BHU: भक्तिकाल में रची गईं कविताएं कौशल से नहीं आचरण से पैदा हुई हैं

BHU: अपने संबोधन में हिंदी के विभागाध्यक्ष सदानंद शाही ने कहा कि 'भक्तिकाल और भारत का स्वप्न' विषय का वितान भी विस्तृत है, सबसे पहले मुझे तुलसीदास की याद आती है, रामचरित मानस का राम वन-गमन प्रसंग।

Update:2023-04-28 03:03 IST
Discussion on Bhaktikal bharat ka swapn organized at Kashi Hindu University

BHU: काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी साहित्य के प्रोफेसर गोपेश सिंह ने कहा कि भक्तिकाल में जो कविताएं रची गईं वे कवि कौशल से लिखी गई कविताएं नहीं हैं, अपितु आचरण से पैदा हुई कविताएं हैं। वह हिंदी विभाग द्वारा बुधवार को आयोजित एकल व्याख्यान को संबोधित कर रहे थे, जिसका विषय ‘भक्तिकाल और भारत का स्वप्न’ था। कार्यक्रम के मुख्य वक्ता के तौर पर अपने संबोधन में उन्होंने तुलसीदास की एक पंक्ति "प्रभु पद रेख बीच बिच सीता, धरत चरन मग चलत सभीता" का उल्लेख करते हुए कहा कि शोधार्थियों के भी अपने पग की एक अलग पहचान होनी चाहिए। गांधीजी ने भी भक्ति कविता का परायण किया था। गांधीजी का भी मानना था कि राजनीति भी इसी तरह के आचरण पर टिकी होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि शोध समवाय के प्रथम वक्ता के तौर पर मुझे हर्ष का अनुभव हो रहा है। पूर्व में हमने भी शोध समवाय नाम से एक संस्था का गठन किया था। इसका उद्देश्य शोधार्थियों को नई दिशा प्रदान करना है।

अपने संबोधन में हिंदी के विभागाध्यक्ष सदानंद शाही ने कहा कि 'भक्तिकाल और भारत का स्वप्न' विषय का वितान भी विस्तृत है, सबसे पहले मुझे तुलसीदास की याद आती है, रामचरित मानस का राम वन-गमन प्रसंग। ग्रामीण युवतियां पूछती हैं सीता से कि 'सांवरे को सखी रावरे को हैं' राम आगे - आगे चल रहे हैं और सीता पीछे-पीछे। ‘प्रभु पद रेख बीच-बिच सीता, धरत चरन मग चलत सभीता'। सीता जी इस भांति चरण रखते हुए चल रही हैं कि राम के पद चिन्हों पर उनके पद चिन्ह न पड़ जाएं और लखन दाएं-बाएं चरण रख कर चलते हैं। ठीक इसी तरह शोधार्थियों को अपने बड़ों के चरणों की पहचान हो, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा, विजयदेव नारायण साही आदि के चरण चिन्हों का ज्ञान होना चाहिए लेकिन इन्ही चिन्हों पर चरण रखकर चलेंगे तो ये वैसा ही होगा जैसे पीसे हुए आटे को फिर-फिर से पीसना। अपने बड़ों के चरणों पर चरण रखें इसे हमारे भारतीय संस्कृति में अपराध माना जाता है।

उन्होंने कहा कि भक्तिकाल को पढ़ते हुए भारत का स्वप्न क्या हो सकता है? कैसा होना चाहिए? भक्ति कविता कौशल से लिखी कविता नही है बल्कि आचरण से पैदा हुई कविता है। पूरी दुनिया में ऐसा आंदोलन नहीं दिखाई देगा। इस काल के कवियों के कथनी और करनी में अंतर नहीं है। वह कहते हैं कि नारी माया है तो है, वर्णव्यवस्था टूटनी चाहिए तो टूटनी चाहिए। ये जो आचरण से पैदा हुई कविता है इसके पीछे कई महानायकों का हाथ है। स्वंतत्रता संग्राम के जो महानायक थे, उन्होंने भी भारत का स्वप्न देखा था। महात्मा गांधी जैसे महानायकों की राजनीति आचरण से पैदा हुई राजनीति थी। आप इसमें भारत के स्वप्न को देख सकते हैं। महात्मा गांधी ने कहा था कि मेरा जीवन ही मेरा संदेश है। घनानंद ने कहा था, “ लोग है लागी कवित्त बनावत, मोही तो मेरो कवित्त बनावत।" कविता कौशल बनाती है न कि कौशल कविता को बनाता है। उन्होंने इसका उल्लेख करते हुए दुःख प्रकट किया कि आज के छात्रों को कविता के टुकड़े याद रहते हैं। कबीर, तुलसी तक को ठीक से पढ़ा नहीं, पाठ, उद्धरण, नाटकों के संवाद याद नहीं रहते। उन्होंने बताया कि हम अपने समय में मुगले आज़म तक के शेर को याद कर लिया करते थे, उन्होंने ‘सलीम’ का एक शेर प्रस्तुत किया, " हमारा दिल आपका हिंदुस्तान नहीं है, जिस पर आप हुकूमत करें।"

कार्यक्रम का माहौल एकदम से लोकतांत्रिक था, छात्रों को प्रश्न पूछने और टिप्पणी करने का अवसर भी प्रदान किया गया। प्रो.अवधेश प्रधान ने अपने वक्तव्य में कहा कि लक्ष्य महान होने से ही कविता महान होती है, भक्तिकाल के कविता का उद्देश्य महान है। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता हिन्दी विभाग के अध्यक्ष प्रो. सदानंद साही ने की। अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में उन्होंने कहा कि भक्ति कविता माया महाठगिनी को खारिज करते हुए मनुष्य की प्रतिष्ठा करती है। भारतीय संविधान में जो समता की चेतना है उसका स्रोत कहीं न कहीं हमें भक्ति कविता में जरूर मिलती है।

उन्होंने कहा कि इस समय में विद्यार्थियों का पाठ से परिचय कम हुआ है। हम किसी की लिखी आलोचना पढ़कर धारणा विकसित कर लेते हैं, जबकि विद्यार्थियों को चाहिए कि वे मूल पाठ की ओर जाएं। आचार्य द्विवेदी का एक निबंध हैः मनुष्य साहित्य का लक्ष्य है, इसमें आचार्य द्विवेदी प्रकारांतर से भक्ति कविता के ही सारतत्व को प्रस्तुत कर रहे थे। कबीर कहते थे कि यह संसार भेद की पूंछ पकड़े हुए है, आदमी-आदमी का भेद, स्त्री-पुरुष का भेद और शैक्षणिक जगत में कबीर बनाम तुलसी, तुलसी बनाम सूर चला करता है जबकि यहां कबीर अभेद की बात कर रहे हैं।

उन्होंने कहा कि भारत का स्वप्न कई पाठों को मिलाकर बनता है। शंभूनाथ की पुस्तक ' भक्ति आंदोलन उत्तर धार्मिक संदर्भ' में उल्लिखित है, " भारत की भक्ति कविता भारत का सतरंगा इंद्रधनुष है, उसे आप एक रंग में नहीं कर सकते। इन विविध रंगों की छवि को निहारने की कला पैदा करना साहित्य के शिक्षक, शोधार्थी का प्रथम कर्त्तव्य है।" राजनीति के लिए धर्म वही चीज नहीं है जो तुलसी के लिए है। इस संदर्भ में सबसे अच्छा कार्य भक्ति कविता करती है। गांधीजी ने भी भक्ति कविता का पारायण किया था। गांधी कहते थे कि मेरे लिए धर्म आत्मबोध और ज्ञानबोध है। यद्यपि मैं वैष्णव हूं। मेरी काम वाली बाई रंभा ने मुझे राम-नाम का मंत्र दिया था । गांधी कहते थे कि मेरा राम आपके भीतर का सच है और मेरा राम हर जगह है केवल मंदिर में नहीं है। ये सत्य और राम एक दूसरे के पर्याय हैं ऐसा गांधीजी मानते थे। उनके राम आपके भीतर बसने वाले राम हैं। इसके जरिए उन्होंने अपने जीवन में साहस एकत्रित किया, इस साहस के एकत्रीकरण में कवियों की कविताओं की बड़ी भूमिका थी। जब गांधी ने 1930 में दांडी यात्रा प्रारंभ की तो उसमें मात्रा 78 लोग थें, लेकिन गांधी के भीतर यह आशा थी कि मैं सही हूं तो लोग आएंगे और आपको ये जानकार आश्चर्य होगा कि चलते-चलते इतनी तादात में लोग जुड़े कि उनके ऊपर धूल उड़कर बैठ गई था ऐसा लगता था कि जैसे माटी के पुतले हों। सामने अनंत क्षितिज था और गांधीजी ने मुठ्ठी में नमक उठाकर उसी दिन साम्राज्यवाद को चुनौती दे दी थी। उसी दिन भारत आजाद हो गया था। रवींद्र नाथ टैगोर का गीत 'एकला चलो रे' गांधी की प्रेरणा बना था। यू.आर.अनंतमूर्ति ने कहा था कि हम तो राजनीति में हैं, जो साहित्य में घटित होता है, देर सबेर राजनीति में भी घटित होता है। राजनीति में बड़े रूपक तभी आएंगे जब साहित्य में बड़े रूपक आयेंगे। नंदलाल घोष ने गांधी की दांडी यात्रा पर 'एकला चलो रे' का पोस्टर बनाकर प्रचारित किया था। आप सभी 'नोआखाली' के दंगे से तो परिचित ही होंगे। मनू गांधी ने अपनी डायरी में लिखा है कि जब हिंदुस्तान और पाकिस्तान आज़ादी का जश्न मना रहे थे तब नोआखली में जनसंहार हो रहा था, अल्पसंख्यकों को जान-माल की हानि हो रही थी तब गांधी ही थे जो वहां पहुंचे थे, गांधी के पहुंचने पर उनका विरोध हुआ। गांधी के मार्ग में शीशे बिछा दिए जाते थे, कीचड़ बिछा दिए जाते थे। इस कारण गांधी सुबह 7 बजे से ही यात्रा प्रारंभ कर देते थे। गुजरात के प्रसिद्ध कवि नरसी मेहता का भजन ' वैष्णव जन तेने कहिए जे पीर पराई जानें रे' का रूपांतरण गांधी ने ही किया। वैष्णव जन तेने कहिए, सिक्ख जन तेने कहिए, मुस्लिम जन तेने कहिए जे पीर पराई जानें रे। सिक्ख वह है जो दूसरों की पीड़ा जानें, मुस्लिम वह है जो दूसरों की पीड़ा जानें। मनू बेन ने लिखा है कि बापू 'एकला चलो रे' गीत गाते हुए चल पड़ते थे। उन्होंने कहा, " टैगोर भक्ति कविता के आधुनिक भाष्य थे।" इसलिए गांधी को टैगोर इतने प्रिय थे। राज घाट सर्व सेवा संघ से एक किताब छपी हैः गांधी को जैसा विनोबा ने देखा। एक शिष्य को कैसा होना चाहिए ये हमें विनोबा बताते हैं। विनोबा साबरमती आश्रम गए। उनके भीतर भाव जागृत हुआ की बापू, ' वैष्णव जन तेने कहिए जे पीर पराई जानें रे ' गाते तो हैं लेकिन जीवन में कितना उतारा है ये जानने को उत्सुक हुए। यानि एक शोधार्थी को भी अपने शिक्षकों के आचरण की परीक्षा करनी चाहिए। विनोबा ने अन्वेषण किया तो पाया कि वह सब बापू के आचरण में है जो नरसी मेहता की कविता में है। इंदिरा गांधी का विवाह सादा सूत काटकर बनाई गई साड़ी पहना कर किया गया था जिसे जवाहर लाल नेहरू ने जेल में काता था। और उनके विषय में यह दुष्प्रचार फैलाया गया था कि उनका सूट पेरिस में धुलता है। सरदार वल्लभ भाई पटेल की बेटी पटेल के फटे कुर्ते से ब्लाउज बनाकर पहना करती थीं। भक्ति कविता का संबंध तो उस भारत से है जो आचरण से ढलता भारत हो। भक्तिकालीन कवियों रैदास, तुलसी आदि में आपको ये पाखंड नहीं मिलेगा। उन्होंने जो चाहा उसे अपने जीवन में उतारा। रेमंड विलियम कहता है कि जब दुनिया में समाजवाद आ जाएगा, जब भेद नहीं रहेगा, विश्व बंधुत्व आ जाएगा तब कला की ज़रूरत नहीं रहेगी क्योंकि तब मनुष्य ही कला हो जायेगा।

अब यह एक बहुत बड़ा यूटोपिया है। रैदास, गांधी, तुलसी से भी बड़ा यूटोपिया, ऐसा होगा या नहीं यह कहना मुश्किल है। उन्होंने कहा, " भक्त कवि इस धरती की कला थे।" ऐसे कवि समस्त संसार में दुर्लभ हैं। आचरण की कविता मंत्र की भांति आचरण करती है। तो यह है स्वप्न। आधुनिक भारत के सबसे बड़े साम्राज्यवाद से लड़ाई लड़ने वाले गांधी, गांधी के सामने यथार्थ था। राजकुमार शुक्ल के बुलावे पर जब गांधी पटना पहुंचे, गांधी ने पूछा शौचालय कहां है शुक्ल जी उन्हें राजेंद्र बाबू के घर ले गए, राजेंद्र जी के न होने पर उनके नौकर ने उन्हें अंदर नही जाने दिया। गांधी के इंग्लैंड के मित्र मजलूल हक ने कहा यहीं बैरिस्टरी करो लेकिन गांधी गए। जब गांधी 10 महीने बाद लौटे, नील किसान विद्रोह को 4 महीने के अंदर जीत लिया। गांधी ने कलेक्टर को तर्क से हराया और कलेक्टर ने खुद गवर्नर को पत्र लिखा। वकील साहेब, राजेंद्र बाबू ये सभी लोग अपने अपने नौकरों के साथ पहुंचे। गांधी ने अनुभव किया कि जो सामूहिक भोजन नहीं कर सकते वे देश को क्या ही एकता के सूत्र में बांधेंगे। गांधी को भारत की गरीबी का साक्षात्कार पहली बार चंपारण में ही हुआ। जहां एक औरत के पास एक ही साड़ी है जो अंधेरे में नहाती है तब गांधी को नैतिक पश्चाताप हुआ। उन्हें कबीर का चरखा याद आता है और उन्होंने चरखे को अपना लक्ष्य बना लिया। गांधी ने चरखे का संगीत नाम से यंग इंडिया में एक लेख लिखा, " जब मैं करोड़ों लोगों को बेकाम देखता हूं तो मुझे चरखे की याद आती है। जब मैं सूत काटता हूं तो सूत के धागे में मुझे संगीत का स्वर सुनाई देता है। रवींद्र ने 1915 में कबीर की 100 कविताओं का अनुवाद ' poems of Kabir ' नाम से किया। एवरी नंदन हील ने इसकी भूमिका लिखी। उन्होंने बताया, "कबीर की कविता में मुझे उद्योग और अध्यात्म का मेल दिखाई देता है"। तब ज्ञात होता है जब कबीर चरखे पर बैठते थे तो गाते थे, " झीनी- झीनी बीनी रे चदरिया, कहां का ताना कहां की बरनी, कौन तार से बीनी रे चदरिया।" इस रूपक को रेखांकित किया एवरी नंदन हील ने। उद्योग और अध्यात्म का मेल गांधी भी चाहते थे और कबीर भी चाहते थे। यह स्वप्न एक और स्वप्न जो, लघु-मध्यम उद्योग का था। इनका विनाश करके प्रकृति का विनाश करने वाले उद्योग का विकास कर रहें हैं। राम मनोहर लोहिया और सच्चिदानंद सिन्हा आदि ने बड़े उद्योगों पर सवाल खड़े किए। पूंजीवाद जिन देशों में आया, वह उपनिवेशों के शोषण से आया। अब भारत किसका शोषण करेगा। तो सिन्हा ने कहा कि यदि भारत पूंजीवाद की राह पकड़ेगा तो आन्तरिक उपनिवेश बढ़ेगा। जैसे नर्मदा घाटी को आंतरिक उपनिवेश , छत्तीसगढ़ को, झारखंड को, बिहार आंतरिक उपनिवेश बना दिया गया। जब भव्य पैमाने पर पूँजीवादी विकास की नीतियाँ बनेंगी तो भेद पैदा होगा, पर्यावरण बर्बाद होगा ही। अध्यात्म होगा तभी तो लोभ कम होगा। वरना पूंजीपतियों के लोभ का कोई ठिकाना है। इस विकास का कोई तर्क नही है। जो पूंजीपति 10 साल पहले 100 वें स्थान पर था आज उसका स्थान छठां है। अपनी विकास नीति पर भी विचार करें जो कुछ लोगों को अमीर बना रही है बाकी को गरीब। भक्ति कविता उद्योग और अध्यात्म, विकास की नीतियों पर भी सोचने को बाध्य करती है। नए भारत का स्वप्न, अब किसी को पछतावा तक नहीं होता कि मात्र 13% लोगों के पास इतनी पूंजी है बाकी सारा देश इतने कम पूंजी में चल रहा है। भक्ति कविता इस ओर ध्यान केंद्रित करती है। इसलिए भक्ति कविता आचरण की कविता है। पाश ने भी कहा था, “सबसे भयावह होता है आदमी के स्वप्न का मर जाना।“

कार्यक्रम की अगली कड़ी में प्रो. अवधेश प्रधान ने अपने वक्तव्य में कहा कि यह विषय आज के समय को देखते हुए बिल्कुल प्रसंगोचित और प्रेरणा से भरा हुआ है। जिस प्रकार से छात्रों के प्रश्न आ रहे थे, ये इस परचर्चा की सफलता का प्रमाण है। हमारे हिंदी साहित्य पर भक्तिकाल का सबसे अधिक प्रभाव रहा है। मन का संकल्प और संकल्प से निकलने वाली वाणी और कर्म एक ही होनी चाहिए, इसे आचरण की एकता कहते हैं। इस आचरण की एकता को हम भक्तिकाल के कवियों में देख सकते हैं। लक्ष्य महान होने से कविता महान होती है, भक्तिकाल की कविता का लक्ष्य महान था।
"कहणी सुहेली , रहणी दुहेली, कहणी , रहणी द्विध थोथी।"

राधाकृष्णन ने संस्कृत की तरह अंग्रेजी को पकड़ लिया था ये लंबे -लंबे वाक्य होते थे। नेहरू की अंग्रेजी 19 वीं सदी की थी और गांधी की अंग्रेजी 20 वीं सदी की। यूं छोटे-छोटे सुगठित वाक्य, सादगी से भरा हुआ, सरल और सहज। गांधी ने अपनी पूरी परंपरा को उतार लिया। उन्होंने ने कहा "इस पर कि ' मैं गांधी कैसे बना', एक फिल्म बननी चाहिए।"

रघुपति राघव राजा राम का मंत्र उन्हें रंभा से मिला। जब उन्होंने रंभा से कहा कि रंभा जब मैं अंधेरे से गुजरता हूं तो मुझे भय लगता है तो रंभा ने कहा था कि राम का नाम लो सारे भय दूर हो जाएंगे। गोर्की के उपन्यास का भिखमंगा जब खड़ा होकर कहता है कि I am man' ( प्रेमचंद के उपन्यास रंगभूमि का नायक सूरदास की याद आ गई।)

तब वह मनुष्य की गरिमा, संभावना को उद्बोधित करता है। यूरोप में कई प्रतिभाएं हुईं लेकिन वहां का कोई कवि लोक में गाया गया हो ऐसा नहीं मिलेगा। हमारे भारतवर्ष के लगभग हर प्रदेश में संतों के, कवियों के गीत आज भी गाए जाते हैं। इस देश को ऐसी ही वाणी ने बनाया है। नेहरू जी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि यह आदमी (गांधी) बहुत पिछड़ी बात कहता है लेकिन जनता इतनी तल्लीनता से इसी को सुनती है। जनता को सड़कों पर उतार लाने का माद्दा गांधी ही रखता है। सपना कभी नहीं मरता। इस समय सबसे बड़ा मुद्दा है पर्यावरण। धरती थर-थर कांप रही है। इतना विस्तार है गांधी के चिंतन में किसी ने भी इतने प्रश्नों, समस्याओं पर चिंतन नहीं किया जितना गांधी ने किया, इसीलिए गांधी में आपको अंतरविरोध भी बहुत मिलेगा। राजनीति ने हमारी आंखों को चौंधिया दिया है। अकादमिक जगत में राजनीतिकरण, अनुकरण जोरों पर है। रेत के चरण चिन्हों जैसे अपने चरण चिन्ह मत बनाइए। आलोचकों को मटियामेट करके आप बाजी मार ले जाएंगे ये मत सोचिए, सीखना तो उन्हीं से पड़ेगा और कोई विकल्प नहीं है। उन्होंने बताया कि बंगाल के अकाल पर महादेवी वर्मा ने कई सारे कवियों से लिखने कहा और एक सुंदर कविताओं का संकलन किया। भूमिका में लिखा है," बंगाल के अकाल में हमारी कलम झुलस नही जाती तो हमें लानत है।" आचरण और राजनीति का सम्मिलन कैसे हो, गांधी और जयप्रकाश नारायण इसके उदाहरण हैं। आज की सभ्यता हर चीज़ को हंसी में उड़ा देने वाली सभ्यता है।

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे हिंदी विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. सदानंद साही ने कहा कि कभी बीएचयू की गोष्ठी में केदारनाथ सिंह ने एक बात कही थी कि भक्ति कविता में ये जो प्रेम है, उस समय समाज में घृणा का सैलाब भी रहा होगा। उन्होंने बताया कि भक्ति कविता का मूल संदेश है प्रेम। भक्ति कविता माया महाठगिनी को खारिज करते हुए मनुष्य को प्रतिष्ठित करती है। (हमलोग आसानी से गड़बड़ियों की जिम्मेदारी दूसरों पर डाल देते हैं, हम इतने नालायक भी नही थे कि गड़बड़ियां पैदा न कर सकें वरना गोरखनाथ क्यों समाज में घूम-घूम कर समाज सुधार का कार्य करते, गड़बड़ियां न होतीं तो कबीर न होते, सरहपा न होते, यदि भक्तिकाल होने के बाद भी अंग्रेज काबिज़ हुए तो कुछ गड़बड़ियां तो रही ही होंगी।)

जिसे आज की भाषा में समतामूलक समाज की अवधारणा कहते हैं उसका बीज भक्ति कविता में था। सब में जो रमता है वही राम है। राम एक जगह स्थिर बैठने वाली चेतना नहीं है। हमारे संविधान में वर्णित समानता का उत्स हमें भक्तिकालीन कविता में मिलता है। उन्होंने बताया कि गोपेश्वर सिंह की आलोचना की एक ताजा पुस्तक आई है, जिसका नाम है ' आलोचक का आत्मावलोकन'। यहां आलोचक दूसरों की बखिया उधेड़ते हैं, वे अपना आत्मावलोकन करने के लिए तैयार हैं क्या? आप (शोधार्थी) भी तैयार हैं। उन्होंने कबीर की एक पंक्ति का स्मरण करते हुए, "कबीर ये घर ज्ञान का, खाला का घर नाहिं। सीस उतारे भुईं धरे, तब पैठे घर माहिं" कहा कि हमें पाठ तक, लेखक तक पूर्वाग्रह मुक्त होकर जाना पड़ेगा। किसी विभाग का गौरव वहां के अध्यापकों से नहीं बल्कि वहां के छात्रों और शोधार्थियों से होता है।

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