अपना भारत Exclusive:‘लालटेन’ की लौ में ‘हाथी’ ने यूं ही नहीं मारी फूंक

Update: 2017-09-01 10:41 GMT

अनुराग शुक्ला

लखनऊ। ‘सीट तो सिर्फ बहाना था, उनको तो नहीं जाना था।’ जयप्रकाश नारायण की 15 जून 1975 की संपूर्ण क्रांति सरीखा बिगुल फूंकने का सपना पाले लालू प्रसाद यादव को मायावती ने झटका दिया है। उसके लिए यह लाइनें सबसे मुफीद हैं। पटना के उसी गांधी मैदान में ‘भाजपा भगाओ-देश बचाओ’ सत्ता विरोधी रैली में लालू प्रसाद यादव को सबसे बड़ा झटका मायावती ने ही दिया।

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दरअसल, मायावती ने लालू की रैली में शामिल न होकर अपना पुराना हिसाब भी बराबर कर लिया है। बिहार विधानसभा चुनाव से ऐन पहले बिहार में बने महागठबंधन में बसपा शामिल होने की इच्छुक थी पर लालू ने बसपा को सिर्फ एक सीट देने की पेशकश की। इस बात से मायावती बेहद खफा हो गयीं थीं। इसी वजह से एक बार फिर विपक्षी एकता को मायावती ने मुकम्मल नहीं होने दिया।

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राजनीति न समझने वाले भी साफ समझ सकते हैं कि रैली से ऐन 72 घंटे पहले सीटों के बंटवारे की शर्त लगाने वाली मायावती की मंशा क्या थी। वह रैली में न जाने की चाल थी जो उन्हें विपक्षी एकता तोडऩे के दाग से भी बचाने का माद्दा रखती थी। बसपा का इतिहास बताता है कि मायावती किसी दूसरे नेता का नेतृत्व बहुत दिन स्वीकार नहीं करती हैं। वर्ष 1995 में बसपा और सपा के गठबंधन में टूट और तीन बार भाजपा से अलगाव इसके प्रमाण हैं। जाहिर है कि सीटों का बंटवारा हो भी जाए तो नेतृत्व पर बात अटक जाएगी।

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इसके अलावा मायावती का जब भी किसी दल से समझौता हुआ है तो उसका खास फायदा नहीं हुआ है। जब सपा और बसपा ने 1993 में मिलकर चुनाव लड़ा था तो सपा ने 256 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे और उसके 109 उम्मीदवार जीते थे। सपा को 17.80 फीसदी और बसपा को 11.12 फीसदी वोट मिले। इसके ठीक बाद जब बसपा ने 1996 में कांग्रेस से समझौता कर चुनाव लड़ा तो सपा का वोट प्रतिशत बढक़र 21.80 हो गया।

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इसी तरह 1993 में जब कांग्रेस बसपा के साथ नहीं थी तो उसे 15.8 फीसदी वोट मिले थे पर 1996 में जब बसपा से मिलकर उसने 126 सीटों पर उम्मीदवार उतारे तो उसके वोट का प्रतिशत घटकर 8.35 हो गया। यह बात और है कि उत्तर प्रदेश की सियासत में मायावती को दलित वोटों के ट्रांसफर का चमत्कार कहा जाता है।

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किसी और का नेतृत्व स्वीकार नहीं

राजनैतिक विश्लेषक रामदत्त त्रिपाठी के मुताबिक, ‘मायावती तय नहीं कर पा रही हैं कि सपा के साथ जाना भी चाहिए या नहीं। लेकिन वह सीट शेयर में इस समय डिमांडिंग स्थिति में नहीं हैं। विधानसभा या लोकसभा सभी जगह बसपा सपा से बेहद कमजोर दिख रही है। प्रदेश में बसपा जूनियर पार्टनर की स्थिति में है। ऐसे में सपा को बिग ब्रदर की भूमिका और नेतृत्व अखिलेश के हाथ में ही होना राजनैतिक समीकरणों के हिसाब से रवायती माना जा सकता है।’

लोकसभा चुनाव में अभी 20 महीने से ज्यादा का समय है।

विधानसभा चुनाव 5 साल बाद होने हैं। ऐसे में मायावती भाजपा और केंद्र सरकार की नाराजगी असमय मोल नहीं लेना चाहतीं। दरअसल विपक्षी एकता का अगुवा बनने या फिर गठबंधन की राजनीति में उनके आर्थिक साम्राज्य के एकाधिकार को न सिर्फ चुनौती मिलेगी बल्कि उसका डांवाडोल होना स्वाभाविक है।

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मायावती ने जिन जिन को विधायक बनाया उनमें से ज्यादातर अराजनैतिक लोग थे। जिनके अपने और दूसरे काम धंधे थे। यह भी कहा जा सकता है कि उन्होंने सबसे ज्यादा ‘नान-पालिटिकल’ लोगों को विधायक बनाया। ऐसे अराजनैतिक मानदंडों पर चलने वाली सियासत में यह उम्मीद कम ही बचती है कि वह सिर्फ राजनैतिक कारण से कोई बड़ा फैसला लेंगी। वो भी ऐसा फैसला जो उनके भाई के खिलाफ चल रहे, प्रवर्तन निदेशालय और इनकम टैक्स के मामलों को प्रभावित कर सकता है।

लालू ने नीतीश को दलित विरोधी बताया। कहा कि नीतीश ने राष्ट्रपति चुनाव में धोखा दिया। धोखा नहीं देते तो बिहार की बेटी मीरा कुमार राष्ट्रपति होतीं। दरअसल, लालू को यह बात मायावती की कमी पूरी करने के लिए कहनी पड़ी थी। ये बात तो लालू भी बखूबी जानते हैं कि दिल्ली का रास्ता यूपी से होकर जाता है। उत्तर प्रदेश में मायावती के बिना बना महागठबंधन कहीं ना कहीं बिना दांत के शेर जैसा ही दिखाई देगा। दलित राजनीति के लिहाज से मायावती को फिलहाल सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता है।

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बहरहाल, विपक्ष बार-बार इकट्ठा हो रहा है पर जुड़ नहीं रहा है। विपक्ष के पास फेवीकोल टाइप का मजबूत नेता नहीं है। कांग्रेस राहुल गांधी को विकल्प के रूप में पेश कर रही है लेकिन विपक्षी पार्टियों को उनके नेतृत्व की राजनीतिक परिपक्वता और पार्टी के अंदर से लेकर बाहर तक की स्वीकार्यता दोनों पर शक है। ऐसे में वे चेहरा बन सकेंगे इस पर उम्मीद कम ही है। मायावती के न जाने पर यह भी एक सियासी कारण है।

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मायावती को यह पता है कि इस समय उन्हें सबसे बड़ा खतरा मोदी की राजनीति से है। फिर भी मायावती की राजनैतिक शैली में या तो नेतृत्व संभालना एक विकल्प है या फिर सत्ता की चाभी अपने पास रखना। वर्तमान में यह दोनों विकल्प उनके हाथ लगते नहीं दिख रहे हैं। ऐसे में मायावती इस पूरी कवायद में बेवजह नहीं पडऩा चाहतीं। यह भी उनकी राजनैतिक शैली ही है।

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