करोड़ों कमाता है ये पहाड़! देता है इतने पैसे कि देश की जीडीपी है इसके भरोसे

एवरेस्ट पर किसी की मौत बहुत महंगी पड़ती है। एक शव को नीचे लाना बेहद जोखिम भरा काम होता है। इसमें दस शेरपाओं की मदद लेनी पड़ती है और एक शव नीचे लाने का खर्चा 70 हजार डॉलर तक पड़ जाता है। यही वजह है कि अधिकांश शव पहाड़ों पर ही छोड़ दिए जाते हैं।

Update: 2020-02-25 10:38 GMT

नीलमणि लाल

लखनऊ: बहुत कम समय में विश्व का सबसे ऊंचा पर्वत ‘एवरेस्ट’ एक निर्जन, दुर्गम और दुष्कर स्थल से एक कीमती कमर्शियल संपत्ति में तब्दील हो गया है। नेपाल जैसे गरीब देश के लिए एवरेस्ट अब करोड़ों डॉलर का उद्योग बन चुका है। 29,029 फुट ऊंचे इस ‘उद्योग’ को पश्चिमी देशों के शौकीनों से पर्याप्त ईंधन मिलता है।

एक लाख डॉलर खर्च करके एवरेस्ट फतह के शौकीनों के चलते जो कभी निर्जन और अनछुआ सा क्षेत्र था वहां अब 550 डॉलर कीमत वाले ऑक्सीजन मास्क, हजारों किलो फ्रोजन मानव मल और दो सौ से ज्यादा शव बिखरे पड़े हैं।

एवरेस्ट पर ट्रैफिक पिछले बीस साल में दस गुना बढ़ गई है। एवरेस्ट पर अब तक कुल 10055 लोगों ने फतह किया है और इनमें से आधे तो सिर्फ पिछले दशक में हुए हैं। 2019 में ही 876 लोगों ने एवरेस्ट फतह किया जो अब तक का रिकार्ड है। इसी भीड़ के कारण पिछले साल एवरेस्ट पर ट्रैफिक जाम हो गया था और 11 मौतें भी हुईं। 1953 से 1999 तक एवरेस्ट पर कुल 1959 लोग चढ़े थे वहीं वर्ष 2000 से अब तक 8986 लोग एवरेस्ट पर फतह कर चुके हैं।

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एवरेस्ट का व्यवसायीकरण

1953 में जब तेजिंग नोर्गे और एडमंड हिलेरी ने एवरेस्ट के शीर्ष पर कदम रखा उस दौर में पर्वतारोहण राष्ट्रीय अभियानों, वैज्ञानिक अनुसंधानों और पर्वतारोहियों के क्लबों तक ही सीमित था। दशकों तक नेपाल और तिब्बत ने विदेशी पर्वतारोहियों को एवरेस्ट पर चढऩे की इजाजत नहीं दी। अस्सी के दशक में तो प्रत्येक सीजन में एवरेस्ट पर जाने की सिर्फ एक व्यक्ति को ही इजाजत दी गई। लेकिन नब्बे के दशक में सब कुछ अचानक बदल गया।

बिजनेस का आइडिया

एडवेंचर कंसल्टेंट रॉब हाल और माउंटेन मैडनेस कंपनी के मालिक स्कॉट फिशर ने देखा कि पश्चिमी देशों के लोगों को एडवेंचर और थ्रिल के लिए एवरेस्ट की ओर आकर्षित करके बढिय़ा कमाई की जा सकती है। बिजनेस के बढिय़ा अवसर को भांपते हुए ये दोनों नेपाल सरकार के अधिकारियों को समझा पाने में सफल रहे कि एवरेस्ट को विदेशियों के पूरी तरह खोल दिया जाना चाहिए।

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इसके बाद तो बाढ़ जैसी आ गई। पश्चिम के लोगों ने देखा कि पैसा खर्च करके आसानी से शेरपा गाइड के सहयोग से एवरेस्ट पर चढ़ा जा सकता है तो लोगों की भीड़ जुटना शुरू हो गई। 2000 के दशक में आलम ये हो गया कि दर्जनों पश्चिमी गाइडों ने एवरेस्ट अभियान कंपनियां खड़ी कर दीं। जहां साल में सिर्फ 50 से 60 व्यक्ति एवरेस्ट पर जाते थे वहीं इनकी संख्या सालाना 500 से ज्यादा हो गई।

नेपाल की कमाई

आज नेपाल की पूरी अर्थव्यवस्था माउंट एवरेस्ट पर्यटन पर टिकी हुई है। दुनिया के सबसे गरीब देशों में शामिल नेपाल अब एवरेस्ट से करोड़ों डॉलर की कमाई करता है। नेपाल की टूरिज्म इंडस्ट्री हिमालय पर ट्रेकिंग के अभियानों से होने वाली कमाई पर निर्भर है। देश की 24 बिलियन डॉलर की जीडीपी का दस फीसदी हिस्सा हिमालयी ट्रेकिंग से आता है। एवरेस्ट पर अत्यधिक भीड़ के बावजूद नेपाल पर्वतारोहण अभियानों के परमिट की सालाना लिमिट तय करने से इनकार करता रहा है। इसका कारण ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाने की लालसा है। एक परमिट के लिए नेपाल सरकार 11 हजार डॉलर फीस लेती है।

कितना पड़ता है खर्चा

एवरेस्ट पर चढऩे का सफर लुकला नामक छोटे से गांव से शुरू होता है। पर्वतारोही काठमांडू सी विमान द्वारा लुकला पहुंचते हैं जहां से 6-8 हफ्ते की एवरेस्ट यात्रा शुरू होती है। एवरेस्ट की यात्रा के लिए हर पर्वतारोही को उन कंपनियों से संपर्क करना होता है जो एवरेस्ट के लिए गाइडेड टूर की व्यवस्था करती हैं। इस तरह की पचासों कंपनियां मैदान में हैं।

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हर कंपनी की अलग अलग फीस होती है। लेकिन फिर भी एवरेस्ट का पैकेज 35 हजार डॉलर से 160 हजार डॉलर तक का पड़ता है। लेकिन पश्चिमी देशों के ऑपरेटर औसतन 66 हजार डॉलर चार्ज करते हैं। इन फीस में नेपाल सरकार द्वारा लिए जाने वाली सभी शुल्क शामिल होते हैं। इसमें प्रति पर्वतारोही 11 हजार डॉलर, 3 हजार डालर की संपर्क अधिकारी की फीस, 2.5 हजार डॉलर की रूट फीस, 2.5 हजार डॉलर की सुविधा फीस और 4 हजार डॉलर डिपाजिट शामिल है। इसके अलावा पर्वतारोहियों को ट्रेकिंग के लिए उपकरणों पर 10 से 15 हजार डॉलर, हवाई यात्रा, इमरजेंसी इंश्योरेंस, सैटेलाइट फोन की फीस और डेढ़ साल की ट्रेनिंग पर अलग से खर्चा करना पड़ता है।

शेरपा के भरोसे

हिमालय की ऊंची पहाडिय़ों पर रहने वाले शेरपा समुदाय के लोग एवरेस्ट अभियानों की रीढ़ हुआ करते हैं। एवरेस्ट अभियानों में हर पर्वतारोही के साथ एक शेरपा गाइड जाता है। इनका काम बेहद जोखिम भरा होता है। यही लोग अभियान का सीजन शुरू होने से पहले दुर्गम रास्तों पर रस्सियां फिक्स करते हैं, सीढिय़ां लगाते हैं। ऑक्सीजन सिलेंडरों समेत अन्य उपकरणों का 27 किलो तक का बोझ उठा कर पर्वतारोही के साथ जाते हैं। एवरेस्ट पर हुई कुल 304 मौतों में से 119 (39 फीसदी) शेरपाओं की हुई हैं। 2014 में रस्सियां फिक्स करते वक्त हिमस्खलन की चपेट में आ कर 16 शेरपा मारे गए थे। एक सीजन में शेरपा को करीब 5 हजार डॉलर मिलते हैं जबकि पश्चिमी गाइड इससे कहीं ज्यादा चार्ज करते हैं।

बढ़ता कंपटीशन

अभी तक एवरेस्ट अभियानों पर पश्चिमी देशों के ऑपरेटरों का कब्जा हुआ करता था। यही ऑपरेटर सभी सुविधाएं आदि मुहैया कराते थे। लेकिन अब लोकल नेपाल कंपनियां आधी दरों पर एवरेस्ट अभियान कराने लगी हैं। पिछले 5 साल में युवा शेरपाओं ने दूसरों के लिए काम करने की बजाए अपनी खुद की अभियान कंपनियां लांच की हैं। ये नेपाली कंपनियां औसतन 38 हजार डॉलर की फीस चार्ज करती हैं जो पश्चिमी कंपनियों से 40 फीसदी कम है।

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कम फीस के कारण एक नया बाजार खुल गया है जो भारत और चीन के मिडिल क्लास पर्वतारोहियों को आकर्षित कर रहा है। लेकिन पश्चिमी गाइडों का कहना है कि ये नेपाली गाइड फीस के बदले किसी को भी एवरेस्ट पर ले जाते हैं। सुरक्षा, अनुभव, फिटनेस सब दरकिनार कर दिया जाता है। जहां अन्य कंपनियां करीब 20 पर्वतारोहियों को ले जाती हैं वहीं नेपाल कंपनियां 100 लोगों को एकसाथ ले जाती हैं। मुनाफाखोरी के फेर में एवरेस्ट पर भीड़ बढ़ती जा रही है। 2019 में एवरेस्ट पर 11 मौतें हुईं और ये सब सस्ती फीस वाले गाइडों के साथ गए हुए लोग थे।

महंगी है मौत

एवरेस्ट पर किसी की मौत बहुत महंगी पड़ती है। एक शव को नीचे लाना बेहद जोखिम भरा काम होता है। इसमें दस शेरपाओं की मदद लेनी पड़ती है और एक शव नीचे लाने का खर्चा 70 हजार डॉलर तक पड़ जाता है। यही वजह है कि अधिकांश शव पहाड़ों पर ही छोड़ दिए जाते हैं।

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