चीन से नाखुश था पाकिस्तान, नेहरू ने ठुकरा दी चीन के खिलाफ पाक की पेशकश
1958 में पाकिस्तान के पहले सैन्य शासक फील्ड मार्शल अयूब खान सत्ता की कुर्सी पर विराजमान हुए। जो चीन की कम्युनिस्ट विस्तारवादी नीति को लेकर चिंतित थे।
इस समय चीन की ओर से लगातार कुछ हरकतें की जा रही हैं। जिससे भारत और चाइना के बीच तनाव की स्थिति बनी हुई है। लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर भारत और चीन की सेनाएं आमने-सामने हैं। वहीं पाकिस्तान जो चीन कामित्र या यूं कहें कि चीन की दम पर उछलने वाला पाकिस्तान इस समय एक ओर खड़ा हो कर भारत और चीन के बीच इस तनावपूर्ण मंजर का मजा ले रहा है। पाकिस्तान इससे मन ही मन खुश भी होगा। क्योंकि पाकिस्तान को लगता है कि चीन भारत से काफी मजबूत है। पाकिस्तान सरकार इस लिए इस लद्दाख तबाव पर चुटकी ले रही है। तो वहीं पाकिस्तान के लोग भी सोशल मीडिया पर भारत पर तंज कस रहे हैं। लेकिन क्या आपको पता है कि पाकिस्तान हमेशा से चीन के इतने करीब नहीं था। कभी स्थिति वर्तमान परिस्थिति के बिलकुल ही उलट थी।
आज से 60 वर्ष पहले और थे हालात
आज जो पाकिस्तान चीन का गुलाम बना हुआ है। कभी पाकिस्तान और चीन एक-दूसरे के'खिलाफ थे। आज से 60 वर्ष पहले सन 1959 में पाकिस्तान और अमरीका के बीच रक्षा सहयोग का समझौता हुआ था। जिसके तहत पेशावर के पास बड़ाबेर हवाई अड्डा सोवियत संघ और चीन की जासूसी के लिए पेंटागन व सीआईए को सौंप दिया गया। वहीं, चीन भी पाकिस्तान के खिलाफ था और उसने पाक अधिकृत कश्मीर में पड़ने वाले हुंजा और गिलगित को अपने क्षेत्र बताया था। सन 1958 में पाकिस्तान के पहले सैन्य शासक फील्ड मार्शल अयूब खान सत्ता की कुर्सी पर विराजमान हुए। अयूब खान चीन की कम्युनिस्ट विस्तारवादी नीति को लेकर चिंतित थे।
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जिसके चलते जनरल खान ने उस समय भारत के सामने ऐसी पेशकश रखी, जो आज के दौर में नामुमकिन लग सकती है। जनरल अयूब खान ने चीन के खिलाफ भारत-पाकिस्तान संयुक्त सैन्य समझौते की पेशकश की थी। पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के पहले कार्यकाल में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार रहे जेएन दीक्षित 2002 में आई अपनी किताब 'इंडिया-पाकिस्तान इन वार एंड पीस' में लिखते हैं कि अयूब खान ने 24 अप्रैल 1959 को भारत के सामने इस समझौते का प्रस्ताव रखा। इसके एक महीने पहले ही दलाई लामा ने चीन की क्रूरता से बचने के लिए तिब्बत से भागकर भारत में शरण ली थी. इसके बाद चीन भारत से और नाराज हो गया।
नेहरू के पाक का प्रस्ताव ठुकराने की हो सकती कई वजह
जेएन दीक्षित ने अपनी किताब में पाकिस्तानी राजदूत मोहम्मद अली के 20 अप्रैल 1959 को दिए गए उस बयान का जिक्र किया है जिसमें अली ने कहा था कि तिब्बत के घटनाक्रम से एशियाई लोगों की शालीनता को तगड़ा झटका लगा है। इस मसले ने रेड इम्पीरियलिज्म के खतरे के प्रति एशिया की आंखें खोल दी हैं। चीनी सैनिकों ने 1953 से ही हुंजा में घुसपैठ शुरू कर दी थी। जिसके बाद 1959 में पाकिस्तान की सत्ता पर काबिज अयूब ख्कान ने ये घोषणा की पाकिस्तान की सेना अपनी सीमा में किसी भी तरह की चीनी घुसपैठ का मुहं तोड़ जवाब देने के लिए तैयार है।
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लेकिन तभी अप्रैल 1959 में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने पाकिस्तान के प्रस्ताव को ठुकरा दिया। इसी साल मई में नेहरू ने संसद में कहा कि हम पाकिस्तान के साथ साझा रक्षा नीति नहीं चाहते हैं, जो एक तरह का सैन्य सहयोग ही होगा। जेएन दीक्षित ने आगे अपनी किताब में लिखा ''हो सकता है कि नेहरू अयूब खान की ओर से आए इस संयुक्त रक्षा समझौते को जम्मू-कश्मीर को लेकर किसी तरह के समझौते के तौर पर देख रहे हों। शायद इसीलिए उन्होंने प्रस्ताव को ठुकरा दिया हो।''
वहीं इसको लेकर एक और तर्क भी है। एक मीडिया प्रकाशन की रिपोर्ट के अनुसार पाकिस्तान की इस पेशकश से पहले 1948 में भारत जम्मू-कश्मीर में घुसपैठ के बाद 1949 में खुद भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने पाकिस्तान के सामने 'नो वार' समझौते की पेशकश रखी थी, जिसे पाकिस्तान की ओर से ठुकरा दिया गया था। अयूब खान ने सितंबर 1959 में बताया कि उनके प्रस्ताव में जम्मू-कश्मीर और कैनाल वाटर समस्या का समाधान निकालना भी एक शर्त थी। वहीं इसको लेकर एक पक्ष ये भी है कि कुछ विद्वानों का ये भी मानना है कि नेहरू और तत्कालीन भारतीय सेना प्रमुख केएस थिमैया के बीच असहमति के कारण भी अयूब खान का प्रस्ताव ठुकरा दिया गया था।
ऐसे करीब आए चीन-पाकिस्तान
चाउ एन लाई ने 1960 में चीन-भारत सीमा विवाद समाप्त करने के लिए सुझाव दिया। उन्होंने कहा कि अगर भारत लद्दाख से जुड़े अक्साई चीन क्षेत्र पर चीनी दावा स्वीकार कर ले तो चीन हिमालय की दक्षिणी तराई पर अपना दावा वापस लेने को तैयार है। नेहरू सरकार ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया। फिर बढ़ते हुए तनाव में चीन ने 1962 में भारत की दो सीमाओं पर हमला ही नहीं बल्कि पराजित भी कर डाला। जब इस मामले को अंतरराष्ट्रीय मंच पर उठाया गया तो अमेरिका और सोवियत संघ ने भारत का साथ दिया।
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पाकिस्तान अमेरिका के रवैये पर हैरान हुआ और फिर चीन के साथ संबंध सुधारने का ऐतिहासिक फैसला कर लिया। फटाफट सरहदी हदबंदी का समझौता भी हो गया। इसके बाद 1965 के युद्ध ने पाकिस्तान और चीन की दोस्ती पर मुहर पक्की कर दी। तब से आज तक हर मौके पर चीन पाकिस्तान का और पाकिस्तान चीन का साथ देता आ रहा है।