गोंडा की होलीः 400 साल पुरानी ऐसी परंपरा, मनाई जाती है आज भी, जानें इसके बारें में

कर्नलगंज तहसील क्षेत्र का पहाड़ापुर गांव अब कस्बे के रुप में परिवर्तित हो चुका है। लगभग पांच सौ घर और तीन हजार से अधिक आबादी वाले इस गांव में अब दो हजार से भी अधिक मतदाता हैं।

Update:2021-03-24 14:23 IST
गोंडा की होलीः 400 साल पुरानी ऐसी परंपरा, मनाई जाती है आज भी, जानें इसके बारें में (PC: social media)

तेज प्रताप सिंह

गोंडा: भारत देश विविधताओं से भरा है। यहां के गांवों और शहरों में भांति-भांति की मान्यताएं और परम्पराएं प्रचलित हैं। ऐसी ही अनोखी परम्परा जिले के कर्नलगंज तहसील क्षेत्र के पहाड़ापुर गांव में है। जहां मान्यता है कि होलिका दहन से पहले लंका दहन, रावण वध न हो तो कोई न कोई अनहोनी हो जाती है और गांव के लोगों पर बड़ी विपदा आ जाती है। इसीलिए पिछले चार सौ सालों से इस गांव में शारदीय नवरात्र में नहीं बल्कि होलिका दहन से पहले फागुन मास में रामलीला का मंचन, लंका दहन और रावण वध होता है।

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चार सौ वर्ष से चली आ रही परम्परा

कर्नलगंज तहसील क्षेत्र का पहाड़ापुर गांव अब कस्बे के रुप में परिवर्तित हो चुका है। लगभग पांच सौ घर और तीन हजार से अधिक आबादी वाले इस गांव में अब दो हजार से भी अधिक मतदाता हैं। इस गांव में हिन्दू मुस्लिम की मिश्रित आबादी है। कभी टेढ़ी नदी और अब एक तालाब के निकट बसे इस गांव में करीब चार सौ साल पहले मुगल शासन काल से ही फागुन मास में होलिका दहन से पहले रामलीला, लंका दहन और रावण वध का मंचन होता चला आ रहा है।

गांव के बुजुर्ग पं. ठाकुर प्रसाद दीक्षित बताते हैं कि उनके पूर्वज बताते थे कि एक साल रामलीला स्थल पर जल भराव के कारण रामलीला का मंचन नहीं हुआ। होली का त्यौहार भी निपट गया। इसके बाद अचानक गांव के कई लोग बीमार हो गए। तब विद्वान ज्योतिषियों ने इसे दैवीय प्रकोप बताया और होलिका दहन से पहले पड़ने वाले रविवार को लंका दहन और रावण पुतला दहन की सलाह दी। तभी से यह परम्परा चल पड़ी। इस साल भी होलाष्टक लगने से पहले रविवार को लंका दहन के साथ रावण का पुतला दहन किया गया।

मुस्लिम समाज की भी भागीदारी

पहाड़ापुर गांव की इस अनोखी रामलीला में यहां के हिन्दू ही नहीं गांव के सैकड़ों मुस्लिम परिवार भी बढ़-चढ़कर भाग लेते हैं। हिन्दुओं के साथ-साथ यहां के मुसलमान आर्थिक सहयोग और अन्य कामों में पूरे मनोयोग से लगे रहते हैं। एक माह तक चलने वाले इस कार्यक्रम में सभी समुदाय के दर्शकों का जमावड़ा लगता है। गांव के ठाकुर प्रसाद दीक्षित बताते हैं कि वर्षों पहले एक बार हिन्दुओं में कुछ आपसी विवाद के कारण रामलीला का कार्यक्रम प्रारंभ नहीं हो पा रहा था तब गांव के शेर मोहम्मद की अगुआई में मुस्लिम समाज के लोग आगे आए और स्वयं रामलीला कराने का जिम्मा ले लिया था। हालांकि इससे हिन्दुओं को आत्मग्लानि हुई और घूमधाम से कार्यक्रम कराया गया।

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1990 में अचानक फैली थी आग

कई सालों तक रामलीला में नील का रोल निभा चुके गांव के ठाकुर प्रसाद दीक्षित बताते हैं कि आज से 31 साल पहले वर्ष 1990 में भी देवी के प्रकोप के कारण ग्रामीणों ने रामलीला कार्यक्रम रोक दिया था। इसका नतीजा रहा कि गांव में अचानक आग लग गई और लगभग 400 घर जल गए। गांव के कच्चे और फूस के घरों में कुछ नहीं बचा। पक्के मकानों के अंदर भी आग पहुंची और काफी नुकसान हुआ था। तब रामलीला में प्रयोग किए जाने वाले कपड़े और अन्य सामग्री सुरक्षित बच गई थी। लेकिन यह आग कहां से लगी इसका पता आज तक नहीं चला। इसीलिए इसे दैवीय प्रकोप माना गया। इसके बाद गांव के लोग सहम गए और होली के ऐन पहले लंका दहन का यह सिलसिला पुनः चल पड़ा।

रविवार को ही होता लंका दहन

गांव के बर्जुग ब्रहमादीन वैश्य और छांगुर बताते हैं कि बीस दिनों तक चलने वाले इस कार्यक्रम का शुभारंभ राम वनवास से होकर भगवान के राजसिंहासन पर विराजमान होने के बाद समाप्त होता है। यह भी मान्यता है कि रविवार के दिन ही लंका दहन और रावण का पुतला दहन होता है। यदि किसी कारण से दिन रविवार न हो तो यह कार्यक्रम अगले रविवार को होता है। अंतिम दिन राज तिलक के बाद जिस प्रकार भगवान राम ने अयोध्या वासियों का आर्शीवाद लिया था उसी प्रकार यहां भी राम पूरे गांव में रात में घूम-घूम कर आर्शीवाद लेते हैं। राम, लक्ष्मण और उनकी वानर सेना का फूल मालाओं से सम्मान होता है और भोज भी कराया जाता है।

दशहरे के दिन लगता है मेला

ग्रामवासी और पेशे से पत्रकार श्रीनाथ रस्तोगी बताते हैं कि रामलीला समिति के नेतृत्व में हर साल बसंत ऋतु के बाद फागुन मास में रामलीला का कार्यक्रम होता है। वर्तमान में समिति के अध्यक्ष शांतीचंद्र शुक्ला के अगुआई में रामलीला सम्पन्न हो रही है। वैसे तो पूरे रामलीला मंचन के दौरान आसपास के लोग बड़ी संख्या में जुटते हैं किन्तु लंका दहन और रावण वध के दिन यहां विशाल मेला लगता है। मेले में दूर दूर से व्यवसायी आकर दुकानें लगाते हैं। शाम चार बजे से शुरु होकर कार्यक्रम रात भर चलता है।

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विमान उठाने की होड़

पहाड़ापुर गांव के निकट रामलीला मैदान में ही रामलीला होती है। जबकि तालाब और टेढ़ी नदी के बीच बसे मझरेटी मजरे के एक मैदान में लंका दहन और रावध वध का कार्यक्रम सम्पन्न हो ता है। गांव के बुर्जुग छांगुर कहते हैं कि पहले तालाब के पानी से होकर ही मैदान तक पहुंचा जा सकता था। लिहाजा गांव में ब्रहमादीन के घर से सज धज कर भगवान निकलते थे। पुरातन हनुमान मंदिर में पूजा अर्चना के बाद जब वे राम चबूतरे पर आते तो उन्हें कंधे पर बिठाकर तालाब पार कराया जाता था।

कई बार तालाब में पानी अधिक होने से मुश्किलों का भी सामना करना पड़ा, फिर भी भगवान को उन्हें 15 सीढ़ी वाले एक भारी भरकम विमान में बिठाया जाता था। तब भगवान को कंधे पर बिठाने के लिए होड़ लगी रहती थी। अब छोटा सा पुल बन जाने के बाद भी यह परम्परा कायम है और अब भी भगवान को कंधे पर बिठाने और सात सीढ़ी वाले विमान को उठाने की होड़ लगती है। लेकिन अब ट्रैक्टर ट्राली से यह विमान ले जाया जाता है।

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