Trivendra Singh Rawat: इस वजह से हुई विदाई, ऐसा रहा इनका राजनीतिक कैरियर

त्रिवेंद्र सिंह रावत की आक्रामक कार्यशैली का विरोध लगातार हो रहा था लेकिन ताबूत में कील का काम किया गढ़वाल में नई कमिश्नरी बनाने के फैसले ने। तीसरी कमीश्नरी गैरसैण बनाई गई। जबकि इससे पहले उत्तराखंड में दो कमीश्नरी थी।

Update: 2021-03-09 11:28 GMT
त्रिवेंद्र सिंह रावत की आक्रामक कार्यशैली का विरोध लगातार हो रहा था लेकिन ताबूत में कील का काम किया गढ़वाल में नई कमिश्नरी बनाने के फैसले ने। तीसरी कमीश्नरी गैरसैण बनाई गई। जबकि इससे पहले उत्तराखंड में दो कमीश्नरी थी।

रामकृष्ण वाजपेयी

नई दिल्ली। मिस्टर क्लीन की इमेज लेकर उत्तराखंड की गद्दी पर आसीन हुए त्रिवेंद्र सिंह रावत के राजनीतिक कैरियर की बात करें तो 1979 से 2002 तक उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का काम देखा है। 2002 में, वे राज्य के पहले विधान सभा चुनाव में डोईवाला से चुने गए थे। 2007 के चुनावों में उन्होंने अपनी सीट बरकरार रखी और राज्य के कृषि मंत्री के रूप में कार्य किया। वह झारखंड के प्रभारी और उत्तराखंड कैडर के अध्यक्ष भी रहे। 2017 में डोईवाला से जीतने के बाद उन्हें मुख्यमंत्री नामित किया गया। असल बात ये है कि उनकी विदाई की क्या वजह रही

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त्रिवेंद्र की आक्रामक कार्यशैली

जैसा कि चर्चा है त्रिवेंद्र की आक्रामक कार्यशैली का विरोध लगातार हो रहा था लेकिन ताबूत में कील का काम किया गढ़वाल में नई कमिश्नरी बनाने के फैसले ने। तीसरी कमीश्नरी गैरसैण बनाई गई। जबकि इससे पहले उत्तराखंड में दो कमीश्नरी थी।

कुमाऊं और गढ़वाल मंडल 13 जिलों में विभाजित थी जिसमें कुमाऊं में छह जिले जबकि गढ़वाल मंडल में सात जिले शामिल थे। अब तीसरी कमीश्नरी गैरसैंण बनने के बाद चमोली, रुद्रप्रयाग, अल्मोड़ा और बागेश्वर जिले को शामिल किया गया है। इस फैसले ने पहले से रुष्ट चल रहे कुमाऊं मंडल के गुस्से को भड़का दिया।

शुरुआत में त्रिवेंद्र सिंह रावत ने बेहद धीमी गति से चलकर खुद को स्थापित करने का प्रयास किया ये ठीक भी था उनकी साथ एक तेजतर्रार नेता की बनी। लेकिन मंत्रिमंडल के मलाईदार पदों पर खुद कब्जा करके बैठे रहने से भाजपा के उनके अपने ही नाराज हो गए।

फोटो-सोशल मीडिया

इसके अलावा फैसलों में और प्रशासनिक कामकाज में उनके परिवार के हस्तक्षेप के आरोप भी लगाए गए लेकिन मूल बात थी मंत्रिमंडल में कुमाऊं मंडल को उचित स्थान न देना। जिसके चलते चार साल का सफर पूरा करने से चंद रोज पहले ही पार्टी में उनके अपनों के शिकार हो गए। शायद यही वजह थी कि उनके अपने ही विधायकों ने दिल्ली में जाकर दस्तक दी और अपनी पीड़ा शीर्ष नेतृत्व से बयां की।

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त्रिवेंद्र को जीवनदान

भाजपा शीर्ष नेतृत्व की समस्या यह है कि ऐन पांच राज्यों के चुनाव के दौरान पार्टी मतदाताओं में कोई गलत संदेश नहीं जाने देना चाहती है वरना हो सकता है त्रिवेंद्र को जीवनदान मिल जाता।

लेकिन ऐसे समय में यदि उत्तराखंड में सरकार के खिलाफ भाजपा के भीतर विद्रोह होता है तो इसकी बड़ी कीमत न चुकानी पड़ जाए इसलिए त्रिवेंद्र की विदाई की इबारत पर साइन हो गए। हालांकि सूत्र बताते हैं कि त्रिवेंद्र सिंह रावत ने खुद ये अपने विरोध की बात स्वीकारते हुए भावी मुख्यमंत्री के नाम भी सुझाए हैं।

त्रिवेंद्र की विरोधी लॉबी का यह भी आरोप है कि वह अफसरशाही से परेशान हैं। अधिकारी उनकी बात को नहीं सुनते हैं। जनप्रतिनिधि होने के नाते विधायकों का सम्मान नहीं हो रहा है।

एक और बात देहरादून के मेयर सुनील उनियाल गामा के चलते भी त्रिवेंद्र के जबर्दस्त विरोध की बात कही जा रही है जो अपने आगे किसी को कुछ नहीं समझते हैं। इससे ऐसा लगता है कि त्रिवेंद्र सिंह रावत उत्तराखंड में भाजपा के विधायकों के बीच सबका साथ सबका विकास का वादा पूरा नहीं कर पाए।

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