आशिकों का मेला: मकर संक्रांति में प्रेम की पूजा, यूपी के इस मंदिर में मिलते हैं जोड़े
सरबई गांव के नटों ने अंग्रेजों से युद्ध कर बलिदान दिया था। भूरागढ़ दुर्ग को बचाने के लिए सैकड़ों नटों ने युद्ध में जान गंवाई थी। उनके इसी बलिदान और बहादुरी की याद में नटबली स्थल बनाया गया।
बांदा : देश के ज्यादातर हिस्सों में इन दिनों खास मकर संक्रांति पर कई तरह के मेले लगते हैं, लेकिन कोरोना के चलते पहले इस बार पहले जैसे नजारा ना हो। वैसे हम एक खास मेले का जिक्र करने वाले है। जी हां यहां उत्तर प्रदेश के बांदा जिले में लगने वाले एक अनोखे मेले के बारे में बता रहे हैं। मकर संक्रांति के मौके पर लगने वाले इस मेले को आसपास के इलाके में ‘आशिकों का मेला’ के नाम से जाना जाता है। बांदा जिले में केन नदी के किनारे स्थित है भूरागढ़ किला। मकर संक्रांति के दिन भूरागढ़ किले में ही ‘आशिकों का मेला’ 160 से ज्यादा सालों से लगता आ रहा है।
प्रेम के लिए अपने प्राणों की बलि देने वाले नट महाबली के मंदिर में मकर संक्राति पर मेला लगता है। हजारों की संख्या में प्रेमी जोड़े इस मंदिर में मन्नत मांगने आते हैं। स्थानीय लोग इसे ‘प्यार का मंदिर’ मानते हैं। इस मेले में हर साल लाखों की संख्या में श्रद्धालु दूर-दूर से आते हैं और केन नदी में स्नान करने के बाद भूरागढ़ किले में स्थित ‘प्यार के मंदिर’ में पूजा करने के साथ ही मन्नत मांगते हैं।
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ये प्रेम की अमर दास्तां
स्थानीय लोगों का मानना है कि 600 साल पहले महोबा के अर्जुन सिंह भूरागढ़ किले के किलेदार थे। किले में ही मध्य प्रदेश के सरबई गांव के एक नट जाति का 21 वर्षीय युवक बीरन किले में नौकरी करता था। नट समुदाय नाचने गाने का काम करता था। किले में नौकरी के दौरान ही राजा की बेटी को बीरन से प्यार हो गया। बीरन एक ब्रह्मचारी और तपस्वी नट था। बेटी के प्रेम के बारे में जब अर्जुन सिंह को पता चला, तो उन्होंने बीरन के सामने एक शर्त रखी। राजा ने कहा अगर बीरन एक कच्चे धागे की रस्सी पर चढ़कर नदी के दूसरी ओर स्थित बांबेश्वर पर्वत से किले में पहुंच जाएगा, तो उसकी शादी राजकुमारी से कर दी जाएगी।मकर संक्रांति के दिन सन 1850 में नट ने प्रेमिका के पिता की शर्त पूरी करने के लिए नदी के इस पार से लेकर किले तक रस्सी बांध दी।
साहस और प्रेम की कहानी
इस पर चलता हुआ वह किले की ओर बढ़ने लगा। उसका हौसला बढ़ाने के लिए नट बिरादरी के लोग रस्सी के नीचे चलकर गाजे-बाजे के साथ लोक गीत-संगीत गा बजा रहे थे। नट ने रस्सी पर चलते हुए नदी पार कर ली और दुर्ग के करीब जा पहुंचा। यह तमाशा नोने अर्जुन सिंह किले से देख रहा था। उसकी बेटी भी अपने प्रेमी के साहस का नजारा देख रही थी। युवा नट दुर्ग में पहुंचने ही वाला था तभी किलेदार नोने अर्जुन सिंह ने रस्सी काट दी। नट नीचे चट्टानों पर जा गिरा और उसकी वहीं पर मौत हो गई। प्रेमी की मौत का सदमा किलेदार की बेटी को बर्दाश्त न हुआ और उसने भी किले से छलांग लगाकर जान दे दी।
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उसी जगह पर दो मंदिर बनाए
इन दोनों प्रेमी-प्रेमिकाओं की याद में उसी जगह पर दो मंदिर बनाए गए हैं जहां दोनों का अंतिम संस्कार हुआ था । दोनों मंदिर आज भी बरकरार हैं। नट बिरादरी के लोग इसे विशेष तौर पर पूजते हैं। प्रेमी-प्रेमिकाओं के लिए भी यह खास दिलचस्पी का स्थान बन गया है। तभी से हर साल मकर संक्रांति के दिन यहां नटबली मेला लगता है। तभी से इस मंदिर में प्रेमी मन्नत मांगने आते हैं। तभी से इस मंदिर में प्रेमी मन्नत मांगने आते हैं।
एक नट के अमर प्रेम की कहानी
नटबली मेले की पृष्ठभूमि में प्रेमी-प्रेमिका की कहानी को इतिहासकार नकारते हैं। उनका कहना है कि यह मात्र एक किंवदंती और कहानी है। उन्होंने बताया कि दरअसल सरबई गांव के नटों ने अंग्रेजों से युद्ध कर बलिदान दिया था। भूरागढ़ दुर्ग को बचाने के लिए सैकड़ों नटों ने युद्ध में जान गंवाई थी। उनके इसी बलिदान और बहादुरी की याद में नटबली स्थल बनाया गया। इस स्थान पर कई और क्रांतिकारियों की समाधि और कब्रें भी हैं। लेकिन प्रेमी-प्रेमिका की कहानी ने इसे पीछे कर दिया है।