टेस्टिंग बढ़ाने से क्या फ़ायदा यदि कोरोना का इलाज ही न हो पाए?
कुछ दिनों के बाद मुझे लगता है टेस्टिंग का कोई खास मतलब नहीं रह जाएगा। क्योंकि कोरोना के रोगी करीब हर जगह मिलेंगे। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा है हमें मृत्यु दर को कम से कम करना होगा।
मनीष खेमका
लखनऊ: कुछ दिनों के बाद मुझे लगता है टेस्टिंग का कोई खास मतलब नहीं रह जाएगा। क्योंकि कोरोना के रोगी करीब हर जगह मिलेंगे। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा है हमें मृत्यु दर को कम से कम करना होगा। इसके लिए हमें निजी और सरकारी अस्पतालों की सुविधाओं को युद्ध स्तर पर सुधारना होगा।
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सरकार की मजबूरी है। संसाधनों की बेहद कमी है। और इसके लिए कोई एक नहीं हम सब ज़िम्मेदार है। सौ में सिर्फ एक व्यक्ति आयकर देता है और सभी सौ यह उम्मीद करते हैं कि उन्हें बेहतरीन सुविधाएँ मिलें...भारत की राजस्व व्यवस्था में भारी गड़बड़ है। आमदनी और खर्च दोनों में। यह लंबी बहस का मुद्दा है जो मैं पिछले एक दशक से बराबर उठा रहा हूँ। संकट का समय आता है तब असलियत पता चलती है। ख़ैर!
सरकार में बैठे हुक्मरानों/नीति निर्धारकों तक यदि मेरी बात पहुँच रही है, तो कृपया निम्न उपायों पर विचार कर इसे तत्काल लागू करें।
1. कोरोना पॉज़िटिव होने का पता लगते ही हर मरीज को अनिवार्य रूप से तत्काल अस्पताल में भर्ती किया जाए। सिर्फ 24 घंटे की समयसीमा के भीतर उनकी सभी जरूरी जाँच, एक्सरे/सीटी करके उनका रिस्क प्रोफ़ाइल चेक किया जाए।
2. यदि मरीज सामान्य/एसिंपटोमैटिक है, ख़तरे से बाहर है तो जरूरी सभी दवाएँ दे कर 24 घंटों के भीतर ही उन्हें होम आइसोलेशन पर डिस्चार्ज कर दिया जाए।
3. एक सप्ताह बाद अथवा जरूरत के अनुसार हर मरीज को 24 घंटे के लिए दोबारा एडमिट करके सभी जाँचों को दोहराया जाए और प्रगति की समीक्षा की जाए।
इन सावधानीपूर्वक उपायों से मेरा पूर्ण विश्वास है हम कोरोना की मृत्यु दर को 1% से नीचे ला सकते हैं। इससे यक़ीन मानिए अस्पतालों पर दबाव घटाने में भी मदद मिलेगी। संसाधनों की कमी के कारण आँख बंद करके सभी को होम आइसोलेशन की सलाह देना घातक होगा।
साथ ही साथ सरकार को अपने पुराने स्थापित अस्पतालों में कोविड से संबंधित सुविधाओं और मैनेजमेंट को बढ़ाना होगा। आज देश और प्रदेश में सभी कुछ मौजूद है। बेहतर मशीनें, दवाएँ, मैनेजमेंट सॉफ़्टवेयर और स्वास्थकर्मी। जरूरत सिर्फ इच्छाशक्ति की है।
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मैंने कोरोना से इनफ़ेक्टेड होने के बाद सरकारी व्यवस्थाओं को ख़ुद देखा
मैंने कोरोना से इनफ़ेक्टेड होने के बाद सरकारी व्यवस्थाओं को ख़ुद देखा और महसूस किया है। वह प्राय: किसी ज़ॉम्बी या प्रेत की तरह एक्ट करती हैं। जिसमें आत्मा नहीं होती। मेरे पास सरकारी खानापूरी के लिए मदद का दम भरने के लिए ढेरों फ़ोन आए। जिसमें से एक भी काम का नहीं था। कोरोना से ज़्यादा परेशान तो मैं उन्हें जवाब देते देते हो गया। छह से बारह हज़ार की तनख्वाह वाले संभवत: इंटर या ग्रेजुएट पास अपरिपक्व नौसिखुआ लड़के लड़कियाँ ।
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सभी के वही रटे रटाए एक जैसे सवाल और जवाब। सर हम फ़लाँ कंट्रोल रूम से बोल रहे हैं...आप कोरोना पॉज़िटिव पाए गए हैं....!@"?!/-......अपना क़ीमती समय देने के लिए आपका धन्यवाद। आपका दिन शुभ हो। .....झटपट फोन कट। इनमें से एक भी फ़ोन किसी सह्रदय समझदार व ज़िम्मेदार डॉक्टर का नहीं था जिसे वाकई फ़ोन के दूसरी ओर से बात करने वाले मरीज की जान की थोड़ी भी चिंता हो। जिससे बात करके मरीज को अपने इलाज का भरोसा हो सके।
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मेरा अनुरोध है सरकार से फ़ोन एक ही आए लेकिन काम का तो हो। अस्पताल में बिना सिफ़ारिश जगह मिल जाए। ऊपर के दबाव में पहले कई फ़ोन, फिर ढेरों फ़ॉलोअप फ़ोन से अधिकारियों की ड्यूटी भले ही काग़ज़ों में कस के पूरी हो जाए लेकिन भला किसी मरीज का नहीं होगा। इन निर्जीव व्यवस्थाओं को आत्मा से युक्त करना होगा।
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