अब ऐसे संभव हो सकेगा ब्लड कैंसर मरीजों का इलाज

डा. सुपर्णो ने बताया कि कोई भी ल्यूकेमिया या लिम्फोमा (ब्लड कैंसर) जो कीमोथेरेपी से नहीं ठीक हो पाता है, उसके इलाज के लिए बोन मैरो ट्रांसप्लांट की सलाह दी जाती है, और इसके लिए आमतौर पर ऐसे बोन मैरो की आवश्यकता होती है, जो मरीज के बोन-मैरों से पूरी तरह से मैच करता हो।

Update: 2023-08-10 07:39 GMT

मनीष श्रीवास्तव

लखनऊ: ब्लड कैंसर से ग्रस्त ऐसे मरीज, जिन्हें चिकित्सक द्वारा बोन-मैरो ट्रांसप्लांट की सलाह दी गयी है, उनके लिए एक बड़ा सहारा बनकर कार्य कर रहे है दिल्ली के धर्मशिला नारायणा सुपरस्पेशियलिटी हॉस्पिटल के सीनियर कन्सल्टेंट डॉ सुपर्णो चक्रवर्ती। डा. चक्रवर्ती ने अपने शोध से हाफ मैच बोन मैरो का भी ट्रांसप्लांट करने में महारत हासिल की है और बीते दस वर्षों में अपनी इसी महारत से वह अब तक 125 मरीजों में बोन मैरो ट्रांसप्लांट कर चुके हैं।उनके द्वारा बोन-मैरो ट्रांसप्लांट कराने वाले मरीजों के लम्बे समय तक जीवित रहने की दर भी 75 प्रतिशत है।

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अधिकांश मृत्यु डोनर ना मिलने की वजह से हो जाती है

राजधानी लखनऊ पहुंचे डा. सुपर्णो चक्रवर्ती ने बताया कि जिन मरीजों के लिए बोर-मैरो ट्रांसप्लांट की सलाह दी जाती है, उनके घरवाले इसके लिए फुल मैच्ड बोन मैरो वाले व्यक्ति को ढूंढते हैं, यह दुर्भाग्य है इस देश के अधिकतर लोग अपने इस देश में हाफ मैच बोन मैरो ट्रांसप्लांट की सुविधा के बारे में जागरूक नहीं है और अधिकतर की मृत्यु डोनर ना मिलने की वजह से हो जाती है जबकि ऐसी जिंदगियों को बचाया जा सकता है।

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हाफ मैच बोन-मैरो ट्रांसप्लांट से भी

डा. सुपर्णो ने बताया कि कोई भी ल्यूकेमिया या लिम्फोमा (ब्लड कैंसर) जो कीमोथेरेपी से नहीं ठीक हो पाता है, उसके इलाज के लिए बोन मैरो ट्रांसप्लांट की सलाह दी जाती है, और इसके लिए आमतौर पर ऐसे बोन मैरो की आवश्यकता होती है, जो मरीज के बोन-मैरों से पूरी तरह से मैच करता हो। लेकिन फुल मैच बोन मैरो वाले व्यक्ति मिलना मुश्किल होता है, यहां तक कि मरीज के घर-परिवार में भी 90 प्रतिशत लोगों का बोन मैरो भी आधा ही मैच करता है।

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डा. सुपर्णो ने बताया कि भारत में सालाना 10 हजार से अधिक बच्चों में ल्यूकेमिया के मामले सामने आते हैं। उन्होंने बताया कि नेशनल रजिस्ट्री फॉर चाइल्डहुड ल्यूकेमिया के होने के बाद भी इसके प्रति जागरूकता की कमी की वजह से इसका कम संख्या में रिपोर्ट किया जाना और बीमारी को जल्दी पहचान न किया जाना और अधिकतर आधारभूत संरचना में कमी जैसी चुनौतियां सामने हैं।

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