यहां आज भी आती है बारूद की गंध, अब्दुल हमीद की शहादत की सुनाई जाती है गाथा

1965 में आज ही के दिन वीर अब्दुल हमीद ने पाकिस्तान के पैटन टैंकों का आसल उताड़ में बना दिया था कब्रगाह, आज भी इस गांव से आती है बारूद की गंध

Update:2020-09-08 19:24 IST
1965 में आज ही के दिन वीर अब्दुल हमीद ने पाकिस्तान के पैटन टैंकों का आसल उताड़ में बना दिया था कब्रगाह, आज भी इस गांव से आती है बारूद की गंध।

खेमकरण (भारत-पाकिस्तान सीमा) : भारत-पाक सीमा पर बसा यह गांव कहने को तो महज एक गांव है। मगर इस गांव का जर्रा-जर्रा भारतीय फौज के वीर जवानों के लहू से सिंचित है। भारतीय स्‍वतंत्रता संग्राम के बाद लिखे गए इतिहास का यह वह स्‍वर्णीम पन्‍ना है, जिसपर हर भारतीय गर्वान्वित होता है।

 

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भारत और पाकिस्‍तान के बीच लड़ी गई जंगों का जब-जब जिक्र होगा, तब-तब खेमकरण का नाम बड़े ही गौरव के साथ लिया जाएगा। क्‍योंकि, इसी खेम करण से करीब 7 किमी दूर स्थित है आसल उताड़, जिसे भारतीय फौज ने असल उत्‍तर नाम दिया है। यह वही जगह है जहां 1965 की जंग में भारतीय फौज ने पाकिस्‍तानी फौज को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था।

अमृतसर से करीब 70 किमी दूर तरनतारन जिले में भारत-पाक सीमा पर स्थित गांव आसल उताड़ (असल उत्‍तर) में 1965 की जंग के महानायक वीर अब्‍दुल हमीद की समाधि है। यह समाधि (मजार) उसी स्‍थान पर बनी है जहां वे वीर गति को प्राप्‍त हुए थे। शहीद की इस समाधि पर क्‍या हिंदू-क्‍या मुसलमान, क्‍या सिख-क्‍या ईसाई, हर मजहब के लोग सजदा कर उस शहीद का शुक्रिया अदा करते हैं जिन्‍होंने न केवल पाकिस्‍तानी सेना को उल्‍टे पांव भागने पर मजबूर किया। बल्कि, आसल उताड़ की इस धरती को पाकिस्‍तानी फौज के पैटन टैंकों का कब्रगाह बना दिया। तभी तो आसल उताड़ के लोग अब्‍दुल हमीद की शहादत के 54 साल बाद भी उन्‍हें देवता की तरह पूजते हैं।

कौन थे अब्‍दुल हमीद

खेमकरण और आसल उताड़ के बारे में और अधिक जानने से पहले यह जान लेना जरूरी है कि वीर अब्‍दुल हमीद कौन थे और इनकी वीरता की गाथा हर भारतीय की जुबान पर क्‍यों हैं।

कंपनी क्‍वार्टर मास्‍टर हवलदार अब्‍दुल हमीद का जन्‍म उत्‍तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के धामूपुर गांव में एक जुलाई 1933 को एक सामूली दर्जी परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम सकीना बेगम और पिता का नाम उस्‍मान मोहम्‍मद था। 27 दिसंबर 1954 को भारतीय सेना के ग्रेनेडियर रेजिमेंट में भर्ती हुए। बाद में उनकी तैनाती रेजीमेंट 4 ग्रेनेडियर बटालियन में हुई। इस दौरान उन्‍होंने अपनी बटालियन के साथ आगरा, अमृतसर, जम्‍मू-कश्‍मीर, दिल्‍ली, नेफा और रामगढ़ में हुई। अब्‍दुल हमीद अपने इसी 11 वर्ष के छोटे से कार्यकाल में अपनी बहादुरी का वह इतिहास रच दिया, जो वीरगति को प्राप्‍त होने के बावजूद भारतीय फौज में सूरज की तरह चमक रहा है।

 

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पाकिस्‍तान के कब्‍जे में आ गया था खेमकरण

गांव की चौपाल पर बुजुर्गों के साथ बैठे खेमकरण निवासी 80 वर्षीय कींकर सिंह कहते हैं - हमें याद है 8 सितंबर 1965 की वह काली रात जब पाकिस्‍तानी सैनिकों ने हमपर हमला कर दिया। किसी को संभलने तक का मौका नहीं दिया। तब सीमा पर इतनी चौकसी नहीं होती है। पाकिस्‍तानी फौज के पास एक विशेष तरह की टैंकों का दस्‍ता था। कहा जाता था कि इन टैंकों को अमेरिका ने पाकिस्‍तान को दिया है, जिसे कोई तोड़ नहीं सकता। इन्‍हीं टैकों के सहारे पास्कितानी फौज उन्‍मादी सैलाब की तरह आगे बढ़ रही थी। पूरा खेमकरण सेक्‍टर पाकिस्‍तान के कब्‍जे में आ गया था। यहां तक की खेमकरण रेलवे स्‍टेशन पर पाकिस्‍तानी झंडा लहराने लगा था। और यहां से आगे तक कि रेल प‍टरियां पाकिस्‍तानी सैनिक उखाड़ ले गऐ। वे कहते हैं कि बटवारे से पहले अमृतसर से चलकर तरनतारन होते हुए ट्रेन लाहौर तक जाती थी। किंकर सिंह के साथ बैठे नानक चंद कहते हैं हालत यह थी कि पाकिस्‍तानी फौज यहां से करीब 7 किमी दूर आसल उताड़ तक बढ़ गई थी और उसे भी अपने कब्‍जे में कर दिया था। उस समय अब्‍दुल हमीद अपनी सैन्‍य टुकड़ी के साथ आसल उताड़ में मोर्चा संभाल लिया। भारतीय सेना के पास इतने उन्‍नत किस्‍म के हथियार नहीं थे जो पाकिस्‍तान अमेरिकन पैटन टैंकों का मुकाबला कर सके। लेकिन सैनिकों के पास गजब का जब्‍बा था। पूर्व सैनिक नानक चंद भारतीय फौज के बहादुरी के किस्‍से सुनाते हुए कहते हैं - यहां से सात किमी दूर आसल उताड़ में भारतीय सैनिकों ने अपनी साधारण 'थ्री नॉट थ्री रायफल' और एलएमजी के साथ पैटन टैंकों का मुकाबला करने लगे। इसके बाद जो परिणाम आया वो दुनिया के सामने है।

 

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पैटन टैंकों का कब्रगाह बन गया था आसल उताड़

गांव आसल उताड़ के पूर्व सैनिक हजारा सिंह कहते हैं कि जब 1965 की जंग लगी थी तब मैं बहुत छोटा था। मुझे पूरी तरह याद नहीं है, लेकिन अपने पिता से और सेना में अफसरों से सुना है। हजारा सिंह कहते हैं कि आसल उताड़ का ये जो पूरा इलाका है वह पाकिस्‍तनी पैटन टैंको का श्‍मशान बन चुका था। समूचे इलाके से बारूद की गंघ आती थी। वे कहते हैं कि आसल उताड़ ही नहीं चीमा, भूरा कोहना, करीमपुरा, अमरकोट और वल्‍टोहा तक पाकिस्‍तानी टैंक पहुंचे थे। लेकिन कंपनी क्‍वार्टर मास्‍टर अब्‍दुल हमीद ने अपनी जीप में बैठ कर उसपर लगी गन से पैटन टैंकों के कमजोर हिस्‍सों को सटीक निशाना लगा गन्‍ने के खेत से फायर झोंक दिया। हजारा सिंह कहते हैं तब इस पूरे इलाके में गन्‍ने की खेती अधिक होती थी। देखते ही देखते एक के बाद एक पैटन टैंक ध्‍वस्‍त होते गए। पाकिस्‍तानी सैनिकों को यह समझ नहीं आ रहा था कि उन्‍हें निशाना किधर से बनाया जा रहा है। इसी बीच टैंक का एक गोला उनकी जीप पर आ गिरा और वह शहीद हो गए। हजारा सिंह कहते हैं कि हमीद न केवल भारतीय सेना के लिए वीर नायक के रूप में समाने आए बल्कि वह खेमरकण के लोगों के लिए भगवान बन गए । वे कहते हैं - मैं सेना में रहा हूं। यह भलीभांति जानता हूं कि टैंकों के आगे 'गन माउनटेन जीप' कहीं नहीं टिकती। लेकिन वह वीर अब्‍दुल हमीद का फौलाद की तरह वो हौशला ही था जिसने पाकिस्‍तानी सैनिकों को नाक रगड़ने पर मजबूर कर दिया। यहां तक कि अमेरिका को पैटन टैंकों के डिजाइन को लेकर समीक्षा करने और दुनिया के तमाम देशों को भारत के ताकत को मानने पर विवश कर दिया था, जिसकी वो कल्‍पाना तक नहीं कर सकते थे।

हर घर में है शहीदों का मंदिर

आल उताड़ के ही पूर्व सैनिक राम सिंह कहते हैं। आपने गांव में आने से पहले सडक किनारे टैंकों वाला मंदिर देखा होगा। इस मंदिर में किसी देवता की पूजा नहीं होती। बल्कि, यहां 1965 की जंग में शहीद होने वाले उन सैनिकों की पूजा होती है, जिन्‍होंने देश की आन के लिए अपनी जान न्‍यौछावर कर दी थी। राम सिंह कहते हैं- वेशक यह मंदिर शहीद सैनिकों के सम्‍मान में सेना ने बनवाया है, लेकिन आसल उताड़ के हर घर में वीर अब्‍दुल हमीद किसी 'कुल देतवता' की तरह पूजे जाते हैं। वे कहते हैं- हमने भी अपने घर में हमीद की तस्‍वीर लगा रखी है। राम सिंह कहते हैं- गांव के बाहर टैंकों वाला जो मंदिर है- वहां अब्‍दुल हमीद के शहीदी दिवस 10 सितंबर को भारतीय सेना की तरफ से श्रद्धांजलि तो दी ही जाती है। गांव वालों की तरफ से यहां अखंड पाठ रखा जाता है। इसके अलावा खूनदान कैंप और खेल प्रतियोगिताएं करवाई जाती हैं।

 

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तीर्थस्‍थल से कम नहीं है शहीदी स्‍थल

अमृतसर-खेकरण रोड पर गांव चीमा के पास वीर अब्‍दुल हमीद की समाधि है। कहा जाता है कि यह समाधि उसी स्‍थान पर बनी है, जहां 10 सितंबर 1965 को पाकिस्‍तानी टैंकों को निशाना बनाते हुए वो शहीद हुए थे। यहां पर गन्‍ने का खेत था जिसकी आड़ लेकर हमीद पैटन टैंकों पर अचूक निशाना लगाते थे। जंग खत्‍म होने के बाद भारत सरकार ने इस जगह को उसके असल मालिकों से खरीद कर यहां परमवीर चक्र विजेता वीर अब्‍दुल हमीद की समाधि बनवाई। खेम करण के लोगों का कहना है कि 11 नबंर 2015 को जब प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी सैनिकों के साथ दीवाली मनाने सरहद पर आए थे थे वह शहीद के इस वंदनीय स्‍थल पर भी आए थे। और इसे भव्‍य रूप देने को कहा था। उस समय आसल उताड़, भकना, कोहना सहित अलग-अलग जगहों पर शहीदों की याद में बने स्‍माकरकों को एक स्‍थान पर इसी जगह स्‍थापित करने के निर्देश दिए। इसके बाद 1965 की जंग के हीरो रहे सैनिकों की याद में संगमरमर स्‍मारक बनवाए गए। शहीदी स्‍थल के गेट पर पैंटन टैंक को भारतीय सेना की विजय के रूप में स्‍थापित किया।

10 सितंबर को लगता है मेला

वीर अब्‍दुल हमीद सहित 1965 के शहीदों के परिजन इस वंदनीय स्‍थल पर प्रति वर्ष 10 सितंबर को आते हैं और अब्‍दुल हमीद की मजार पर चादर चढ़ाते हैं। यही नहीं यहां देश के कोने-कोने से पर्यटक भी आकर शहीदों को नमन करते हैं।

टैंका वाला मंदिर के सवादार पूर्व सैनिक हाजरा सिंह, रिटायर्ड हवलदार जसपाल सिंह, पूर्व सैनिक नशान सिंह सहित आसल उताड़, खेमकरण सहित अन्‍य गांवों के लोग कहते हैं कि शहीदी दिवस पर यहां सैनिक भर्ती रैली करवाई जानी चाहिए जो शहीदों को सच्‍ची श्रद्धांजलि होगी।

 

 

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वीर अब्‍दुल हमीद पर लिखी गई किताबें

भारतीय साहित्‍यकारों ने भी वीर अब्‍दुल हमीद वीरगांथा को अपनी लेखनी से सहेजा। इनमें मुख्‍य रूप से राही मासूम रजा ने 'वीर अब्‍दुल हमीद' , हरबख्‍श सिंह ने - 'वॉर डिस्‍पेचेज' लिखी है। इसके अलावा वीर अब्‍दुल हमीद पर आधारित परमवीर चक्र नामक धारावाहिक भी बन चुका है, जिसे 91-92 के दशक में दूरदर्शन पर प्रशारित किया जाता था।

रिपोर्टर दुर्गेश पार्थ सारथी

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