आ गया टेलीमेडिसिन का जमाना, अस्पताल की भीड़ हुई कम, जानिए इसके बारे में
पहले मरीज और डाक्टर आमने सामने नजदीक से बातचीत करते थे अब वहीं ये काम कम्प्यूटर या मोबाइल की स्क्रीन पर होता है। यही है टेलीमेडिसिन जिसमें मरीज और डॉक्टर दूरसंचार के माध्यम से एक दूसरे से रूबरू होते हैं।
कोरोना काल में लॉकडाउन का एक प्रभाव लोगों की अन्य बीमारियों के इलाज के तरीकों पर पड़ा है। जहाँ पहले मरीज और डाक्टर आमने सामने नजदीक से बातचीत करते थे अब वहीं ये काम कम्प्यूटर या मोबाइल की स्क्रीन पर होता है। यही है टेलीमेडिसिन जिसमें मरीज और डॉक्टर दूरसंचार के माध्यम से एक दूसरे से रूबरू होते हैं। जांच रिपोर्ट व्हाट्सअप या ईमेल पर भेजी और देखी जाती है और डाक्टर दवाइयां और जांचें आदि भी इसी तरह लिख देते हैं। भारत में टेलीमेडिसिन बहुत ही सीमित थी लेकिन कोरोना काल में इसका इस्तेमाल काफी बढ़ा है। अब तो एक शहर में ही डाक्टर अपने मरीजों को फोन और व्हाट्सअप पर परामर्श देने लगे हैं। यानी अब टेलीमेडिसिन पैर जमाने लगा है।
ई-संजीवनी
देश भर में ‘ई-संजीवनी’ के नाम से टेलीमेडिसिन सेवा केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने नवंबर 2019 में शुरू की थी। लेकिन तब इसमें ओपीडी की सुविधा नहीं थी। इस योजना को केंद्र सरकार की आयुष्मान भारत योजना के तहत चिन्हित मेडिकल कॉलेज और अस्पतालों के साथ मिलकर दिसंबर 2022 तक 1.55 लाख स्वास्थ्य एवं कल्याण केंद्रों में लागू किए जाने का लक्ष्य रखा गया। फ़िलहाल, ई-संजीवनी 4,000 स्वास्थ्य एवं कल्याण केंद्रों में लागू है।
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भारतीय चिकित्सा परिषद (एमसीआई) ने कोरोना संक्रमण से बचाव के लिए 25 मार्च को टेलीमेडिसिन को लेकर गाइडलाइन जारी की थी कि डॉक्टर अपने मरीज़ों को टेलीफोन और वीडियो कॉल पर परामर्श दे सकते हैं, जिससे मरीज़ डॉक्टर के निर्देशों पर दवा खरीद सकते हैं।
लॉकडाउन में मरीज़ों का डॉक्टरों तक पहुंचना हो रहा था मुश्किल
कोरोनावायरस महामारी और लॉकडाउन की वजह से जब मरीज़ों का डॉक्टरों तक पहुंचना मुश्किल हो रहा था तब केंद्र सरकार ने 13 अप्रैल 2020 को इसका दूसरा संस्करण लॉन्च किया जिसमें ओपी़डी की सुविधा दी गई थी। ई-संजीवनी-ओपीडी के तहत मरीज़ों को उनके घरों तक ओपीडी सेवाएं उपलब्ध कराई गई।
ग्रामीण क्षेत्रों में अभी पहुँच नहीं
लॉकडाउन के दौरान बड़ी संख्या में लोगों ने इस सेवा का इस्तेमाल किया लेकिन अभी भी यह सेवा ग्रामीण क्षेत्रों तक पूरी तरह से नहीं पहुंच पाई है। इस सेवा का मकसद था कि सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में बेहतर स्वास्थ्य सुविधा पहुंचाई जाए और डॉक्टरों की सीमित संख्या के बावजूद लोगों को बेहतर इलाज दिया जाए लेकिन जागरूकता की कमी की वजह से यह अपने मकसद को हासिल करने में उतनी सफ़ल नहीं रही है।
उत्तर प्रदेश टेलीपरामर्श सेवाएं देने में आगे
केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अनुसार, कोरोना काल में नवम्बर तक देश भर के सात लाख लोगों को ई-संजीवनी के ज़रिए इलाज के लिए परामर्श दिया गया। इस सेवा का सबसे ज़्यादा इस्तेमाल तमिलनाडु में हुआ जहां 231,391 लोगों ने इसका लाभ उठाया। दूसरे नंबर पर उत्तर प्रदेश रहा। यूपी में 196,349 लोगों ने ई-संजीवनी के सहारे डॉक्टरों से सलाह ली। उत्तर प्रदेश में टेलीमेडिसिन से 48 अस्पताल जुड़े हैं। उत्तर प्रदेश जैसे बड़े आबादी वाले राज्य में जहां डॉक्टरों की भारी कमी है वहां ये सेवा कारगर हो सकती है।
बेहतर विकल्प साबित
वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइज़़ेशन के मानकों के हिसाब से हर 1,000 लोगों पर एक डॉक्टर का अनुपात होना चाहिए। इस हिसाब से यूपी में कम से कम 20 लाख डॉक्टर होने चाहिए लेकिन 30 सितंबर 2019 तक राज्य में केवल 81,348 एलोपैथिक डॉक्टर ही रजिस्टर्ड थे। यानी ज़रूरत के हिसाब से लगभग 60 फीसदी डॉक्टरों की कमी थी। ऐसे में टेलीमेडिसिन से इलाज एक बेहतर विकल्प साबित हो सकता है।
एप आधारित सेवा
इस सेवा के इस्तेमाल के लिए मरीज़ों को ई-संजीवनी का मोबाइल एप डाउनलोड कर या कंप्यूटर पर रजिस्ट्रेशन कराना होता है। रजिस्ट्रेशन में मरीज़ को अपनी और मर्ज़ की जानकारी और मोबाइल नंबर डालने होते हैं। मोबाइल नंबर पर आए ओटीपी को दर्ज करने के बाद लॉग इन करना होता है। लॉग इन करने के बाद मरीज़ को एक टोकन नंबर मिलता है और उसे अपनी बारी का इंतज़ार करना होता है। मरीज़ को कितना इंतज़ार करना है इसकी जानकारी भी ई-संजीवनी वेबपोर्टल या एप पर लगातार दी जाती है।
मानसिक बीमारियों के इलाज में बेहद कारगर
टेलीमेडिसिन से कुछ बीमारियों में तो बढ़िया इलाज हो सकता है जिसमें मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी बीमारियां सबसे पहले हैं। इसमें मरीज़ दूर रहकर अकेले में बैठकर जितने अच्छे तरीके से अपनी समस्या बता सकता है उतना डॉक्टर के सामने बैठकर भी नहीं बता सकता। इसमें मरीज़ का समय, पैसा और मेहनत तीनों ही बचती है।
काफी हद तक समस्या से निपटा जा सकता
अभी भी उत्तर प्रदेश के कई ऐसे ज़िले और कस्बे हैं जहां स्पेशलिस्ट डॉक्टर नहीं है और इसकी वजह से बड़े मेडिकल कॉलेजों पर मरीज़ों का बोझ लगातार बढ़ता है। ओपीडी में मरीज़ों की लंबी लाइन देख सकते हैं जबकि टेलीमेडिसिन के सही इस्तेमाल से काफी हद तक इस समस्या से निपटा जा सकता है। यानी इसमें बहुत संभावनाएं हैं लेकिन उसे समझना जरूरी है।
कर रहा सहयोग प्रदान
ई-संजीवनी प्लेटफॉर्म दो तरह की टेलीमेडिसिन सेवाओं - डॉक्टर से डॉक्टर कनेक्ट (ई-संजीवनी) और मरीज से डॉक्टर कनेक्ट (ई-संजीवनी ओपीडी) में आवश्यक सहयोग प्रदान कर रहा है। डॉक्टर से डॉक्टर कनेक्ट दरअसल आयुष्मान भारत स्वास्थ्य एवं वेलनेस सेंटर कार्यक्रम का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसका शुभारंभ नवम्बर, 2019 में हुआ था। इसका लक्ष्य दिसम्बर, 2022 तक ‘हब एवं स्पोक’ मॉडल के तहत सभी 1.5 लाख स्वास्थ्य एवं वेलनेस केन्द्रों में टेली-कंसल्टेशन को कार्यान्वित करना है। राज्यों को मेडिकल कॉलेजों एवं जिला अस्पतालों में समर्पित या विशेष ‘हब’ चिन्हित एवं स्थापित करने की जरूरत है, ताकि एसएचसी और पीएचसी में टेली-कंसल्टेशन सेवाएं मुहैया कराई जा सकें।
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मैककिंसी डिजिटल इंडिया ने 2019 में एक रिपोर्ट में बताया था कि टेलीमेडिसिन मॉडल के कारण अस्पताल जाने वाले मरीजों की संख्या आधी हो सकती है, क्योंकि अस्पताल जाकर डॉक्टर से दिखाने के मुकाबले घर बैठे फोन पर सलाह लेने में 30 फीसदी कम खर्च आता है। एक अनुमान है कि टेलीमेडिसिन की वजह से साल 2025 तक 300-375 अरब रुपये की बचत हो सकती है। शुरुआती दौर में ही भारत टेलीमेडिसिन के मामले में दुनिया के टॉप 10 देशों की लिस्ट में शामिल हो गया है।
1970 में पहली बार टेलीमेडिसिन शब्द का इस्तेमाल हुआ था
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक 1970 में पहली बार टेलीमेडिसिन यानी दूर से इलाज शब्द का इस्तेमाल हुआ था। उस दौरान फोन पर लक्षण के आधार पर बीमारी की पहचान और इलाज करने की शुरुआत हुई थी। टेलीमेडिसिन में वीडियो कॉलिंग के जरिए भी मरीज को देखा जाता है और ब्लड प्रेशर मॉनिटर के डाटा के आधार दवा दी जाती है। कुल मिलाकर कहें तो टेलीमेडिसिन में डॉक्टर्स दूर बैठे मरीज का इलाज करने की कोशिश करते हैं। कोरोना महामारी में भी ऐसा ही हो रहा है। चैटबॉट से लोग लक्षण बताकर कोरोना से जोखिम की जानकारी ले रहे हैं।
चुनौतियाँ भी हैं
भारत के सन्दर्भ में टेलीमेडिसिन में सबसे बड़ी चुनौती इन्टरनेट को ले कर है। इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया के मुताबिक़ भारत में 2019 के आख़िर में इंटरनेट के 45 करोड़ एक्टिव यूजर थे। लेकिन इनमें से ज़्यादातर शहरी इलाक़ों के मोबाइल यूजर थे। गांवों में इंटरनेट यूजर्स की संख्या, शहरी इलाक़ों के यूजर्स से काफ़ी कम है। इसके अलावा क़ानूनी विशेषज्ञ टेलीमेडिसिन कंपनियों और ई-कंस्लटेशन कंपनियों के रेगुलेशन का सवाल उठाते हैं। उनकी सबसे बड़ी चिंता यह है कि ये कंपनियां मरीज़ों के डेटा का दुरुपयोग कर सकती हैं।