी। उनका डिलीवरी सिस्टम यादगार था। सबसे कम समय का था। उन्हें काम करना होता था या नहीं करना होता था। उनके काम-काज में होल्ड पर काम डालने का कोई स्पेस नहीं था। जब कल्याण सिंह जी की अगुवाई में कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा जोडक़र सरकार बनी तब भी वह चुनाव में जाना बेहतर समझते थे। पर ऐसा नहीं हो पाया।
पहला प्रयोग था कि आंसर शीट दो कॉपी में होगी और एक कॉपी अभ्यर्थी ले जाएगा
उन्होंने समूह ग की भर्ती की थी। उस समय उनका पूरा जोर ईमानदारी से भर्ती करने का था। उन्होंने इसके लिए बहुत प्रयोग किए। उनके प्रयोग को बाद में हर परीक्षाओं में स्वीकार किया गया। पहला प्रयोग था कि आंसर शीट दो कॉपी में होगी और एक कॉपी अभ्यर्थी ले जाएगा। दूसरे उन्होंने इंटरव्यू के लिए दस नंबर रखे जिनमें सात नंबर देना अनिवार्य था। आज देश की सभी परीक्षाओं में आंसर शीट की दो या तीन कॉपियां चलन में हैं।
आडवाणी जी का इंटरव्यू करने की जिम्मेदारी दिल्ली ऑफिस से मिली
एक बार मैं आउटलुक में काम करता था तो मुझे आडवाणी जी का इंटरव्यू करने की जिम्मेदारी दिल्ली ऑफिस से मिली। आडवाणी जी अयोध्या में थे। उन्होंने एक यात्रा निकाली थी। मैंने किसी तरह आडवाणी जी के सहयोगी रहे दीपक जी से बातचीत करके आग्रह किया कि मेरा इंटरव्यू करवा दें। उन्होंने बताया कि अंदर कल्याण सिंह जी कई लोगों के साथ बैठे हैं। नाश्ता चल रहा है। मैंने दोबारा उनसे आग्रह किया कि आप कल्याण सिंह जी को बता दीजिए कि योगेश मिश्र आडवाणी जी का इंटरव्यू करना चाहते हैं।
आडवाणी जी से कहा कि योगेश मिश्र हैं, बहुत अच्छे पत्रकार हैं
दीपक जी अंदर गए और तुरंत मुझे भी अंदर बुला लिया गया। अंदर पहुंचते ही कल्याण सिंह जी ने आडवाणी जी से मेरा परिचय कराया वह किसी भी पत्रकार के लिए इंटरव्यू पाने का सबसे मजबूत आधार बन सकता है। उन्होंने आडवाणी जी से कहा कि योगेश मिश्र हैं, बहुत अच्छे पत्रकार हैं। बहुत अच्छा लिखते हैं आप अपना इंटरव्यू पढक़र प्रसन्न होंगे। मैंने आडवाणी जी का इंटरव्यू किया। एक मुश्किल काम कल्याण सिंह जी के चलते मेरे लिए आसान हो गया। कल्याण सिंह पार्टी में रहे हों या बाहर चले गए। लाल टोपी पहन ली हो या भगवा ओढ़ा। हर समय मैं उनसे जुड़ा रहा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी जी से मुलाकात हुई
गुजरात में 2014 में जब मेरी वहां के तत्कालीन मुख्यमंत्री और आज के प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी जी से मुलाकात हुई तो उन्होंने अपनी लंबी मुलाकात में सबसे ज्यादा देर तक मुझसे कल्याण सिंह जी के बारे में ही बात की। इस बातचीत में मुझे आभास हुआ कि उनके हृदय में कल्याण सिंह जी के लिए बड़ा स्थान है। कल्याण सिंह जी जब राजस्थान में राज्यपाल होकर गए तब भी कई बार मिलने गया। उन्होंने बड़ी गर्मजोशी से राजभवन में जगह दी। उन्होंने खूब खिलाया, छककर भोजन कराने के लिए अच्छे मेजबान की तरह डाइनिंग टेबल पर डटे रहे। उनके व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुृओं को देखकर कहा जा सकता है कि वह उत्तर प्रदेश के इकलौते ऐसे राजनेता हैं जो निजी संबंधों के साथ - साथ राजनीतिक संबंध-सिद्धांत में ईमानदारी व सदाशयता को न केवल जीते हैं बल्कि हर मोड़ पर निर्वाह भी करते हैं।
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