लखनऊ: कहावत है - तेल देखो और तेल की धार देखो। पीएम नरेन्द्र मोदी ने तेल की जिन कीमतों से अपनी ‘अच्छी’ किस्मत को जोड़ा था उसी तेल के भाव आज दूसरी कहानी बयान कर रहे हैं। वजह जरा सी है - पेट्रोल व डीजल के दाम तीन साल में सर्वोच्च लेवल पर हैं। यही नहीं, किस्मत इतनी भी खराब हो सकती कि पेट्रोल के दाम इस साल के आखिर तक 80-85 रुपये लीटर पहुंच जायें। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चा तेल महंगाई के कीर्तिमान स्थापित करने पर तुला हुआ है और हमारी तेल कंपनियां साफ कह रही हैं कि अन्तरराष्ट्रीय बाजार का असर पेट्रोल पम्पों पर दिखेगा ही। महंगे तेल के लिए वैसे तो तेल उप्तादक देशों को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है लेकिन यह भी सच्चाई है हमारी तेल कंपनियों का प्रॉफिट भी जबर्दस्त बना हुआ है और इंडियन ऑयल मुनाफा कमाने वाली नंबर वन सरकारी उपक्रम हो गया है जिसका मार्च 2017 में शुद्ध मुनाफा १९ हजार करोड़ रुपए दर्ज किया गया था।
दुनियाभर में बढ़ीं कीमतें
असल में तेल उत्पादक देशों के संगठन ओपेक तथा रूस के नेतृत्व वाले नॉन ओपेक देशों ने मार्च 2018 से साल के अंत तक तेल उत्पादन में कटौती करने का फैसला किया है। इसकी वजह विश्वव्यापी मांग में बढ़ोतरी, अमेरिका में रिकॉर्ड तोड़ ठंड के कारण बढ़ती हुयी मांग, रूस में होने वाले चुनाव, सऊदी अरब समेत खाड़ी के देशों के आंतरिक हालात से जोड़ कर देखा जा रहा है। यह भी कहा जा रहा है कि तेल उत्पादक देशों ने बीते साल में कच्चे तेल की गिरती कीमतों के कारण काफी नुकसान उठाया है सो अब उस घाटे को बराबर करने के इंतजाम किये जा रहे हैं। इसके साथ-साथ चीन और भारत में मजबूत आर्थिक विकास के बीच तेल की मांग में लगातार इजाफा हो रहा है।
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भारत तेल के प्रमुख आयातकों में से है और वह कुल इस्तेमाल का 80 प्रतिशत से ज्यादा तेल का आयात करता है। इसलिए जैसे ही कच्चे तेल की कीमतें उबाल मारती हैं तो उसका असर यहां के बाजारों पर पडऩे लगता है। तेजी के मौजूदा माहौल के बीच इस बात की गुंजाइश भी बन रही है कि रुझान एकदम से पलट जाए। दरअसल अमेरिका में तेल का उत्पादन बढ़ रहा है। इस वजह से ओपेक और रूस का उत्पादन घटाकर दाम बढ़ाने का दांव उल्टा पड़ सकता है। अमेरिका में उत्पादन बढऩे से पहले भी कच्चे तेल के दाम गिर चुके हैं। गौर करने वाली बात है कि अमेरिका पिछले कुछ वर्षों में कच्चे तेल के शुद्घ आयातक से शुद्घ निर्यातक बन गया है। भारत भी अब अमेरिका से कच्चा तेल आयात करने लगा है।
भारत में डिमांड
2017 में भारत ने 42 लाख बैरल कच्चा तेल प्रतिदिन के हिसाब से आयात किया। 2016 में नोटबंदी और कर में बढ़ोतरी के कारण तेल की डिमांड वृद्धि दर 12 फीसदी घट गयी थी लेकिन 2017 में यह 7.4 फीसदी यानी 41 हजार बैरल प्रतिदिन की दर से बढ़ी है। 2018 के लिये अनुमान है कि तेल की डिमांड 4.3 फीसदी की दर से बढ़ेगी। इसकी वजह उपभोक्ताओं में क्रय शक्ति का बढऩा और ग्रामीण इन्फ्रास्ट्रक्चर में तेज विकास का होना है। नतीजतन दुपहिया और यात्री कारों की बिक्री बढ़ेगी। जहां तक ईंधन की बात है, दिसंबर 2017 में मांग 7.5 फीसदी बढ़ी है। दिसंबर 2016 की तुलना में पेट्रोल की मांग दिसंबर 17 में 10.3 फीसदी ज्यादा रही, एलपीजी की मांग 6 फीसदी ज्यादा रही। सरकार का कहना है कि मांग को पूरा करने के लिये देश में तेल शोधन यानी रिफाइनिंग क्षमता वर्ष 2040 तक बढ़ा कर 500 मिलियन टन प्रति वर्ष कर दी जायेगी।
क्या है ब्रेंट क्रूड
ऐसे तो कच्चे तेल की दर्जनों कैटेगेरी होती हैं जो क्षेत्र विशेष से निकाले गए तेल को दी जाती है, लेकिन तेल के दाम अमूमन तीन प्रमुख कैटेगरी से जुड़े होते हैं। ऐसा कच्चा तेल जिसमें सल्फर की मात्रा कम होती है और जिसकी डेन्सिटी यानी घनत्व कम होता है उसे ब्रेंट क्रूड कहते हैं। ऐसे तेल को रिफाइन करके उससे पेट्रोल तथा डीजल बनाना आसान होता है। ब्रेंट नाम असल में नॉर्थ सी (अटलांटिक ओशन का हिस्सा) के चार तेल क्षेत्रों - ब्रेंट, फोर्टीज़, ओसबर्ग और इकोफक्स से निकाले गए तेल को दिया जाता है।
इस क्षेत्र का तेल हल्का और कम गंधक युक्त होता है। विश्व में दो तिहाई तेल यही बिकता है। चूंकि यह तेल समुद्र से निकाला जाता है सो इसे सुदूर क्षेत्रों तक ले जाना आसान है। ब्रेंट के अलावा ‘वेस्ट टेक्सास ङ्क्षटरमीडिएट’ (डब्लूटीआई) और दुबई-ओमान तेल की कैटेगरी होती है। डब्लूटीआई अमेरिका के तेल कुंओं से निकाला गया तेल होता है। यह तेल बहुत हल्का और अत्यंत कम गंधक युक्त है। लेकिन चूंकि यह तेल कुंए जमीनी इलाके में हैं तो इसे विश्व में अन्यत्र ले जाना महंगा पड़ता है। अमेरिका में पेट्रोल-डीजल के दाम डब्लूटीआई से ही तय होते हैं। मिडिल ईस्ट का कच्चा तेल ब्रेंट या डब्लूटीआई से थोड़ा नीचे के ग्रेड का होता है। दुबई, ओमान या अबू धाबी का तेल भारी और ज्यादा गंधक वाला होता है और इसकी प्रमुख सप्लाई एशियाई बाजार में है।
विकास योजनाओं पर बढ़ती कीमतों का असर
कच्चे तेल की ऊंची कीमतें भारत जैसे तेल की भारी खपतवाले देशों के लिए अच्छी नहीं हैं। देश की विकास योजनाओं पर भी इसका असर पड़ता है। भारत भारी मात्रा में तेल का आयात करता है। तेल की ऊंची कीमतों के कारण देश में महंगाई बढ़ती है और इससे आरबीआई के लिए रेट कट करना मुश्किल हो जाता है। इससे विदेशी मुद्रा की डिमांड बढ़ती है और सरकार के पास विकास के लिए कम पैसा बचता है। इस तरह इससे विकास योजनाएं भी प्रभावित होती हैं।
85 रुपये प्रति लीटर पहुंच सकता है भाव
बीते सप्ताह अंतरराष्ट्रीय बाजार में ब्रेंट क्रूड की कीमत 70.05 डॉलर प्रति बैरल पर पहुंच गई तथा ब्लूमबर्ग के आंकड़े के मुताबिक 1 जुलाई 2017 से अंतरराष्ट्रीय बाजार में क्रूड ऑयल 46 फीसदी चढ़ा है। विशेषज्ञों का मानना है कि पेट्रोल का भाव इस साल के अंत तक 85 रुपये प्रति लीटर तक पहुंच सकता है। मॉर्गन स्टैनले और बैंक ऑफ अमेरिका मैरिल लिंच ने 2018 के लिए कच्चे तेल के औसत भाव के अनुमान में बढ़ोतरी की है। मैरिल लिंच ने अपने अनुमान में आठ डॉलर की बढ़ोतरी की है। अब 2018 में ब्रेंट क्रूड का औसत भाव 64 डॉलर और डब्ल्यूटीआई क्रूड का औसत भाव 60 डॉलर रहने का अनुमान लगाया है। यही कारण है कि विशेषज्ञ 85 रुपये प्रति लीटर के भाव का अनुमान लगा रहे हैं।
देश में आखिर कैसे तय होती हैं कीमतें
देश के फ्यूल रिटेल बाजार के 90 फीसदी से ज्यादा हिस्से पर सरकारी तेल कंपनियों का कब्जा है। मार्केटिंग मार्जिन, डीलर कमीशन और सरकारी शुल्कों को जोडऩे के बाद कंपनियां पेट्रोल और डीजल की फुटकर कीमत तय करती हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर कच्चा तेल प्रति बैरल के हिसाब से खरीदा और बेचा जाता है। एक बैरल में तकरीबन 162 लीटर कच्चा तेल होता है। जिस कीमत पर हम पेट्रोल खरीदते हैं उसका करीब 48 फीसदी उसका बेस यानी आधार मूल्य होता है। इसके अलावा करीब 35 फीसदी एक्साइज ड्यूटी, करीब 15 फीसदी सेल्स टैक्स और दो फीसदी कस्टम ड्यूटी लगाई जाती है।
तेल के बेस प्राइस में कच्चे तेल की कीमत, प्रॉसेसिंग चार्ज और कच्चे तेल को शोधित करने वाली रिफाइनरियों का चार्ज शामिल होता है। एक्साइज ड्यूटी कच्चे तेल को अलग-अलग पदार्थों जैसे पेट्रोल, डीजल और किरोसिन आदि में तय करने के लिए लिया जाता है। वहीं, सेल्स टैक्स कर संबंधित राज्य सरकार द्वारा लिया जाता है। राज्यों द्वारा लिया जाने वाला बिक्री कर ही विभिन्न राज्यों में पेट्रोल की कीमत के अलग-अलग होने के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार है। विभिन्न राज्यों में ये कर या वैट 17 फीसदी से लेकर 37 फीसदी तक है। भारत में पेट्रोल की कीमतों का नियंत्रण सरकार नहीं करती बल्कि कंपनियां करती हैं, पर डीजल और कैरोसिन और रसोई गैस की कीमतों पर अभी भी सरकार का ही नियंत्रण है और इस पर सरकार सब्सिडी देती है।
राज्यों से टैक्स कम करने की अपील
पेट्रोलियम मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान का कहना है कि आम लोगों पर पेट्रोल व डीजल की कीमतों की मार कम करने के लिए केन्द्र की तरफ से बीते साल अक्टूबर में ही उत्पाद शुल्क में दो रुपये की कटौती की गई थी। इस कटौती से सरकारी खजाने पर सालाना 26 हजार करोड़ रुपये का बोझ पड़ रहा है। उन्होंने कहा कि इस बारे में वित्त मंत्री अरुण जेटली को भी लिखा गया है और राज्यों से भी टैक्स में कमी करने पर विचार करने की अपील की गई है।