खून का ऐसा भी इस्तेमालः खत्म हो गए केकड़े तो कैसे बचेंगी लाखों जिंदगियां

दुनिया की सभी फार्मा कंपनियाँ अपने उत्पादों के लिए हॉर्स शू क्रैब पर निर्भर हैं। इसी कारण हर साल फार्मा कंपनियां अटलांटिक महासागर से करीब पाँच लाख हॉर्स शू केकड़ों को पकड़ती हैं, उनका खून निकालती हैं और फिर उन केकड़ों को वापस समुद्र में छोड़ देती हैं।

Update:2020-07-04 18:01 IST

नील मणि लाल

लखनऊ। समुद्र में पाये जाने वाले ‘हॉर्स शू क्रैब’ यानी घोड़े की नाल वाले केकड़े पर इनसानों की जिंदगियाँ टिकी हुईं हैं। हेलमेट के आकार वाले हॉर्स शू क्रैब के दूधिया नीले रंग के खून में ही प्राकृतिक रूप से लिमुलुस अमेबोसाइट लाईसेट नामक पदार्थ पाया जाता है। इसी पदार्थ के जरिये एंडोटॉक्सिन नामक बैकटेरियल विषाणु का पता लगाया जा सकता है।

ये कितना महत्वपूर्ण है ये इसी से समझा जा सकता है कि एंडोटॉक्सिन की सूक्ष्म मात्रा अगर किसी वैक्सीन, इंजेक्शन से दी जाने वाली दवाओं या कृत्रिम घुटने या कूल्हे जैसी स्टेराइल चीजों में पहुँच गई तो नतीजे घातक हो सकते हैं। वसंत के मौसम में हजारों केकड़े समुद्र तटों पर अंडे देने के लिए पहुँचते हैं। इन अंडों यानी ‘कोर्नुकोपिया’ पर पक्षियों के अलावा दवा कंपनियों की भी निगाह लगी होती है। इसकी वजह बहुत खास है।

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लाखों केकड़ों का निकाला जाता है खून

दुनिया की सभी फार्मा कंपनियाँ अपने उत्पादों के लिए हॉर्स शू क्रैब पर निर्भर हैं। इसी कारण हर साल फार्मा कंपनियां अटलांटिक महासागर से करीब पाँच लाख हॉर्स शू केकड़ों को पकड़ती हैं, उनका खून निकालती हैं और फिर उन केकड़ों को वापस समुद्र में छोड़ देती हैं। लेकिन इसके बाद बहुत से केकड़े मर जाते हैं। केकड़ों का खून निकाले जाने और मछली पकड़ने वालों द्वारा चारे के रूप में केकड़ों को बड़े पैमाने पर पकड़ने के फलस्वरूप पिछले कुछ दशकों से इस प्रजाति के केकड़ों की संख्या घट गई है। अमेरिका की डेलावेयर खाड़ी हॉर्स शू केकड़ों द्वारा अंडे देने का प्रमुख स्थल है और यहीं ज़्यादातर कंपनियाँ केकड़े कलेक्ट करती हैं।

वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया था कि 1990 में डेलावेयर खाड़ी में 12 लाख 40 हजार केकड़े अंडे देने आए लेकिन 2002 में इनकी संख्या 3 लाख 33 हजार ही रह गई। 2019 में ये संख्या 3 लाख 35 हजार थी। महामारी के कारण 2020 में ये गिनती रद कर दी गई थी। पर्यावरणविदों की चिंता है कि केकड़ों की संख्या में गिरावट से पारिस्थिकी संतुलन को नुकसान हो सकता है।

कठिन काम

केकड़ों को पकड़ना और उनका खून निकालना एक लंबा काम है। इसी वजह से केकड़े के खून में पाये जाने वाले लिमुलुस अमेबोसाइट लाईसेट के एक गैलन (करीब 3.78 लीटर) की कीमत 60 हजार डालर (45 लाख रुपये) होती है। 2016 में लिमुलुस अमेबोसाइट लाईसेट के एक सिंथेटिक विकल्प ‘आरएफसी’ को यूरोप में मंजूरी दी गई। अमेरिका कुछ कंपनियाँ भी अब सिंथेटिक पदार्थ का इस्तेमाल कर रही हैं। लेकिन 1 जून 2020 को अमेरिकन फार्माकोपिया ने आरएफसी को केकड़े से मिलने वाले लाईसेट के बराबर मानने से इंकार कर दिया और कहा कि आरएससी की सेफ़्टी को अभी तक साबित नहीं किया जा सका है। अमेरिकन फार्माकोपिया ही अमेरिका में औषधियों और अन्य मेडिकल प्रोडक्ट्स के लिए वैज्ञानिक मानक तय करता है।

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केकड़े और कोरोना वैक्सीन

इस महीने स्विट्ज़रलैंड स्थित कंपनी ’लोंजा’ इनसानों पर कोविड-19 का क्लीनिकल ट्रायल शुरू करेगी अगर इस कंपनी को अपनी वैक्सीन अमेरिका में बेचनी है तो उसे वैक्सीन में लाईसेट का इस्तेमाल करना होगा। लोंजा ने कहा है कि उसकी वैक्सीन के लिए अमेरिका के तीन लाईसेट निर्माताओं के एक दिन के प्रॉडक्शन से ज्यादा के उसे जरूरत नहीं होगी। अमेरिका के तीन लाइसेट निर्माताओं में से एक, चार्ल्स रिवर लैबॉरेटरीज़ के अनुसार कोविड-19 की 5 अरब डोज़ बनाए के लिए 6 लाख टेस्ट करने की जरूरत होगी और इसमें लाइसेट के एक दिन के प्रॉडक्शन से काम चल जाएगा।

नीला खून

अनोखी विशेषताओं वाले हॉर्स शू केकड़े में करोड़ों साल से कोई बदलाव नहीं आया है। नामे भले ही इनका हॉर्स शू यानी घोड़े की नाल पर हो लेकिन ये प्राणी मकड़ियों और बिच्छुओं से ज्यादा मिलते जुलते हैं। इन केकड़ों की नौ आँखें होती हैं। 1956 में मेडिकल रिसर्चर फ्रेड बैंग ने हॉर्स शू केकड़ों में एक नई खासियत का पता लगाया। उन्होने देखा कि जब इस केकड़े का खून एंडोटॉक्सिन के संपर्क में आता है तो अमीबोसाइट्स नाम वाले सेल्स में थक्का जाम जाता है और वे ठोस रूप ले लेते हैं। यहीं से इन केकड़ों के खून की दवा कंपनियों के लिए महत्व की पहचान हुई। वैज्ञानिकों ने इस पर काम किया और 1977 में अमेरिका के फूड एंड ड्रग एड्मिनिसट्रेशन ने हॉर्स शू क्रैब के खून से निकाले गए लाइसेट के इस्तेमाल को मंजूरी दे दी।

नस से खून निकालते हैं

इसके बाद से हर साल मई के महीने में बड़ी संख्या में हॉर्स शू केकड़ों को अमेरिकी की विशेषज्ञ प्रयोगशालाओं में लाया जाता है। जहां टेकनीशियन इन केकड़ों के हृदय के पास एक नस से खून निकालते हैं। इसके बाद इन केकड़ों को समुद्र में छोड़ दिया जाता है। 80 और 90 के दशक में ये प्रोसेस सही माना जाता था। फार्मा कंपनियों का दावा है कि खून निकाले जाने के बाद मात्र तीन फीसदी केकड़ों की ही मौत होती है। लेकिन केकड़ों की गिनती के सर्वे बताते हैं कि जब केकड़ों की संख्या अच्छी खाई थी तब पर्यावरणविदों ने इस प्रजाति की कोई खास अहमियत नहीं बताई।

लेकिन 2000 के दशक की शुरुआत से स्थितियाँ बदलने लगीं। हर साल केकड़ों के गिनती ने इनकी गिरती संख्या बतानी शुरू कर दी। 2010 की एक स्टडी में पता चला कि खून निकाले जाने के बाद 30 फीसदी केकड़ों की मौत हो जाती है। पहले के अनुमान की तुलना में ये संख्या 10 गुना अधिक है।

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